सोशल साइट्स पर नकेल क्यों नहीं डाल पा रही सरकार?

अजय बोकिल

विचारणीय स्थिति है। मोदी सरकार सोशल मीडिया खासकर ट्विटर जैसी सोशल साइट्स पर लगाम लगाने की कोशिश कर रही है, वहीं  सत्तारूढ़ भाजपा में इस बात को लेकर चिंता है कि ट्विटर पर प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के फालोअर्स क्यों बढ़ रहे हैं। इस बीच सरकार ट्विटर पर भारतीय कानून मानने के लिए दबाव बढ़ा रही है, लेकिन ट्विटर पर उसका कोई खास असर होता नहीं दिख रहा है। चार दिन पहले उसने हमारे देश के सूचना प्रोद्यौगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद का ही ट्विटर अकाउंट घंटे भर के लिए बंद करने दुस्साहस किया। हालांकि बाद में कंपनी ने अपनी सफाई में कहा कि ‘माननीय मंत्री का एकाउंट डीएमसीए की एक नोटिस की वजह से कुछ देर बाधित रहा और उस ट्वीट को रोक लिया गया। इस पर मंत्री रविशंकर प्रसाद का कहना था “ट्विटर की कार्रवाई इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी रूल्स, 2021 का खुला उल्लंघन है।‘

लेकिन इस नाराजी का भी ट्विटर पर खास असर दिखाई नहीं दिया। उल्टे उसने हमारे नए आईटी कानून को ठेंगा दिखाते हुए एक अमेरिका निवासी व्यक्ति की भारत में ‘शिकायत निवारण अधिकारी’ के पद पर तैनाती कर दी। जबकि‍ नियम के मुताबिक उसे किसी भारतनिवासी व्यक्ति को ही इस पद पर नियुक्त करना था। और तो और उसने भारत के दो केन्द्र शासित प्रदेशों लद्दाख एवं जम्मू तथा कश्मीर को अलग देश और लेह को चीन का हिस्सा बता दिया। भारत सरकार द्वारा कड़ी चेतावनी के बाद उसे सुधारा गया।

सवाल यह है कि जब ट्विटर बार-बार भारतीय कानूनों की अवहेलना और भारत सरकार की चेतावनियों को भी हल्के में ले रही है, तब सरकार उस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने से क्यों हिचक रही है? कौन से आंतरिक दबाव या आग्रह हैं, जो सरकार को सख्त कदम उठाने से रोक रहे हैं? क्या खुद सरकार और सत्तारूढ़ भाजपा ट्विटर पर नमूदार होने का मोह रोक नहीं पा रहे हैं? या फिर कोई और कारण है? क्योंकि जब नाइजीरिया जैसा अफ्रीकी देश ट्विटर को चलता कर सकता है तो हमारी सरकार किस बात का इंतजार कर रही है?

इस बात में दो राय नहीं कि सोशल मीडिया साइट्स को भारतीय कानूनों को मानना ही चाहिए, क्योंकि बकौल सरकार यह हमारी ‘डिजीटल संप्रुभता’ का सवाल है। बावजूद इस आशंका के कि सोशल मीडिया पर नकेल से अभिव्यक्ति की आजादी के लोकतांत्रिक अधिकार पर खतरा है। इसी में यह सवाल भी ‍निहित है कि क्या ऐसे कानूनों को मनवाने की इच्छाशक्ति और ताकत हममें है या नहीं? अगर नहीं है तो फिर बेकार की हवाबाजी करने का कोई अर्थ नहीं है। यह सही है कि सोशल मीडिया साइट्स की नसबंदी के लिए भारत सरकार ने जो कानूनी प्रावधान किए हैं, वैसी कानूनी कोशिशें कई देशों में हो रही हैं। क्योंकि दुनिया भर में सोशल मीडिया एक समांतर सत्ता के रूप में खड़ा हो और देशों की सम्प्रभुता के लिए चुनौती बने, इसे कोई भी स्वीकार नहीं करेगा।

ऐसे कानून दुनिया के कई लोकतां‍त्रिक देशों में पहले से लागू हैं। सोशल मीडिया साइट्स की निरंकुशता को खतरा मानते हुए भारत सरकार ने भी नए सूचना प्रौद्योगिकी कानून 26 मई 2021 से लागू किए। इससे सोशल मीडिया कंपनियां थोड़ी परेशानी में जरूर आई हैं। उन्हें डर है कि नए कानून के तहत प्रशासन जब चाहे तब उनकी नकेल कस सकता है, जैसे कि अशांत क्षेत्रों अथवा कानून व्यवस्था बिगड़ने पर इंटरनेट बंद करने के रूप  में होता है। दूसरी तरफ एक वर्ग इसे सोशल मीडिया यूजर्स की निजता पर चोट और ऐसी टेक कंपनियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमों के बढ़ते खतरे के रूप में देखता है।

पिछले दिनों बीबीसी हिंदी में छपी एक रिपोर्ट में बताया गया कि कई देशों में ट्विटर जैसी साइट्स पर पक्षपात के आरोप लगे हैं। जर्मनी, तुर्की, ब्राजील और यहां तक कि लोकतंत्र के सबसे बड़े झंडाबरदार अमेरिका में भी ट्विटर व अन्य सोशल साइट्स पर शिकंजा कसा जा रहा है। क्योंकि कई लोकतांत्रिक देशों में नेताओं ने यह शिकायत की थी कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म जरूरत से ज्यादा ताकतवर होते जा रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो ये प्लेटफार्म जनमत को प्रभावित या संचालित करने की जबर्दस्त ताकत हासिल कर चुके हैं, जिससे राजनीतिक सत्ताएं हिलने लगी हैं।

जर्मनी ने 2017 में नेटवर्क इंन्‍फोर्समेंट लॉ लागू किया। कट्टर लोकतंत्रवादियों ने इसे ‘कुख्यात कानून’ की संज्ञा दी। इस कानून के तहत 20 लाख से अधिक पंजीकृत जर्मन यूज़र्स वाले सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को कंटेंट पोस्ट किए जाने के 24 घंटों के भीतर अवैध सामग्री की समीक्षा करनी होगी और उसे हटाना होगा या 5 करोड़ यूरो तक का जुर्माना भरना होगा। उधर यूरोपीय आयोग भी वर्तमान में डिजिटल सेवा अधिनियम पैकेज के लिए एक बिल तैयार कर रहा है। यहां मुद्दा यह है कि क्या विभिन्न देशों में सोशल मीडिया प्लेटफार्म के खिलाफ लागू कड़े कानून वास्तव में प्रभावी हो पाते हैं या नहीं? या यह केवल बेकार की या अधूरे मन से की जानी वाली कवायद है?

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ‍ट्विटर जैसे प्लेटफार्म्स पर निष्पक्ष न होने का खुला आरोप लगाते हुए एक कार्यकारी आदेश जारी किया था। ट्रंप ने कहा था, “ट्विटर जब संपादन, ब्लैकलिस्ट, शैडो बैन करने की भूमिका निभाता है, तो वो साफ़ तौर पर संपादकीय निर्णय होते हैं। ऐसे में ट्विटर एक निष्पक्ष सार्वजनिक प्लेटफार्म नहीं रह जाता और वे एक दृष्टिकोण के साथ संपादक बन जाते हैं।‘’ ट्विटर ने इस आदेश को ‘प्रतिक्रियावादी और राजनीतिक दृष्टिकोण’ बताते हुए कहा कि अमेरिका में पहले से लागू #Section 230 अमेरिकी नवाचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है, और यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित है। इसे एकतरफा रूप से मिटाने का प्रयास ऑनलाइन स्पीच और इंटरनेट स्वतंत्रता के भविष्य के लिए खतरा है।

बाद में ट्रंप राष्ट्रपति पद का चुनाव हार गए और ट्विटर और फेसबुक ने ट्रंप के अकाउंट बंद कर दिये। दोनों कंपनियों का कुछ खास नहीं‍ बिगड़ा। ब्रिटेन की सरकार ने पिछले साल दिसंबर में मीडिया की रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ़कॉम को सोशल मीडिया का भी रेगुलेटर नियुक्त किया। लेकिन उसने भी सोशल मीडिया या इंटरनेट को सेंसर करने से इंकार कर दिया। ऑफकॉम ने कहा कि अभिव्यक्ति की आज़ादी इंटरनेट की जान है और हमारा लोकतंत्र, हमारा आदर्श और हमारा आधुनिक समाज इसी पर टिका है।

ध्यान रहे कि भारत में नए आईटी कानून के तहत अब नियमों का उल्लंघन करने पर सोशल मीडिया कंपनियों पर आपराधिक प्रकरण कायम किया जा सकेगा। उसे धारा 79 के तहत मिली सुरक्षा नहीं मिलेगी। यूपी में एक मामले में एक प्रकरण दर्ज भी हो चुका है। इसके बाद भी ट्विटर जैसी माइक्रो‍ब्लागिंग साइट्स पर कोई खास असर होता नहीं दिख रहा। भारत में कंपनी के‍ शिकायत निवारण अधिकारी के पद पर गैर भारतीय को नियुक्त कर उसने टकराव का नया मोर्चा खोल दिया है। भारत सरकार इस पर क्या कार्रवाई करती है, यह देखने की बात है। जबकि ट्विटर की कार्रवाई में यह संदेश निहित है कि वह भारतीय कानूनों का पालन करने के बजाए अपने ही नियम कायदों को मानने में ज्यादा भरोसा रखती है।

प्रश्न यह है कि ये सोशल मीडिया कंपनियां इतनी ताकतवर कैसे हो जाती हैं, उन्हें यह शक्ति कहां से मिलती है? इसका उत्तर यही है कि यह ताकत उन्हे जनता यानी अपने यूजरों से मिलती है। यही कारण है कि दुनिया में कई जगह जनआंदोलन खड़ा करने, विरोध प्रदर्शन और हिंसा में इन साइट्स का बड़ा योगदान रहा है। इस बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि स्मार्ट फोन्स की वजह से दुनिया में अब ऐसी पीढ़ी सक्रिय है, जो इंटरनेट के माध्यम से एक दूसरे से जुड़ी है तथा इसी के जरिए अपनी बात कहने में भरोसा करती है। उस पर विश्वास करती है। हालांकि यह भी एक तरह का अंधविश्वास ही है। इसीलिए हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने साफ कहा कि नई टैक्‍नालॉजी का मतलब यह नहीं हो सकता कि दूसरे यह तय करें कि हमें हमारी जिंदगी कैसे जीनी है।‘

जानकारों के मुताबिक ये डिजीटल पॉवर कंपनियां विभिन्न देशों में सत्ताओं को तीन प्रकार से नियंत्रित करती हैं। ये हैं आर्थिक पॉवर, प्रौद्योगिकी पॉवर और राजनीतिक पॉवर। ये तीनो सत्ताएं भी एक दूसरे से सम्बन्धित और परस्पर आश्रित होती हैं। यानी टैक्नोलॉजी की सत्ता के दम पर आर्थिक व राजनीतिक सत्ता पर कब्जा किया जा सकता है, ये कंपनियां यही करने की कोशिश कर रही हैं। यानी जिसके पास जितने ज्यादा यूजर्स जनमत बनाने, बिगाड़ने की उसकी उतनी ज्यादा पॉवर। शायद यही प्रलोभन राजनीतिक दलों और नेताओं को ललचाता है। हमारे देश में वो सोशल मीडिया का विरोध करते हुए भी इसका मोह नहीं छोड़ पाते।

दरअसल वो इसका सिलेक्टिव इस्तेमाल चाहते हैं। यानी उनके पक्ष में या उन्हें मजबूत करने वाली बातें तो सोशल मीडिया में खूब उछलें लेकिन उन पर उंगली उठाने वाली या उन्‍हें बदनाम करने वाली बातों को ‘अनैतिक’ अथवा दुर्भावना से प्रेरित कहकर ब्‍लॉक या डिलीट कर दिया जाए। अर्थात यहां व्यक्ति, दल या विचारधारा के विरोध और देश के विरोध में बहुत महीन फर्क है। ‘इन्फर्मेशन’ और ‘मिसइन्फर्मेशन’ की व्याख्या भी अपनी सुविधा से होना है। जब तक यह चालाकी चलेगी, तब तक सरकार ट्विटर जैसी साइट्स का कुछ खास बिगाड़ पाएगी, ऐसा नहीं लगता। (मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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