सुनने में ‘जागीरदारी’ शब्द आपत्तिजनक लग सकता है। इससे सामंतवाद की बू भी आ सकती है। लोग इसे अप्रगतिशील भी कह सकते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि कांग्रेस को इस पर विचार करना चाहिए। और कहीं नहीं तो कम से कम मध्यप्रदेश में तो यह प्रयोग या यह फार्मूला अपनाकर देखना चाहिए। हो सकता है जो बातें‘लोकतांत्रिक सिस्टम’ से नहीं बन पा रही हों वे ‘जागीरदारी सिस्टम’ से बन जाएं।
कारण यह है कि मध्यप्रदेश में 14 साल से राजनीतिक वनवास झेल रही कांग्रेस, कई सालों से उठकर खड़ा होने की कोशिश कर रही है, लेकिन उठ नहीं पा रही। हालांकि कई लोग यह भी मानते हैं कि यह कोशिश भी आभासी है, वास्तविकता कुछ और ही है। लेकिन मैं मानकर चलता हूं कि कांग्रेस उठने की कोशिश जरूर कर रही होगी, क्योंकि बैठे-बैठे सरकते हुए ज्यादा दूर तक नहीं जाया जा सकता, उसके लिए तो आपका खड़े होना और चलना जरूरी है। सो कहा जा सकता है कि कांग्रेस खुद को चलायमान रखने की कोशिश कर रही होगी।
हालांकि इस ‘चलायमान स्थिति’ को लेकर मुझे वे पंक्तियां फिर याद आ जाती हैं जो मैंने कुछ दिन पहले एक वाट्सएप संदेश का हवाला देते हुए इसी कॉलम में किसी और संदर्भ में लिखी थीं। वह संदेश कुछ यूं था-
‘’मार्टिन लूथर किंग ने कहा था- अगर तुम उड़ नहीं सकते तो दौड़ो…! अगर तुम दौड़ नहीं सकते तो चलो…!!अगर तुम चल नहीं सकते तो रेंगो…!!! पर आगे बढ़ते रहो…। तभी एक जिज्ञासु ने बड़ी गंभीरता से पूछा- वो तो सब ठीक है पर जाना कहां है?’’
यह ‘जो जाना कहां है’ वाला सवाल है, वर्तमान परिस्थति में यही सबसे अहम है। क्योंकि अभी तक ये ही पता नहीं चल पा रहा कि कांग्रेस यदि चल भी रही है, तो उसे जाना कहां है? आप मध्यप्रदेश कांग्रेस कार्यालय पर किसी बड़े नेता के आगमन के मौक पर जुटी भीड़ में से दो चार लोगों से यह सवाल पूछ लीजिए। कोई कहेगा कमलनाथजी के यहां जाना है, कोई ज्योतिरादित्य सिंधिया के यहां जाने की बात कहेगा, तो कोई दिग्विजयसिंह के यहां, कोई सुरेश पचौरी के घर की तरफ इशारा करेगा तो कोई अरुण यादव या अजयसिंह की तरफ।
और हो सकता है कुछ लोग उस जगह का नाम भी ले लें जहां से उन्हें लाया गया है, मसलन कोई कहे मुझे देपालपुर जाना है, कोई सांवेर तो कोई भाण्डेर, कोई ओबेदुल्लागंज या गैरतगंज… क्योंकि वह जिस नेता के जरिये लाया गया है, उसे सिर्फ उस नेता का ही नाम पता होता है, न उससे आगे कुछ पता होता है न पीछे। उसका काम अपने नेता के लिए, या फिर नेता के द्वारा बताए गए नेता के लिए जिंदाबाद अथवा मुर्दाबाद के नारे भर लगाना और लौट जाना है।
सोमवार को जब मध्यप्रदेश कांग्रेस का प्रभार संभालने वाले राष्ट्रीय महासचिव दीपक बावरिया पहली बार राज्य के दौरे पर आए तो भोपाल में जो दृश्य बना वह किसी भी बदलाव की ओर इंगित नहीं करता…। एक बात मानना पड़ेगी, कि परंपराओं के पालन का दावा भले ही भाजपा करती हो, लेकिन उन्हें पूरी निष्ठा से निभाने का काम सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस ही करती है। सो कांग्रेसियों ने सोमवार को अपने अपने नेताओं और अपने अपने गुटों के समर्थन में नारेबाजी व शक्ति प्रदर्शन की परंपरा भी बदस्तूर निभाई।
राहुल गांधी की पसंद के रूप में पार्टी के पदाधिकारी बने और मोहन प्रकाश जैसे खांटी नेता को हटाकर प्रदेश के प्रभारी बनाए गए बावरिया के लिए भी यह अनुभव नया ही होगा। हालांकि कांग्रेस की परंपरा से आने वाले नेताओं के लिए इस तरह की घटनाएं कतई नई नहीं होतीं, इसलिए हो सकता है ऐसा कुछ होने का थोड़ा बहुत अनुमान उन्हें रहा हो, लेकिन जो दृश्य उन्होंने भोपाल में देखा उससे एक बात तो उनकी समझ में आ गई होगी कि आखिर इतने सालों से कांग्रेस प्रदेश में राजनीतिक रूप से क्यों पिट रही है।
बावरिया के दौरे में सबसे दिलचस्प मुझे उनका एक कमेंट लगा। उनसे जब प्रदेश कांग्रेस में गुटबाजी को लेकर सवाल किया गया तो उनका जवाब था- ‘’जहां पार्टी मजबूत होती है वहीं गुटबाजी मजबूत होती है।‘’ इस‘अवधारणा’ से पार्टी धन्य हो गई होगी। एक पत्रकार के नाते यकायक मेरे मन में विचार आया कि अब जाकर कांग्रेस को, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमारसिंह चौहान की टक्कर का कोई नेता मिला है। अब होगा असली मुकाबला। खूब जमेगी जब आमने सामने होंगे ये दोनों वक्तव्य वीर…!!
खैर… मैंने बात जागीरदारी सिस्टम से शुरू की थी। तो उस पर भी बात कर लें। मेरा मानना है कि जब बावरिया जी ने गुटबाजी को पार्टी की मजबूती का प्रतीक मान ही लिया है तो इन सारे गुटों को आधिकारिक मान्यता क्यों न दे दी जाए। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि किसी भी नेता को बार बार इस‘असुविधाजनक’ सवाल का यह ‘सुविधाजनक’ जवाब नहीं देना पड़ेगा कि ‘पार्टी में कोई गुटबाजी नहीं है।‘
दूसरा फायदा पार्टी के प्रबंधन को लेकर होगा। जैसे आप प्रदेश के अलग अलग क्षत्रपों को उनके प्रभाव क्षेत्र के हिसाब से इलाके या जागीर बांट दीजिए और उनसे कहिए कि उस जागीर में कांग्रेस को जिताने की जिम्मेदारी आपकी। आप कांग्रेस के हिसाब से नहीं बल्कि जागीर के हिसाब से टिकट बांट दीजिए।
ऐसा ही संगठन के स्तर पर भी कर सकते हैं। प्रदेश में एक अध्यक्ष बनाने के बजाय आप सामूहिक नेतृत्व बना दीजिए, जैसे एक अध्यक्ष कमलनाथ के इलाके से, एक दिग्विजयसिंह के, एक सिंधिया के, एक सुरेश पचौरी के,एक कांतिलाल भूरिया के… इससे आपको प्रदेश की कमान किसी एक व्यक्ति को सौंपने का झंझट भी नहीं रहेगा। अभी भी तो ये जागीरें (जिन्हें मीडिया गुट का नाम देता है) चल ही रही हैं, तो ऐसा क्यों न करें कि इस‘अनऑफिशियल सिस्टम’ को ही ‘ऑफिशियल’ बना दिया जाए। सारा टंटा ही खत्म…
shandar
धन्यवाद सर