क्‍या इस ‘पागलपन’ का इलाज नहीं ढूंढा जाना चाहिए?

राष्‍ट्रीय अपराध अभिलेख ब्‍यूरो (एनसीआरबी) की वर्ष 2015 की रिपोर्ट पर बात करते हुए हमने कल मुद्दा उठाया था कि सरकारी आंकड़े किस तरह हमारी ग्रामीण अर्थव्‍यवस्‍था, खासतौर से हमारी खेती-किसानी से जुड़े लोगों की सामाजिक आर्थिक स्थितियों के साथ साथ उनके जीवन से भी खिलवाड़ कर रहे हैं। किसान अपनी आजीविका, जो निर्विवाद रूप से खेती और उसके आसपास ही सिमटी हुई है, के संकट में आ जाने के कारण, परिस्थितियों से हार मानकर अपनी जान को दांव पर लगा देता है। लेकिन हम उसमें तरह तरह के कारण खोज कर यह बताने का जतन करते रहते हैं कि उसने जान घरेलू झगड़े के कारण दी है, वैवाहिक संबंध खराब होने के कारण दी है, प्रेम प्रसंग या मंगेतर से धोखा खाने के कारण दी है, मानसिक स्थिति ठीक न होने के कारण दी है,बीमारी के कारण दी है, नशे व शराब की लत के कारण दी है… यहां तक कि वह दहेज और सामाजिक प्रतिष्‍ठा खो जाने जैसे कारणों (?) से भी जान दे रहा है लेकिन फसल या खेती से जुड़ी अपनी बाकी समस्‍याओं के कारण वह कभी जान नहीं देता। आश्‍चर्य है…!!

सचमुच आश्‍चर्य की ही बात है कि जो किसान अपनी आंखों के सामने अपने खेत को मुरझाता हुआ देख कर जान नहीं देता, वह सामाजिक प्रतिष्‍ठा खो जाने व मंगेतर से धोखा खा जाने के कारण धड़ल्‍ले से जान दे रहा है। वह कर्ज में डूबे अपने परिवार का पेट पालने की चिंता में जान नहीं देता, लेकिन घरेलू झगड़े के कारण जरूर जान दे देता है। दरअसल हमने कभी उन मूल कारणों की ओर ध्‍यान देने की कोशिश ही नहीं की जिनके कारण किसान आत्‍महत्‍या जैसा कदम उठाने को मजबूर होता है।

हमारी अपराध व्‍यवस्‍था के आंकड़े जुटाने वाली एजेंसियों से लेकर सरकार में बैठे नेताओं और अफसरों के लिए चूंकि किसी को पागल, बीमार, नशेड़ी आदि बताना आसान है, इसलिए वे आंकड़ों के डिपार्टमेंटल स्‍टोर के इन्‍हीं खांचों में किसान की मौतों को ठूंस ठूंस कर भर देते हैं, कुछ इस खांचे में कुछ उस खांचे में… शायद इसीलिए हमारे केंद्रीय मंत्री संसद में कहते हैं कि किसान प्रेम प्रसंगों के कारण जान दे रहे हैं, हमारे प्रदेश के मंत्री विधानसभा में कहते हैं कि वे भूत प्रेत की बाधा के कारण जान दे रहे हैं और हमारा आंकड़ा विभाग बताता है कि वे मनोरोगी या नशेड़ी होने के कारण मर रहे हैं।

भारतीय किसान संघ की राष्‍ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्‍य सुरेश गूजर कहते हैं, यह सब किसानों के खिलाफ रचे जा रहे षड़यंत्र का ही हिस्‍सा है। किसान की मौत को इन भरमाने वाले कारणों के साथ दिखाकर खेती से उसका रिश्‍ता की खत्‍म किया जा रहा है। इस तरह सरकारें किसानों की मदद से भी अपने आपको बरी कर लेना चाहती हैं। इलाकों को सूखाग्रस्‍त घोषित करने या खेती पर पड़ी और किसी प्राकृतिक आपदा की मार के बाद किसानों की मदद करने के बजाय,सरकारी मशीनरी महीनों इसी बात का ‘पता लगाने’ में उलझी रहती है कि सूखा, ओला या पाला पड़ा भी या नहीं। इधर किसान और कोई चारा न होने के कारण जान दे देता है और उधर राहत और मुआवजे का उसका अंतिम हक छीनने की कोशिशें यह कहते हुए तेज कर दी जाती हैं कि उसकी मौत तो नशे की लत के कारण हुई या फिर वह पागल था, खुद ही फांसी पर झूल गया।

सरकारी मशीनरी का रवैया बताता है कि वह किसी भी कारण को बस किसानों की आत्‍महत्‍या पर थोप देने तक से ही वास्‍ता रखती है। गहराई से उसका सामाजिक और आर्थिक विश्‍लेषण किया ही नहीं जाता। यदि किसान नशे की लत में डूबा है, यदि पारिवारिक कलह से परेशान है, यदि वह किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्‍त है, तो इसका मूल कारण यह है कि उसकी रोजी रोटी ठीक से नहीं चल रही। यही चिंता उसे नशे की तरफ ले जाती है और पारिवारिक कलह का कारण भी बनती है। जिन लोगों के भरण पोषण की जिम्‍मेदारी उस पर है, अपने सामने ही उन्‍हें असहाय देखकर उसका मानसिक संतुलन बिगड़ेगा नहीं तो क्‍या वह खुशी से नाचेगा?

मध्‍यप्रदेश विधानसभा के शीतकालीन सत्र में कांग्रेस के विधायक रामनिवास रावत के एक प्रश्‍न के जवाब में सरकार ने बताया था कि एक जुलाई से 15 नवंबर 2016 यानी सिर्फ साढ़े चार माह में प्रदेश में 252 किसानों और 269 खेतिहर मजदूरों ने आत्‍महत्‍या की। यानी सिर्फ 138 दिनों में 521 मौतें। यदि खेती किसानी से जुड़े लगभग चार लोग रोज जान दे रहे हों और भले ही वे फसल बरबाद होने या कर्ज में डूबे होने के कारण जान नहीं दे रहे हों, और मान भी लें कि वे पागल होकर या नशे में आकर ही अपनी जान दे रहे हैं तो भी… तो भी क्‍या यह सोचने, विचारने और चिंता करने का विषय नहीं है? आखिर हमारे किसान और खेतिहर मजदूर ही इस व्‍यवस्‍था में इतने ज्‍यादा पागल क्‍यों हो रहे हैं… इस पागलपन का भी कोई तो इलाज होगा, क्‍या उसे नहीं ढूंढा जाना चाहिए?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here