जब पकौड़े ही तलना है तो डिग्री लेने की जहमत क्‍यों?

जब भी नौकरी या रोजगार का प्रश्‍न आता है, सबसे बड़ी समस्‍या नियोक्‍ताओं के सामने यह होती है कि संबधित कार्य के लिए योग्‍य और कुशल उम्‍मीदवार कहां से लाएं। उनकी जरूरत कुछ और होती है और उस काम के लिए आवेदन करने वालों की योग्‍यता कुछ और। ऐसे में लाजमी है कि नियोक्‍ता अपनी जरूरत के हिसाब से उम्‍मीदवारों को ढूंढ कर लाता है, फिर वे चाहें कहीं भी उपलब्‍ध हों। और कई बार स्‍थानीय और बाहरी का झगड़ा इस कारण भी खड़ा हो जाता है।

कल मैंने ‘द क्विंट’ की खबर के हवाले से कंप्यूटर एप्लीकेशन में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा (पीजीडीसीए) हासिल करने वाले एक युवक का जिक्र किया था, जिसका दावा था कि वह टैली (एक खास किस्मे का सॉफ्टवेयर) भी जानता है। नौकरी के बाजार में आप जाएं तो ऐसे हजारों लाखों युवा आपको मिल जाएंगे जो कोई न कोई डिग्री या डिप्‍लोमा लेकर घूम रहे हैं।

ज्‍यादातर मामलों में ऐसे बेरोजगार युवाओं को लगता है कि उन्‍होंने जिस विषय की डिग्री या डिप्‍लोमा हासिल किया है उसके हिसाब से उन्‍हें नौकरी मिलनी चाहिए जबकि वास्‍तविकता इसके ठीक उलट है। नियोक्‍ता चाहता है कि उसे जिस काम के लिए व्‍यक्ति की जरूरत है उस काम को करने लायक योग्‍यता और कौशल उस उम्‍मीदवार के पास होना चाहिए।

सबसे बड़ी समस्‍या शिक्षा या डिग्री लेते समय यह तय न कर पाने की है कि आखिर उसे हासिल करके हमें क्‍या मिलेगा। एक भेड़ चाल है जिसमें लोग बहने लगते हैं। यही कारण है कि कभी बाजार में एमबीए करने वालों की बाढ़ आ जाती है तो कभी कंप्‍यूटर का सामान्‍य ज्ञान रखने वालों की। लेकिन बाजार और तकनीक अपनी आवश्‍यकताओं के हिसाब से बहुत तेजी से बदल रहे हैं, कोई यह ध्‍यान नहीं देता कि उस बदलाव को देखते हुए उसे क्‍या करना चाहिए।

हमारे शिक्षा संस्‍थानों में भी आज भी ज्‍यादातर परंपरागत ढंग से ही शिक्षा दी जा रही है। बिना यह सोचे समझे कि उस पढ़ाई को पूरी करने के बाद वह युवा रोजगार के लायक बन भी पाएगा या नहीं। और यही कारण है कि खुद को पढ़े लिखे कहने वाले बेरोजगार युवाओं की संख्‍या हर साल बढ़ती ही जा रही है।

मध्‍यप्रदेश का ही उदाहरण लें। प्रदेश में स्‍कूली शिक्षा पूरी होने के बाद सभी क्षेत्रों में उच्‍च शिक्षा देने वाली संस्‍थाओं की संख्‍या मोटे तौर पर हम 5000 मानें। अब यदि हर साल इन पांच हजार संस्‍थाओं से प्रति संस्‍था औसतन 100 छात्र भी कोई न कोई डिग्री या डिप्‍लोमा लेकर निकलते हों तो एक साल में ही यह संख्‍या पांच लाख होती है।

इस हिसाब से पिछले पंद्रह सालों में प्रदेश में 75 लाख ऐसे युवा तैयार हुए जिन्‍हें रोजगार की जरूरत थी। लेकिन विधानसभा में सरकार द्वारा दिया गया आंकड़ा तो कहता है कि 2004 से 2017 तक प्रदेश में सिर्फ 2 लाख 46 हजार 612 रोजगार ही सृजित हुए। मतलब हर साल औसतन 17 हजार 615 रोजगार ही सृजित हो सके।

अब आप खुद ही अंदाज लगाइए कि कहां तो हर साल पांच लाख युवा ऐसे तैयार हो रहे हैं जिन्‍हें किसी न किसी नौकरी की जरूरत है और कहां इस पांच लाख की तुलना में प्रति वर्ष सिर्फ साढ़े सत्रह हजार रोजगार ही निर्मित हो पा रहे हैं। यानी हम खुद ही बेरोजगारी का ऐसा ज्‍वालामुखी तैयार कर रहे हैं जिसके बारे में हमें पता ही नहीं कि यदि किसी दिन यह फूटा तो क्‍या होगा?

इसके साथ ही एक और बात पर गौर कीजिए, विधानसभा में ही राज्‍य सरकार ने अपने जवाब में यह भी बताया है कि पिछले 14 सालों में जो 2 लाख 46 हजार 612 रोजगार सृजित हुए उनमें से भी 2 लाख 27 हजार 386 निजी क्षेत्र द्वारा सृजित किए गए। यानी सबसे ज्‍यादा रोजगार तो वह क्षेत्र दे रहा है जिसे अपने हिसाब से योग्‍यता और कौशल रखने वाले युवाओं की जरूरत है। जिस सरकारी क्षेत्र के लिए युवा मरे जा रहे हैं उसमें तो सिर्फ 19 हजार 226 रोजगार ही निकले। (आंकड़ों का स्रोत फाइनेंशियल एक्‍सप्रेस में पीटीआई के हवाले से अप्रैल 2018 में छपी खबर)

और यहां हम जिन युवाओं की बात कर रहे हैं उनमें स्‍कूली शिक्षा पूरी करके रोजगार की तलाश में निकलने वाले युवा तो शामिल ही नहीं हैं। आंकड़े कहते हैं कि प्रदेश में हर साल साढ़े छह लाख बच्‍चे 10+2 की परीक्षा पास कर उच्‍च शिक्षा की ओर बढ़ते हैं। अब यदि इन साढ़े छह लाख बच्‍चों में से दस प्रतिशत भी ऐसे मानें जिन्‍हें स्‍कूली शिक्षा पूरी करने के तत्‍काल बाद ही नौकरी की जरूरत महसूस होती होगी तो उनकी संख्‍या भी 65 हजार होती है।

याद रखिये यह 65 हजार की संख्‍या उन बच्‍चों की है जिनके परिवार उच्‍च शिक्षा का बोझ नहीं उठा सकते या जिन्‍हें अपने परिवार का पेट पालने के लिए कोई न कोई रोजगार करना आवश्‍यक है। ऐसे में वे जो भी काम मिलता है उसे पकड़ लेते हैं और कोई जरूरी नहीं होता कि उस काम का उनकी उस शिक्षा से कोई वास्‍ता हो जो उन्‍होंने स्‍कूल में प्राप्‍त की है।

इसका मतलब यह हुआ कि हम शिक्षा पर जो राशि खर्च कर रहे हैं उसका एक बहुत बड़ा हिस्‍सा तो रोजगार सृजन का कारण ही नहीं बन पा रहा। क्‍योंकि इस खर्च का लाभ लेने वाला एक बड़ा वर्ग तो उन कामों में लग रहा है जहां वह शिक्षित हो या अशिक्षित कोई खास फर्क नहीं पड़ता।

प्रधानमंत्री का एक बयान पिछले दिनों काफी चर्चित हुआ था कि युवा पकौड़े तलकर भी रोजगार तो पा ही रहा है ना! सरसरी तौर पर यह बात भले ही ठीक लगती हो लेकिन गहराई से सोचें तो क्‍या यह सवाल नहीं उठता कि जब उसे पकौड़े ही तलना है तो वह डिग्री लेने की जहमत भी क्‍यों उठाए? (जारी)

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