जब तक आठ नवंबर की रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्र के नाम संदेश का प्रसारण नहीं हुआ था और जब तक उस प्रसारण के बाद 500 और 1000 के नोट बंद होने पर अर्थव्यवस्था में उथल पुथल नहीं मची थी तब तक देश दूसरे मुद्दों में उलझा हुआ था। आठ नवंबर की रात आठ बजे से पहले का भारत और भारत का मीडिया भारतीय सेना द्वारा पाकिस्तान में की गई सर्जिकल स्ट्राइक से जुड़े मुद्दों पर बहस कर रहा था। लेकिन उसके बाद का भारत और भारत का मीडिया नोटबंदी और कैशलेस भारत में अटक कर रह गया है। बाकी मुद्दों की न तो कोई चर्चा हो रही है और न ही कोई पूछ रहा है कि भाई इसके अलावा भी तो देश में कुछ घट बढ़ रहा होगा, उसका क्या?
‘’और भी गम है जमाने में नोटबंदी के सिवा’’ की तर्ज पर यह बात मुझे मंगलवार को विधानसभा के शीतकालीन सत्र में कांग्रेस के विधायक और पार्टी के मुख्य सचेतक रामनिवास रावत द्वारा प्रश्नकाल के दौरान पूछे गए एक लिखित प्रश्न से याद आई। यह मुद्दा मध्यप्रदेश में बड़े पैमाने पर सामने आए कुपोषण के मामलों को देखते हुए मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान द्वारा कुपोषण पर श्वेतपत्र लाने की घोषणा से जुड़ा है। रावत ने मंत्री से जानना चाहा कि क्या मुख्यमंत्री ने ऐसी कोई घोषणा की थी? यदि की थी तो वह श्वेतपत्र पटल पर रखा जाए। यदि श्वेतपत्र जारी नहीं हुआ है तो उसके क्या कारण हैं और वह श्वेतपत्र कब तक जारी हो जाएगा?
मंत्री ने अपने जवाब में यह तो स्वीकार किया कि मुख्यमंत्री ने कुपोषण पर श्वेतपत्र जारी करने की घोषणा की थी, लेकिन वह कब तक जारी होगा, इस पर उनका कहना था कि इस बारे में काम चल रहा है और इसकी तारीख बताना संभव नहीं है।
कुपोषण का कलंक मध्यप्रदेश के लिए नया नहीं है। कई बार तो ऐसा लगता है कि मध्यप्रदेश ने इसे काले टीके को स्थायी रूप से अपने माथे पर सजा लिया है। कुछ दिनों पूर्व प्रदेश के श्योपुर जिले में कुपोषण से बड़ी संख्या में हुई बच्चों की मौतों का मामला मीडिया की सुर्खी बना था और उस पर सरकार की खासी फजीहत हुई थी। उसके बाद पोषण आहार की व्यवस्था में भी बड़ा घोटाला सामने आया था। चौतरफा हो रही आलोचना के बाद सरकार ने इस मुद्दे पर गंभीरता दिखाई थी और मुख्यमंत्री ने खुद पहल करते हुए श्वेतपत्र लाने का ऐलान किया था। लेकिन ऐसा लगता है कि कालेधन और नोटबंदी की सुनामी में उलझी सरकार और उसकी मशीनरी ने बच्चों की मौत से जुड़े इस गंभीर और संवेदनशील मुद्दे को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया है।
संवेदनशील मुद्दों पर ऐसा पहली बार हुआ हो यह बात भी नहीं है। ज्यादातर मामलों में सरकारें या विभाग आई बला को टालने के लिए आनन फानन में घोषणाएं कर देते हैं और फिर उन्हें भूल जाते हैं। उन्हें भी मालूम है कि आज सर्जिकल स्ट्राइक मुद्दा है, तो कल नोटबंदी का मुद्दा इसे सुपरसीड कर देगा, आज यदि कुपोषण से बच्चों की मौत को लेकर हल्ला मच रहा है तो जल्दी ही कोई नया मुद्दा इसकी जगह ले लेगा। कुपोषण का शिकार बच्चे अगली बार तभी याद आएंगे जब फिर उनकी मौतों का सिलसिला चलेगा।
वैसे विधानसभा में महिला एवं बाल विकास मंत्री द्वारा रामनिवास रावत के इसी सवाल के एक और हिस्से के जवाब में दी गई जानकारी भी कई सारे और सवाल खड़े करती है। रावत ने जानना चाहा था कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने पोषण आहार को लेकर जो दिशानिर्देश जारी किए हैं क्या उनका मध्यप्रदेश में अक्षरश: पालन किया जा रहा है? जवाब में मंत्री ने बताया कि केंद्र ने 6 माह से 6 वर्ष तक के बच्चों को प्रतिदिन 6 रुपए,गर्भवती स्त्रियों को प्रतिदिन 7 रुपए और अतिकम वजन के बच्चों को प्रतिदिन 9 रुपए के मान से निर्धारित प्रोटीन/कैलोरी युक्त पूरक पोषण आहार दिए जाने के निर्देश दे रखे हैं। मंत्री के अनुसार इन निर्देशों का राज्य में अक्षरश: पालन किया जा रहा है।
अब सवाल उठता है कि राज्य में यदि बच्चों, गर्भवती महिलाओं और अति कुपोषित बच्चों को तय मापदंडों के हिसाब से पूरक पोषण आहार दिया जा रहा है और यह व्यवस्था पूरी तरह चाक चौबंद तरीके से चल रही है, तो फिर प्रदेश में कुपोषित बच्चों की संख्या इतनी अधिक क्यों है और कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या के मामले में हमारा नाम अव्वल क्यों आ रहा है। निश्चित ही इनमें से कोई एक बात ही सही हो सकती है, या तो सरकार और उसकी मंत्री सही बोल रही हैं या फिर कुपोषण से होने वाली मौतों को रिपोर्ट करने वाला मीडिया। और इसके बावजूद कोई शंका कुशंका हो तो उसका फैसला ‘श्वेतपत्र’ जैसे किसी निष्पक्ष और ईमानदार तथ्यपत्र के जरिये ही हो सकता है। पर मुश्किल यह है कि वह ‘श्वेतपत्र’ कब आएगा यह किसी को नहीं पता…