हमारे यहां माना जाता है कि स्थान का बड़ा महत्व होता है। गांधी पर यह राष्ट्रीय विमर्श जिस स्थान पर हो रहा था वह सेवाग्राम के नई तालीम परिसर का‘शांति भवन’ था। इस ‘शांति भवन’ की कहानी भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इतिहास में उसका अपना एक मुकाम है।
दरअसल शांति भवन आश्रम परिसर मूल रूप से बुनियादी शिक्षा प्रशिक्षण केंद्र के रूप में बनाया गया था और 1942 में खुद गांधीजी ने इसका उद्घाटन किया था। 1946 से 1955 के बीच यहां बड़े पैमाने पर बुनियादी शिक्षा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किए गए।
जनवरी 1948 में गांधी जी के निधन के बाद मार्च 1948 में यहां हुए एक कार्यकर्ता सम्मेलन के आधार पर ही बाद में सर्वोदय समाज की स्थापना हुई। 24 से 29 दिसंबर 1949 को यहां विश्व शांति सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें पूरी दुनिया से आए 150 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।
विमर्श के दौरान ही बताया गया कि गांधीजी के निधन के बाद इसी भवन में कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं की भी एक बैठक हुई थी जिसमें गांधी के बाद क्या और कैसे, जैसे सवालों पर मंथन किया गया गया था। यानी हम लोग उस जगह गांधी पर बात कर रहे थे जहां गांधी का कर्म और आत्मा दोनों बसते हैं।
स्थान की बात से मुझे याद आया कि अरुण त्रिपाठी ने विषय प्रवर्तन करते हुए एक और बहुत मार्के की बात कही थी। उन्होंने बताया कि यह वह इलाका है जहां भारत की दशा और दिशा को प्रभावित करने वाली तीन धाराएं एक साथ आकर मिलती हैं। जैसे कन्याकुमारी में तीन महासागर मिलते हैं।
जो लोग इशारा न समझ सकें हों उनके लिए इस संदर्भ की तफसील मैं बता दूं। दरअसल गांधी का सेवाग्राम जिस वर्धा जिले में बसा है, उससे नागपुर की दूरी महज 75 किमी है। नागपुर बाबा साहब आंबेडकर की कर्मभूमि रही है और वहीं राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का मुख्यालय भी है। इस लिहाज से इस 75 किमी के रेडियस में भारतीय राजनीति और समाज को बदलने वाली तीन प्रमुख ताकतें मौजूद हैं।
विमर्श के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता बाम्बे हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और पद्मभूषण से सम्मानित जस्टिस चंद्रशेखर धर्माधिकारी को करनी थी। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भाग ले चुके 91 वें वर्ष के धर्माधिकारी जी अस्वस्थ होने के कारण नहीं आ सके। सत्र में उनका लिखित भाषण पढ़कर सुनाया गया।
धर्माधिकारीजी ने अंग्रेजी का एक मुहावरा इस्तेमाल किया। उन्होंने पूछा- Who will watch the Watchman? यानी चौकीदार की चौकीदारी कौन करेगा? ये‘चौकीदार’ शब्द इन दिनों भारतीय राजनीति का बहुत महत्वपूर्ण शब्द है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने को जनता का चौकीदार कहा है।
तो जब सवाल उठाया गया कि चौकीदार की चौकीदारी कौन करेगा तो गांधी विमर्श में आए प्रतिनिधियों में हलचल होना स्वाभाविक था। जवाब खुद धर्माधिकारीजी ने ही दिया। कहा, मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। अपेक्षा भी यही की गई थी कि आजादी के बाद मीडिया देश का अधार स्तंभ बनेगा।
उनका मत था- ‘’आज जो हालात हैं उनके चलते मीडिया पर चौकीदार की चौकीदारी करने की जिम्मेदारी आ गई है। सिर्फ चौकीदार की नियुक्ति कर देने से कार्य की सिद्धि नहीं होती। वह सोया है कि जाग रहा है, यह भी देखने की जरूरत है। और यह काम मीडिया का है।‘’
और जब मीडिया पर बात आई तो अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा कैसे अछूता रह सकता था। धर्माधिकारी ने उस पर भी बात साफ कर दी- ‘’यह सच है कि भारतीय संविधान ने विचार तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है। यह भारतीय नागरिक का मूल अधिकार भी है। लेकिन हर अधिकार का जन्म कर्तव्य की कोख से होता है।‘’
वर्तमान हालात के संदर्भ में उनका कहना था- ‘’आज तो ऐसा लगता है कि वह मूल अधिकार भी खतरे में है। वरना नरेन्द्र दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या नहीं होती। कहा जाता है कि खून या हत्या सेन्सरशिप का आखिरी ‘शस्त्र’ है। जिसके पीछे इन्सान के साथ, उसके विचार भी समाप्त हो जाते हैं…।‘’
‘’इन परिस्थितियों में मीडिया का क्या कर्तव्य है, इस पर संवाद होना लाजमी है। कवि भवानी प्रसाद मिश्र कहते हैं कि, “शब्दकार को अगर जरूरत पड़े तो अपने शब्द पर मरना चाहिए’’ यह आज वक्त की पुकार है। शब्द की शक्ति पर विश्वास यह इस भावना की शुरुआत है।‘’
‘’आज मनीपॉवर, मसलपॉवर, माफिया पॉवर ही ‘पॉवरफुल हो रहे हैं। भीड़ की दहशत बढ़ रही है। सत्ताधारी तथा सत्ताकांक्षी और पूंजीपति चाहते हैं कि मीडिया पर उनका प्रभाव या कब्जा रहे।‘’ मीडिया में दुनिया को ही नहीं, दुनिया के भगवान को भी बदलने की ताकत है, उसे अपनी यह ताकत जगानी होगी।
‘’गांधीजी ने भी पत्रकारिता का सहारा लिया था। इंडियन ओपिनियन, हरिजन, सर्वोदय जैसे नियतकालिक उन्होंने प्रकाशित किये थे। जिसमें एक भी इश्तहार नहीं होता था। उनमें ‘डिस्क्लेमर’ छापने की जरूरत भी नहीं पड़ती थी। क्योंकि जैसा लिखा जाता था, उससे भी लिखने वाला अधिक बलवत्तर हुआ करता था।‘’
‘’गांधी ने जब देखा कि अखबार ठीक नहीं चल रहे है, तब उन्होंने ये पत्रिकाएं बंद कर दीं, लेकिन अपने सतीत्व को कलुषित नहीं होने दिया। क्योंकि पत्रकारिता उनके लिए सतीत्व के समान थी। उससे उन्होंने समझौता नहीं किया। निर्भय, निष्पक्ष और निर्बैर पत्रकारिता गांधीजी की देन थी।‘’
‘’तटस्थता से समझौता करना तो ‘महापाप’ है। लेकिन तटस्थता का मतलब संवेदन शून्यता नहीं है। पत्थर तटस्थ नहीं होता, वह तो संवेदना शून्य होता है। आज सभी क्षेत्र में असहिष्णुता बढ़ रही है। भिन्न मत का स्वागत तो लोकतंत्र की महिमा का द्योतक है। यह स्वतंत्रता आज खतरे में है, यही असली शोकांतिका है। निर्भयता मीडिया का अधिष्ठान है। यह हमें नहीं भूलना चाहिए।‘’ (जारी)