अजय बोकिल
कर्ज व अन्य कारणों से परेशान किसानों द्वारा होने वाली आत्महत्याओं के बीच यह खबर बेहद चौंकाने और क्षुब्ध करने वाली है कि केंद्र सरकार के अधीन चलने वाले नवोदय विद्यालयों में पिछले पांच सालों में करीब 50 बच्चों ने आत्महत्या कर ली। इनमें भी सर्वाधिक 10-10 बच्चे भोपाल और लखनऊ के हैं।
एक आरटीआई खुलासे में यह चिंताजनक जानकारी सामने आई। इसके मुताबिक वर्ष 2013 से लेकर 2017 के बीच जवाहर नवोदय विदयालयों के कुल 49 बच्चों ने खुदकुशी की। इनमे भी आधे दलित और आदिवासी बालक हैं। आत्महत्या का पैटर्न भी लगभग एक-सा है, खुद को फांसी लगाना। इन घटनाओं का पता भी या तो स्कूल के छात्रों द्वारा लगा या फिर स्टाफ को जानकारी मिली।
इस बारे में अभी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है कि बच्चे ऐसा क्यों कर रहे हैं? कौन सी विवशता है जो उन्हें ऐसे कदम उठाने पर मजबूर कर रही है? इसके पीछे क्या कोई भेदभाव, व्यक्तिगत कुंठा, आर्थिक अभाव अथवा नवोदय विद्यालय के परिवेश से तालमेल न बिठा पाना है? खासकर दलित और आदिवासी बच्चे ऐसा करने कर क्यों विवश हैं? कौन सी हताशा उन्हें जीवन में संघर्ष से विमुख कर रही है?
देश में जवाहर नवोदय विद्यालय की स्थापना पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की देन है। इनकी शुरुआत नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत 1986 में की गई थी। इसके पीछे सोच यह थी कि ग्रामीण क्षेत्रों के प्रतिभाशाली बच्चों को भी न्यूनतम खर्च में बेहतर शिक्षा मिले ताकि वे जीवन में आगे बढ़ सकें। आज देश में 635 जवाहर नवोदय विद्यालय (जेएनवी) हैं। इनका संचालन नवोदय विद्यालय समिति करती है।
मध्य प्रदेश में ही ऐसे 50 स्कूल संचालित हो रहे हैं यानी कि औसतन हर जिले में एक। इन स्कूलों में प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से प्रवेश मिलता है। पाठ्यक्रम सीबीएसई का होता है तथा शिक्षा त्रिभाषा फार्मूले के तहत दी जाती है। केवल तमिलनाडु को छोड़कर, जहां हिंदी विरोध बहुत रहा है, बाकी सभी राज्यों के ग्रामीण अंचलों में नवोदय विद्यालय काम कर रहे हैं।
मोटे तौर पर इन विद्यालयों की गिनती सरकार संचालित बेहतर स्कूलों में होती है। स्कूलों में बच्चों के रहने से लेकर हर सुविधा होती है। नवोदय विद्यालय के पीछे विचार यही रहा है कि इससे देश के पिछड़े, कमजोर और गरीब वर्ग के बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले। इन स्कूलों का परिणाम भी कई महंगे स्कूलों की तुलना में बेहतर ही रहा है। यहां 75 फीसदी सीटें ग्रामीण बच्चों के लिए आरक्षित होती हैं। इन स्कूलों में लगभग 3 लाख बच्चे पढ़ रहे हैं।
इन तमाम खूबियों के बाद भी नवोदय विद्यालयों से बच्चों की आत्महत्या की बढ़ती खबरें विचलित करने वाली हैं। अगर पिछले साल की ही बात करें तो औसतन हर 1 लाख बच्चों पर लगभग 6 बच्चों ने किसी न किसी कारण से अपनी जान दे दी। आखिर बेहतर शिक्षा सुविधाओं और प्रतिभा होने के बाद भी बच्चे ऐसा क्यों कर रहे हैं? यह सवाल अभी अनसुलझा है। दो साल पहले भी जब ऐसी घटनाएं सामने आई थीं तो नवोदय विद्यालय समिति ने एक गाइड लाइन जारी की थी। लेकिन उसका कोई खास असर हुआ हो, ऐसा नहीं लगता।
ज्यादातर आत्महत्याएं परीक्षा के दौरान अथवा छुट्टियां समाप्त होने के बाद स्कूल लौटने के बाद हुई हैं। जो कारण सामने आए हैं, उनमें एकतरफा प्यार, घर की समस्याएं, शारीरिक दंड, टीचरों द्वारा अपमान, पढ़ाई का दबाव, डिप्रेशन और दोस्तों के बीच लड़ाई आदि शामिल हैं। खुदकुशी करने वाले छात्रों में अधिकांश किशोर हैं।
इन आत्महत्याओं का किसानों की आत्महत्याओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। अगर हो भी तो कोई अपवाद स्वरूप हो सकता है। लेकिन दोनों मामलों में समानता यह है कि ऐसी आत्महत्याएं कुंठा और निराशा के कारण हो रही हैं। नवोदय विद्यालय में ज्यादातर ग्रामीण परिवेश से विद्यार्थी आते हैं। हो सकता है कि इन आवासीय विद्यालयों का माहौल उन्हें सूट न करता हो। वे उसमें खुद को फिट न पाते हों। इसी कुंठा में मौत को गले लगा लेते हों।
बहुत से बच्चे मां बाप से दूर बोर्डिंग स्कूल में रहकर पढ़ना नहीं चाहते। पालकों के स्नेह की छाया में मिलने वाली शिक्षा ही उन्हें भाती है। बोर्डिंग स्कूल के अनुशासन का डंडा उन्हें भीतर से आहत और हताश करता है। ऐसा खासकर उन बच्चों के साथ होता है, जो ज्यादा संवेदनशील होते हैं। सभी स्कूलों में ऐसा ही होता है, यह मान लेना गलत होगा, लेकिन हर बच्चे का मानस अलग अलग तरह का होता है।
बहुत से बच्चे परिवार के अपेक्षाकृत सुरक्षित माहौल में ही जीवन का ककहरा सीखना पसंद करते हैं, जबकि कई बच्चे बोर्डिंग स्कूल के माहौल में स्वेच्छा से या जबरिया खुद को ढाल लेते हैं। लेकिन अगर वे ऐसा करने में नाकाम रहते हैं तो आत्महत्या जैसे गलत कदम उठा लेते हैं। इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि खुदकुशी करने वालों में आधी संख्या दलित और आदिवासी बच्चों की है।
इसके पीछे के कारणों की गहराई से पड़ताल जरूरी है। क्या इसकी वजह जातीय भेदभाव, आर्थिक विषमता या समुचित संसाधनों का अभाव है या फिर इन विद्यालयों के स्तर के अनुरूप वो अपने आप को ढाल सकने में नाकाम रहते हैं। इन स्कूलों की स्थापना के पीछे सामाजिक समता भी उद्देश्य रहा है। अगर दलित और आदिवासी बच्चे इस माहौल में कम्फर्टेबल महसूस नहीं कर रहे हैं तो समाजशास्त्रियों और शिक्षाशास्त्रियों को इसकी तह में जाना चाहिए।
आत्महत्या किसी भी कारण से हो, सही नहीं कही जा सकती, क्योंकि वह जीवन से पलायन और संघर्ष से विमुख होने का परिचायक है। लेकिन इन स्कूलों में, जिनका निर्माण ही बच्चों का बेहतर भविष्य बनाने के लिए हुआ है, वहां छात्र छात्राएं ऐसे कदम उठा रहे हैं तो यह पूरे समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय है। यह नवोदय की उस मूल भावना के भी खिलाफ है, जिसका उद्देश्य ही नए जीवन का उदय है, जो बेहतर भविष्य का बीमा अपने साथ लिए हुए हो। यदि उम्मीदों की कलियां फूल बनने के पहले ही मुरझाने लगें तो ऐसी शिक्षा व्यवस्था पर भी प्रश्नचिन्ह तो लगता ही है।
(सुबह सवेरे से साभार)