अजय बोकिल
मध्यप्रदेश में कोरोना काल में भी मोदी सरकार की साल भर की उपलब्धियां जताने वाली भाजपा की धुंआधार ‘वर्चुअल’ रैलियों के बीच एक चिंताजनक ‘एक्चुअल’ खबर आई कि राज्य में मक्का पैदा करने वाले किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से भी कम में अपनी फसल बेचनी पड़ रही है। जिस भाव व्यापारी मक्का खरीद रहे हैं, उसमें तो लागत भी नहीं निकल रही। इससे परेशान प्रदेश के सिवनी जिले के किसानों ने बाकायदा एक ‘ऑनलाइन आंदोलन’ छेड़ दिया है। इसे ‘किसान सत्याग्रह’ नाम दिया गया है।
इन किसानों का कहना है कि चूंकि भारत सरकार विदेशों से मक्का आयात कर रही है, इसलिए स्थानीय बाजार में मक्के के दाम आधे हो गए हैं। यह किसानों को आत्मनिर्भर बनाने की मूल भावना पर ही तगड़ी चोट है। खुद राज्य सरकार ने मक्का की एमएसपी 1850 रुपये प्रति क्विंटल तय कर रखी है, लेकिन खरीदी इससे आधे रेट में हो रही है। राज्य में बम्पर गेहूं खरीदी के आंकड़ों पर इतराने वाली सरकार और प्रशासन मक्का खरीदी मामले में चुप है। ऐसा क्यों? क्या मक्का पैदा करने वाले किसान की हैसियत गेहूं उगाने वाले से कम है? अनाज फसल खरीदी में भी यह दबंग-दलित सा भेदभाव क्यों?
यूं तो मक्का पूरे प्रदेश में ही होती है। लेकिन आदिवासी इलाकों में इसकी पैदावार काफी है, क्योंकि ज्यादातर आदिवासियों का यह मुख्य भोजन भी है। मक्का उत्पादन के मामले में मप्र का नंबर देश में तीसरा बताया जाता है। इसमें भी छिंदवाड़ा और सिवनी जिले अग्रणी माने जाते हैं और दोनों ही आदिवासी बहुल जिले हैं। सिवनी जिले के मक्का उत्पादक किसानों का यह ऑन लाइन आंदोलन करीब एक पखवाड़े से चल रहा है।
11 जून को इन अन्नदाताओं ने विरोध स्वरूप ‘अन्न त्याग आंदोलन’ भी किया। आंदोलन के संचालकों ने किसान सत्याग्रह का फेसबुक पेज भी बनाया है। ट्विटर पर भी इसी नाम से यह मौजूद है। वाट्सएप ग्रुप पर वीडियो भी डाले जा रहे हैं। किसान नेता सतीश राय का दावा है कि इस ऑनलाइन आंदोलन को अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है। हमारे फेसबुक पेज की पहुंच दो लाख लोगों तक हो गई है।
सवाल यह है कि मक्का उत्पादक किसानों की समस्या है क्या? इस बारे में युवा किसान और ग्रेजुएशन कर रही स्वाति सनोदिया का कहना है कि कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के अनुसार देश में प्रति क्विंटल मक्का पैदा करने की लागत 1 हजार 213 रुपए आती है। सरकार ने इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य 1 हजार 850 रुपए तय किया है। लेकिन वास्तव में मक्का बहुत कम भाव में खरीदी जा रही है। स्वाति ने पिता के असमय निधन के बाद खुद खेती का मोर्चा संभाला हुआ है।
उस जैसे कई किसानों ने बेहतर भाव की उम्मीद में देर से फसल बेचने का फैसला किया था। लेकिन लॉकडाउन ने उस पर भी पानी फेर दिया। मक्का के दाम औंधे मुंह क्यों गिरे और वास्तव में लॉकडाउन इसके लिए कितना जिम्मेदार है? इस बारे में किसान सतीश राय का कहना है कि पिछले साल दिसंबर तक मक्के का भाव एमएसपी से ज्यादा मिल रहा था। उसी दौरान केन्द्र सरकार ने यूक्रेन, म्यांमार और रूस से मक्के का आयात शुरू कर दिया, जो भारत आकर 1800 रुपये प्रति क्विंटल पड़ता था।
इसकी गाज देसी मक्के पर गिरी। भाव आधे हो गए। हालांकि भारत सरकार ने पिछले साल करीब डेढ़ लाख टन मक्का आयात की अनुमति दी थी। जो कि देश में उत्पादित 1 करोड़ 60 लाख टन मक्का की तुलना में काफी कम है। वैसे इसमें मप्र सरकार का सीधा दोष नहीं है। मप्र मंडी बोर्ड ने 1 जून को आदेश जारी कर किसानों से एमएसपी पर ही मक्का खरीदने के आदेश दिए थे, लेकिन व्यवहार में वैसा हो नहीं पा रहा है। किसान व्यापारियों पर आश्रित हो गए हैं। मप्र मंडी बोर्ड का कहना है कि कम कीमत पर वही मक्का बिक रही है जो निम्न गुणवत्ता की है।
हम शहरी मानसिकता के लोगों को ‘ऑनलाइन किसान आंदोलन’ कुछ अटपटा और बौद्धिक-सा लग सकता है। क्योंकि हमारे माइंड सेट में किसान आंदोलन की जो तस्वीर बसी है, उसमें ट्रैक्टरों की लंबी लाइनें, साफे बांधे और चार दिन का दाना पानी साथ लिए सड़कों पर धरना देते किसान, झंडे बैनर, अनकहा असमंजस और ग्रामीण संस्कृति शामिल है। अब जब ऑनलाइन आंदोलन की बात हो रही है, तो इसके हिस्सेदार कौन हैं, यह सवाल उठना स्वाभाविक है। साथ में यह भी सच है कि ऐसे किसानों की संख्या भले कम हो, लेकिन अब वो भी मोबाइल और अन्य इलेक्ट्रानिक संसाधनों का इस्तेमाल करने लगे हैं। खासकर युवा किसान, जो टैक्नालॉजी में भी अपडेट हैं।
बहरहाल यह आंदोलन कौन चला रहा है, किसके कहने पर चल रहा है, इन सवालों से भी ज्यादा गंभीर वो समस्या है, जिसका सामना ये किसान कर रहे हैं। और वो ये कि इन किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम कैसे मिले ताकि मक्का जैसी फसल भी गेहूं या सोयाबीन की तरह उनकी आर्थिक जिंदगी का संबल बने?
विडंबना यह है कि एक तरफ मप्र सरकार मक्का को प्रमोट करने के लिए ‘मक्का फेस्टिवल’ आयोजित करती है, लेकिन उसी मक्का की बाजार में कीमत इस कदर कम है कि लागत भी नहीं निकल पा रही। छिंदवाड़ा में दो साल पहले मक्का फेस्टिवल शुरू किया गया था। इसमें मक्के के विभिन्न व्यंजनों को प्रस्तुत किया गया था। लेकिन लगता है कि कमलनाथ के मुख्यमंत्री पद से हटते ही मक्का तो क्या पूरे छिंदवाड़ा की ताब भी चली गई।
दिक्कत यह भी है कि आजकल अनाजों की हैसियत भी उनकी ‘राजनीतिक ताकत’ से तय होने लगी है। बात अगर गेहूं की होगी तो पूरी सरकार और प्रशासन नतमस्तक नजर आएगा, क्योंकि गेहूं के चढ़ते-उतरते भाव समाज के बहुत बड़े वर्ग को नाराज या खुश करते हैं। इस नाराजी का असर चुनावों में भी दिख सकता है। लेकिन मक्का जैसी फसलें ऐसी किस्मत लिए हुए नहीं होती। अव्वल तो वह समाज के उपेक्षित वर्ग का मुख्य खाद्यान्न होती हैं, दूसरे उनके साथ कोई खास धर्मिक-सामाजिक ग्लैमर भी जुड़ा नहीं होता।
शहरी समाज के लिए मक्के का अर्थ या तो सरसों के साग के साथ गरमागरम घी पिलाई मक्के की रोटी है या फिर बाफलों का स्वाद बढ़ाने मक्के का एडिशनल आटा है। अलबत्ता झाबुआ में जरूर (दाल) पानिए के रूप में मक्का गेहूं को चुनौती देती दिखती है। वरना आम लोगों के लिए मक्के का मतलब रिमझिम बारिश में सिंकते भुट्टे खाना है या फिर ‘पॉपकॉर्न’ खाते हुए मॉल में तफरीह करना है।
मक्का क्या होती है, कहां पैदा होती है, किस भाव बिकती है, इससे किसी का ज्यादा लेना-देना नहीं होता। मक्के के आटे की ब्रांडिंग भी ‘चक्की फ्रेश’ के रूप में कहीं की गई हो, ऐसा सुनने में नहीं आया। वैसे भी मक्का कम पानी में होने वाली फसल है। उसके ज्यादा नखरे भी नहीं होते। वह ‘मोटा अनाज’ कहलाकर ही खुश रहती है।
कहने का तात्पर्य कि मक्का या तो गरीबों की फसल मानी गई या फिर सम्पन्नों का ‘मूड फ्रेश’ करने वाली। मक्के की रोटी खाना और उसकी मार्केटिंग कभी रसूखमंदी का प्रतीक नहीं बनी। उसे अनाजों के मेनस्ट्रीम में नहीं गिना गया। ज्यादा से ज्यादा उसे ‘मुर्गी का दाना’ ही माना गया। एक भोजपुरी कहावत है ‘धनिके के पहुना के दाल भात बारा, गरीबे के पहुना के मकई के दारा।’ यानी धनवान के अतिथि को तो दाल भात और गरीब के पाहुने को महज मक्के की रोटी।
अब सवाल यह कि जब राज्य सरकार ने मक्के की पैदावार को ‘पीली क्रांति’ कहकर उसे प्रमोट किया है तो अब वही मक्का सरकार के लिए ‘जरूरी’ फसल क्यों नहीं बन पा रही है। प्रदेश में गेहूं की सवा करोड़ टन से ज्यादा की खरीदी में सरकार की किसानों के प्रति गहरी चिंता का भाव है, लेकिन वही ‘भाव’ मक्का खरीदी में क्योंकर गायब है? हो सकता है कि सरकार मक्का किसानों के इस ऑनलाइन आंदोलन को ‘प्रायोजित’ कहकर खारिज कर दे, लेकिन ऐसा करना ‘असंवेदनशीलता’ की निशानी ही होगी।
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