वित्त मंत्री अरुण जेटली आज नरेंद्र मोदी सरकार का चौथा बजट पेश करेंगे। वैसे तो देश की सेहत के लिए हर बजट का अपना महत्व होता है, लेकिन इस बार के बजट पर निगाहें इसलिए कुछ ज्यादा लगी हुई हैं क्योंकि नोटबंदी की ऐतिहासिक घोषणा और नोटंबदी के बाद पैदा हुए हालात की छाया इस बजट पर साफ दिखाई देगी।
सरकार नोटबंदी से पैदा हुई परिस्थितियों से कैसे निपटेगी और बजट में वह लोगों को किस-किस मद में क्या-क्या राहत देगी इस पर बहुत कुछ कहा जा चुका है। हमेशा की तरह मध्यम वर्ग एक बार फिर बजट पर यह सोचते हुए टकटकी लगाए है कि शायद सरकार इस दफा उसे आयकर में मोटी राहत देने की घोषणा कर दे। दूसरी ओर कारोबारी जगत नए करों की आशंका से सहमा हुआ है।
आमतौर पर बजट नए कर और कर में छूट जैसे सरलीकृत विश्लेषणों या फिर रुपया कहां से आएगा और कहां जाएगा जैसे गणितीय समीकरणों में उलझ कर रह जाता है। मेरा मानना है कि बजट को आर्थिक दस्तावेज के बजाय सामाजिक दस्तावेज बनाने का प्रयत्न बहुत ही कम हुआ है। एक समय Government with human face का नारा चला था और उसी तर्ज पर कुछ बजटों के बारे में कहा गया कि Budget with human face लेकिन असलियत में बजट आंकड़ों के इर्दगिर्द ही खेला जाता रहा है।
सरकारें हर साल कुछ न कुछ नई घोषणाएं जरूर करती हैं और दावा किया जाता है कि ये जनकल्याण या लोकहित के लिए उठाये गये कदम हैं। लेकिन तमाम दावों के बावजूद बजट आंकड़ों के जंगल से निकलकर गरीब की झोपड़ी तक नहीं पहुंच पाया। जरूरत इस बात की है कि बजट की घोषणाएं उस आदमी तक वास्तविक रूप में पहुंचें जिसके नाम पर बजट का श्रेय लिया जाता है।
बजट की घोषणाएं और बजट में किये जाने वाले प्रावधान किस तरह छलावा साबित होते हैं, इसके लिए यहां सिर्फ दो ही उदाहरण पर्याप्त हैं। आपको याद दिलाऊं कि दिल्ली में 2012 में हुए बर्बरतम ‘निर्भया कांड’ के बाद सारा देश उबल पड़ा था। तत्कालीन यूपीए-2 सरकार में वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने उस घटना के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए महिलाओं की सुरक्षा के लिए 1000 करोड़ रुपये की लागत से एक ‘निर्भया फंड’ बनाने का ऐलान किया था।
अब जरा हालत देखिये कि करीब छह महीने पहले मई 2016 में सुप्रीम कोर्ट के सामने यह तथ्य उजागर हुआ कि इस फंड के करीब 2000 करोड़ रुपये बिना उपयोग के यूं ही पड़े हुए हैं। महिला सुरक्षा और दुष्कर्म जैसे अपराधों की शिकार महिलाओं की मदद करने के उद्देश्य से बनाए गए इस फंड को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि यदि पैसे का उपयोग ही नहीं करना है तो ऐसे जबानी जमाखर्च का क्या मतलब है?
दरअसल इस फंड के उपयोग के लिए राज्य सरकारों को अपने यहां पीडि़त सहायता योजना बनानी थी, लेकिन कई राज्यों ने ये योजनाएं तक नहीं बनाईं। महिला सुरक्षा से जुड़े मुद्दे के एक मामले पर सुनवाई में कोर्ट की मदद कर रहीं वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने ताज्जुब करते हुए बताया था कि दुष्कर्म मामलों में पीडि़ताओं को मदद देने के प्रावधानों में भी एकरूपता नहीं है। किसी राज्य में ऐसी पीडि़ता को दस लाख रुपये देने का प्रावधान है तो किसी राज्य में सिर्फ 50 हजार रुपये देने का। पीडि़त किसको माना जाए इस पर भी कोई एकराय नहीं दिखाई दी और कई राज्यों में तो सिर्फ दुष्कर्म की एफआईआर दर्ज होने पर ही मुआवजा दे दिया गया।
ऐसा ही मामला कुपोषण का है। देश के कई राज्य आज भी कुपोषण की समस्या से जूझ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कुपोषण दूर करने के लिए फंड नहीं आता। हजारों करोड़ रुपये का फंड पूरे देश में कुपोषण दूर करने के नाम पर दिया जाता है, लेकिन हालत यह है कि कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या में उस मात्रा में कमी हो ही नहीं रही। यानी स्पष्ट है कि कुपोषित बच्चों के नाम पर दिया जाने वाला पैसा कुछ हृष्ट पुष्ट लोगों के पेट में जा रहा है।
जिस तरह दुष्कर्म की शिकार को मुआवजा देने के मामले में एकरूपता नहीं है उसी तरह कुपोषण से निपटने के मामले में भी ऐसी कोई सुस्पष्ट नीति नहीं बनी कि ऐसे बच्चों को आखिर क्या दिया जाए। हर सरकार अपने हिसाब से कुपोषण दूर करने वाली चीजें तय करती रहती है। कभी पंजीरी से कुपोषण दूर करने का फार्मूला आता है तो कभी सोया बिस्किट या सोयाबीन दूध से, कभी मुरमुरे के लड्डू की लहर आती है तो कभी सुरजने की फली में जादू नजर आने लगता है।
ये उदाहरण बताते हैं कि हमारे बजट बरसों से सिर्फ और सिर्फ आंकड़ों का एक सालाना कर्मकांड बने हुए हैं। उन्हें सही मायनों में जमीन पर उतारने वाला मैकेनिज्म आज भी ढीला ढाला, बेतरतीब या अस्तित्वहीन है।
पैसा न होने का रोना तो अकसर रोया जाता है, जरूरत इस बात की है कि जो पैसा आया है वह तो सही ढंग से खर्च हो, अगर ऐसा नहीं हो रहा तो इस पर कौन रोएगा…?
gise rona chahiye vah to rone se raha …
हां ये तो है