गिरीश उपाध्याय
मध्यप्रदेश विधानसभा का 12 दिवसीय मानसून सत्र शुक्रवार को भारी हंगामे के बीच समाप्त हो गया। ऐसा लगा कि विधानसभा सत्रों का अब क्या औचित्य रह गया है और इसका प्रदेश की जनता को कितना फायदा मिल पाता है, इस पर एक लंबी बहस होनी चाहिए। परंपरागत रूप से प्रश्नकाल, शून्य काल, विधायी कार्य आदि के खांचों में बंटी सत्र की बैठकों के स्वरूप को कैसे बदला जाए और इन्हें कैसे अधिक सार्थक बनाया जाए, इस पर विचार होना समय की मांग है। कब तक जनहित का बड़ा से बड़ा विषय ‘इससे जनता में आक्रोश या रोष है’ के वाक्य से समाप्त होता रहेगा और कब तक सरकारी पक्ष अपने जवाब में ‘’जनता में कोई रोष या आक्रोश नहीं है’’ का रटा रटाया वाक्य कह कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मानता रहेगा।
मेरा मानना है कि विधायकों का ओरिएंटेशन इस तरह किया जाना चाहिए कि, उनके द्वारा उठाए जाने वाले सवालों/मुद्दों और उन पर सरकार की ओर से आने वाले जवाबों से, न सिर्फ विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन की असलियत सामने आए, बल्कि जनधन से चलने वाली इन योजनाओं को लेकर प्रशासनिक तंत्र को और अधिक जवाबदेह बनाया जा सके। यह काम अभी नहीं हो रहा है और सारे सवाल जवाब कागजी खानापूरी या जबानी कर्मकांड बनकर रह गए हैं।
अभी तो जो हो रहा है उसमें विधायक एक बंधे बंधाए खांचे में सवाल पूछते हैं और उसी बंधे बंधाए खांचे में मंत्री जवाब दे देते हैं। वही क, ख, ग, घ के हिस्सों में पूछा गया सवाल और वही ‘‘ख से घ तक प्रश्न उपस्थित नहीं होता’’ टाइप के जवाब। और ये जवाब भी ऐसे होते हैं जिन्हें कई बार तो डी-कोड करना पड़ता है कि आखिर मंत्रीजी कहना क्या चाहते हैं। नौकरशाही ज्यादातर जवाब इस तरह तैयार करवाती है मानो वे या तो प्रश्नकर्ता को और अधिक उलझा देने के लिए रचे गए हों या फिर अफसर ने बाल में भी सुरंग बनाकर खुद के बच निकलने का रास्ता निकाला हो। इसके अलावा ‘जानकारी एकत्र की जा रही है’ या ‘प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता’ जैसे शाश्वत कवच तो उपलब्ध हैं ही।
विधानसभाओं की कार्यवाही कवर करते हुए मुझे तीन दशक से भी अधिक समय हो गया है और एक बड़ा अंतर मैं यह महसूस कर रहा हूं कि प्रश्नकाल के दौरान ज्यादातर विधायक अब यह कहते पाए जाते हैं कि ‘मंत्री ने गलत जवाब दिया है।‘ या फिर ‘अफसर मंत्री से भ्रामक जवाब दिलवाकर, सदन को गुमराह कर रहे हैं।‘
अफसर कितनी चालाकी से मामले को घुमाने का माद्दा रखते हैं इसके लिए एक किस्सा आपको बताना चाहूंगा। मेरे एक परिचित अधिकारी ने जो बहुत ही कमाऊ समझे जाने वाले विभाग में कार्यरत रहे, बताया कि एक बार प्रश्न यह आया कि ‘’उनके विभाग में कितने बाबू, पांच साल से अधिक समय से एक ही डेस्क संभाल रहे हैं, इस दौरान उनके खिलाफ कितनी शिकायतें आई हैं और शिकायतों के बावजूद उन्हें वहां से क्यों नहीं हटाया जा रहा।‘’ प्रश्नकर्ता ने जिस भावना से प्रश्न पूछा था, पूरा विभाग समझ गया कि इसका सही उत्तर देने का अर्थ होगा अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी दे मारना। लेकिन जवाब देना भी जरूरी था। ऐसे में एक सयाना बाबू काम आया और उसने जो जवाब दिलवाया उसमें सांप और लाठी दोनों साबुत बच गए। जानना चाहते हैं वो जवाब क्या था? विभाग की ओर से कहा गया- ‘’हमारे विभाग में ‘बाबू’ नाम का कोई सरकारी पद नहीं है।‘’ और यह बात पूरे सोलह आने सच थी। हम आम बोलचाल की भाषा में सरकारी दफ्तर में काम करने वाले जिस कर्मचारी को ‘बाबू’ कह देते हैं उस नाम का कोई पद वास्तव में नहीं है। सरकारी रिकार्ड में या तो लिपिक का पद है या फिर कार्यालय सहायक आदि का। यानी नौकरशाही के तंत्र ने सवाल की भैंस को इतनी खूबसूरती से पानी में उतारा कि उसके साथ प्रश्नकर्ता भी डूब गया।
ऐसा ही एक और किस्सा याद आ रहा है। एक बार एक मंत्री का बेटा बहुत संगीन मामले में फंस गया। उस समय विधानसभा भी चल रही थी। पत्रकारों को लगा कि अब तो बड़ी मसालेदार खबर हाथ लगेगी। मामले पर ध्यानाकर्षण के दौरान विपक्ष ने आरोपी का नाम लेते हुए सवाल दागा कि बताइए फलां तारीख को फलां जगह ऐसी कोई घटना हुई है या नहीं और उस समय वहां फलां लोग मौजूद थे या नहीं। सवाल बहुत सटीक था। पूछने वाले ने अपने हिसाब से मंत्री और सरकार के बचने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी थी। अखबारों में घटना को लेकर छपी खबरें गवाही दे रही थीं सो अलग। लेकिन जो पात-पात न चले वह अफसरशाही ही क्या। हम लोग विधानसभा में मंत्री का यह जवाब सुनकर दंग रह गए कि प्रश्न में पूछे गए दिनांक को संबंधित स्थान पर ऐसी कोई घटना हुई ही नहीं। मंत्री का यह कहना था कि हंगामा हो गया। विपक्ष लगातार दबाव डाल रहा था और मंत्रीजी अपनी बात पर डटे हुए थे। हमने जानना चाहा कि आखिर माजरा क्या है? तभी एक सयाने और अनुभवी पत्रकार ने हमारी शंका दूर करते हुए कहा- ‘’मंत्री बिलकुल सही कह रहा है। जिस दिन के बारे में प्रश्न पूछा गया है, वह घटना उस दिन नहीं हुई, बल्कि उसके अगले दिन हुई, क्योंकि घटना का समय रात के बारह बजे के बाद का था। ऐसे में तारीख और दिन दोनों बदल जाते हैं।
ऐसी तकनीकी बाजीगरियां आज भी बदस्तूर जारी हैं। क्या करिएगा?