पत्रकारिता के मेरे शुरुआती दिनों में मेरे वरिष्ठ अक्सर कुछ अखबारों की विश्वसनीयता की मिसाल देते हुए बताया करते थे कि उन अखबारों में छपी खबरों को लोग पत्थर की लकीर माना करते थे। उनकी विश्वसनीयता सरकारी गजट से भी ज्यादा हुआ करती थी। ऐसे कई उदाहरण मुझे बताए गए कि फलां अखबार में गलती से छप गया कि आज अवकाश है, तो उस दिन लोग दफ्तर गए ही नहीं। कहीं गलती से भी छप गया कि आज शहर बंद रहेगा, तो लोगों ने दुकानें ही नहीं खोली। एक बार खबर छप गई तो लोग मान लिया करते थे कि वह सही ही होगी। कोई नहीं पूछता था कि आज अवकाश है यह बात किसने कही है? या आज बाजार बंद का नारा किसने दिया है? बस चार लाइनें काफी हुआ करती थीं भरोसा करने के लिए।
फिर धीरे धीरे जमाना बदला। अखबार अपनी खबरों की पुष्टि या लोगों को भरोसा दिलाने के लिए सरकारी सूचना/अधिसूचना का हवाला देने लगे। बताने लगे कि यह कहने वाला कौन है और फलां बात किस आधार पर कही गई है। पर तब भी लोग फोन पर या प्रत्यक्ष एक दूसरे से पूछ लिया करते थे कि खबर सही तो है ना… लेकिन तब तक भी जमाना इतना नहीं बिगड़ा था। अफसरों या नेताओं या संगठनों की ओर से कही जाने वाली बात ज्यादातर सही हुआ करती थी।
पर आज जमाना बिलकुल बदल गया है। बदल क्या गया है, बिलकुल उलटा हो गया है। आज कोई सच कहता है तो लोग उसे मानने को तैयार नहीं होते, लेकिन यदि कोई झूठ बताता है तो यह कहने वाले जरूर मिल जाते हैं कि बात उठी है तो कुछ न कुछ तो होगा ही। जैसे ईवीएम का ही मामला ले लीजिए। सरकार से लेकर चुनाव आयोग तक सब कह रहे हैं कि कोई गड़बड़ नहीं है लेकिन शंकाए लगातार उठ रही हैं।
अविश्वास का यह प्रसंग इसलिए आया क्योंकि गुरुवार को जारी देश के स्वच्छ शहरों की सर्वेक्षण रिपोर्ट पर हमारे आसपास के ही कई लोगों ने शंका उठाई है। इस सर्वे ने मध्यप्रदेश का नाम पूरे देश में चमका दिया है। देश के सबसे साफ सुथरे पहले और दूसरे नंबर के शहर के रूप में हमारे इंदौर और भोपाल ने स्थान पाया है। टॉप 100 स्वच्छ शहरों की सूची में 21 शहर मध्यप्रदेश के हैं। लेकिन भाई लोग एक दूसरे से पूछ रहे हैं क्या यह सर्वे सही है?
मध्यप्रदेश की इस उपलब्धि को लोग गर्व के भाव से नहीं बल्कि विस्मय भाव से देख रहे हैं। उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा कि ऐसा हो सकता है। कई लोग हैं जिनके मन में उपलब्धि या सम्मान का भाव आने के बजाय लगातार यह सवाल उमड़ घुमड़ रहा है कि ऐसा कैसे हो सकता है? फिर अपने सवाल का खुद ही उत्तर देते हुए वे कह रहे हैं, जरूर कोई गड़बड़ है या कि सारा सर्वे ही फर्जी है… ऐसा शायद इसलिए भी है कि लोग अपने आसपास जो देख रहे हैं, बताई जाने वाली सूचनाएं उससे मेल नहीं खा रहीं।
मुझे याद है ऐसी ही बात कृषि क्षेत्र में मध्यप्रदेश की उल्लेखनीय उपलब्धि के बाद भी कही गई थी। जब हमने अपनी कृषि विकास दर लगातार दो अंकों में रहने का दावा किया और जब हमें लगातार पांच बार कृषि कर्मण अवार्ड मिला तब भी यही कहा गया कि यह सब कागज पर किया गया खेल है। तर्क आया कि जिस प्रदेश में खेती किसानी चौपट होने पर किसान लगातार आत्महत्याएं कर रहे हों, वह कृषि उत्पादन में अव्वल आ जाए यह कैसे संभव है?
शायद भरोसे के इसी भंवर का नतीजा रहा होगा कि राज्य के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी मनोज श्रीवास्तव ने शुक्रवार को अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा- ‘’मध्य प्रदेश में स्वच्छता अभियान की सफलता और उसमें इंदौर व भोपाल का देश में प्रथम और द्वितीय आना एक ऐसी उपलब्धि है जो प्रत्यक्ष है।… यह एक डिफाइनिंग सा परिवर्तन है। लेकिन कुछ लोग इसका भी मजाक बनाने और अविश्वास करने में पीछे नहीं हैं। ये वे लोग हैं जो अपनी उपलब्धि पर हाहाकार करते हैं।…यह ग्रंथि कौन सी है जो नागरिकों, संस्थाओं, अधिकारियों, शासन की थोड़ी सी भी सराहना करना तो छोड़ें, बल्कि अपनी ही आपेक्षिक सफलता पर थोड़ी देर भी प्रसन्न होने में अपराध-बोध सा अनुभव करती है? सफलता के क्षण जो आकलन प्रणाली फर्जी लगती है, वही आकलन प्रणाली विफलता के क्षण विश्वसनीय क्यों हो जाती है?’’
मनोज श्रीवास्तव का यह सवाल जायज है भी है और समुचित उत्तर की भी मांग करता है। लेकिन संभवत: यह फीडबैक सरकार और प्रशासन के उच्च स्तर तक भी है कि लोगों में सरकार के कामकाज और उपलब्धियों के प्रति पूर्ण विश्वास का भाव नहीं है। निश्चित रूप से प्रदेश ने खेती किसानी में भी तरक्की की है और हमने अपने शहरों को साफ सुथरा भी बनाया होगा। लेकिन सवाल यह है कि वह वातावरण निर्मित क्यों नहीं हो पाता जिसमें लोग भरोसा करें कि जो कहा जा रहा है वह सच है।
जैसे न्याय के बारे में कहा जाता है कि न्याय का होना ही पर्याप्त नहीं है, न्याय हुआ है यह महसूस भी होना चाहिए। उसी तरह किसी उपलब्धि का होना ही पर्याप्त नहीं है, लोगों को वैसा अनुभव भी होना चाहिए। हां यह बात जरूर है कि ऐसे मामलों में अविश्वास का बड़ा कारण शायद लोगों का यह मानस भी है कि वे हर बात में‘परम पूर्णता’ (absolute perfection) की अपेक्षा करने लगते हैं, जो शायद संभव नहीं है।