हम शब्दों से कैसे भ्रमित हो जाते हैं, मध्यप्रदेश चुनाव के लिए हुए मतदान से जुड़ी खबरें इसका बेहतरीन उदाहरण हैं। इनमें एक शब्द है ‘रिकॉर्ड’ दूसरा शब्द है ‘बंपर’… भाई लोगों ने मतदान के आंकड़ों को लेकर इन दोनों शब्दों में ऐसा घालघुसेड़ किया कि हकीकत के चिथड़े उड़ गए।
वैसे यह ‘रिकॉर्ड’ का खेल बड़ा अजीब है। हमारे यहां क्रिकेट में यह इतना ज्यादा चलता है कि पूछिये मत। वहां कई लोग तो जाने कैसी कैसी ऊलजलूल बातों को रिकार्ड के नाम पर परोस कर, बरसों से खा कमा रहे हैं। हो सकता है वहां किसी ने इस बात का भी रिकॉर्ड रखा हो कि छक्का लगाने के लिए उछाली गई गेंद कितनी बार उड़ते हुए कौवे को जा लगी।
और रिकॉर्ड है क्या, वह पुराने आंकड़ों में संशोधन और ताजा आंकड़ों का ब्योरा भर है, जैसे पिछली बार तापमान 40.01 डिग्री था और इस बार 40.02 हो गया तो बन गया रिकार्ड। उसी तरह जैसे मध्यप्रदेश में पिछली बार 72.13 फ़ीसदी मतदान हुआ था और इस बार यदि 72.14 फ़ीसदी भी हो जाता तो भी वह मतदान का नया रिकॉर्ड ही कहलाता।
अब दूसरे शब्द ‘बंपर’ को लीजिए। सामान्य बोलचाल में इसका अर्थ है इफरात या अत्यधिक। जैसे हम कहते हैं कि इस बार बंपर फसल हुई है तो उसका अर्थ है इस बार फसल बहुत ज्यादा हुई है। न तो रिकार्ड बनने के लिए फसल का बंपर होना जरूरी है और न ही बंपर फसल होने का मतलब रिकार्ड तोड़ उत्पादन हो जाना है।
मध्यप्रदेश में हुए मतदान को तो भाई लोगों ने रिकॉर्ड और बंपर दोनों बता दिया। तथ्य यह है कि पिछली बार 72.13 प्रतिशत मतदान हुआ था और इस बार 75.05 फीसदी हुआ है। चूंकि राज्य विधानसभा चुनाव के इतिहास में इतना मतदान पहले कभी नहीं हुआ, इसलिए तकनीकी रूप से यह रिकार्ड है। लेकिन इसमें फूलकर कुप्पा होने या इसे मतदान के प्रति लोगों का जुनून कहना गलत होगा।
दूसरी बात, चुनाव को यदि ठीक से समझना है तो हमें प्रतिशत की राह छोड़कर मतों की संख्या वाली पगडंडी पकड़नी होगी। क्योंकि चुनाव में हारजीत की घोषणा प्रतिशत के लिहाज से नहीं बल्कि उम्मीदवारों को प्राप्त मतों के अंतर के आधार पर की जाती है। जैसे संख्या की दृष्टि से पिछली बार 3 करोड़ 36 लाख 19633 लोगों ने वोट डाले थे तो इस बार 3 करोड़ 78 लाख 52213 लोगों ने। यानी इस बार पिछली बार से 42 लाख 32580 लोगों ने अधिक वोट डाले।
अब यहां एक और बात पर ध्यान देना होगा। हम हमेशा मतदान को दर्शाने के लिए उन लोगों के आंकड़ों का जिक्र करते हैं जो वोट डालने निकले। यह हमारी बहुत बड़ी गलती है कि हम मतदान में बढ़ोतरी की वाहवाही लूटने के लिए सिर्फ डाले गए मतों की संख्या पर ही टिक जाते हैं। वोट न डालने वालों के आंकड़े पर बात ही नहीं होती। जबकि मेरे विचार से यदि सही मायनों में हमें मतदान के प्रति लोगों की रुचि का पता लगाना है तो हमें उन लोगों पर ज्यादा ध्यान देना होगा जो मतदान के लिए घर से ही नहीं निकलते। मेरा मानना है कि मत डालने वालों से ज्यादा महत्वपूर्ण आंकड़ा मत ना डालने वालों का होता है।
अब मध्यप्रदेश में वोट न डालने वालों की संख्या देखें तो 2013 के चुनाव में जहां 1 करोड़ 29 लाख 89391 लोगों ने वोट नहीं डाला था तो 2018 के चुनाव में एक करोड़ 25 लाख 80866 लोग वोट डालने नहीं निकले। तार्किक दृष्टि से यह आंकड़ा इसलिए अहम है क्योंकि यह बताता है कि वोट न डालने वालों की संख्या में इस बार, पिछली बार की तुलना में सिर्फ 4 लाख 8525 की ही कमी आई है। यानी असलियत में तो वोटिंग में इस बार इजाफा करीब चार लाख लोगों का ही हुआ।
अब यदि इस 4 लाख 8525 की संख्या को 51 जिलों और 230 विधानसभा क्षेत्रों में बराबर बांट दें तो यह आंकड़ा प्रति जिला औसतन 8210 और प्रति विधानसभा 1776 ही रह जाता है। ऐसे में दो- सवा दो लाख मतदाताओं वाले विधानसभा क्षेत्रों में, मतो के लिहाज से औसत 1776 की और प्रतिशत के लिहाज से मात्र 0.08 फीसदी की बढ़ोतरी किसी भी सूरत में न तो रिकार्ड कही जा सकती है और न बंपर।
कई लोगों को मेरे इस आलेख के शीर्षक में ‘फर्जीवाड़ा’ शब्द बुरा लग सकते हैं। लेकिन मतदान का प्रतिशत बढ़ाने पर हम जिस तरह लाखों रुपए खर्च करते हैं, सड़कों पर झंडियां, बैनर, मोमबत्तियां लगाने से लेकर दौड़ लगाने तक के जितने जतन हम करते हैं, उसका असर प्रति विधानसभा क्षेत्र यदि हजार डेढ़ हजार लोगों पर ही पड़ रहा है, तो हमें मतदान बढ़ाने के तौर तरीकों पर फिर से सोचना पड़ेगा।
यदि इतना सारा धन और श्रम खर्च करने के बाद भी मतदान में सिर्फ 2.92 की ही बढ़ोतरी हो सकी है तो यह समय फूलकर कुप्पा होने का नहीं, दिमाग की कुप्पी में तेल डालने का है। चुनाव का इतिहास देखें तो कुछ सालों से मतदान में दो ढाई फीसदी की बढ़ोतरी तो हर बार वैसे ही हो रही है। फिर इतनी सारी उठापटक और ढोल-ढमाकों का क्या मतलब?
आगे बात करेंगे, क्यों जरूरी है इस बार मतदान के आंकड़ों और ट्रेंड को बारीकी से देखना…