मुझे पता नहीं क्यों अपने प्रिय लेखक श्रीलाल शुक्ल और उनका सार्वकालिक उपन्यास ‘राग दरबारी’ रह रहकर याद आता रहता है। देश की शिक्षा पद्धति को लेकर उन्होंने अपने इस उपन्यास में बड़ी जोरदार बात कही थी,जिसे मैं इसी कॉलम में पहले भी कोट कर चुका हूं। वे लिखते हैं- ‘’वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुयी कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।‘’
श्रीलाल शुक्ल मुझे गुरुवार को देश की जनता के सामने आई दो क्रांतिकारी खबरों से याद आए। संयोग कहें या दुर्योग कि ये दोनों ही खबरें शिक्षा जगत से जुड़ी हैं। पहली खबर के मुताबिक मोदी सरकार ने फैसला किया है कि अब 8वीं तक बच्चों को फेल न करने की व्यवस्था खत्म कर दी जाएगी। अभी तक आठवीं कक्षा तक के छात्रों को पास होने लायक अंक न पाने के बावजूद अगली कक्षा में बैठने की अनुमति दे दी जाती थी। लेकिन कैबिनेट ने तय किया है कि बच्चों को फेल न करने की यह नीति समाप्त कर दी जाए।
इस फैसले के चलते ‘राइट टू एजुकेशन’ विधेयक में भी कुछ बदलाव किया जाएगा। जिसके चलते सभी राज्यों को यह छूट होगी कि वे अपने यहां पांचवीं और आठवीं कक्षा की परीक्षा में असफल होने पर छात्र को उसी कक्षा में रोक सकें। हालांकि ऐसे छात्रों की सुविधा के लिए यह प्रावधान भी किया जाएगा कि उन्हें अगली कक्षा में जाने के लिए परीक्षा का एक और मौका दिया जाए। लेकिन दूसरी परीक्षा में भी यदि छात्र सफल नहीं हो पाता तो उसे उसी क्लास में रोक दिया जाएगा। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने बताया कि25 राज्य पहले ही इस कदम के लिए अपनी सहमति दे चुके हैं।
यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि अब परीक्षा की व्यवस्था में बदलाव किया जा रहा है, तो पहले यह प्रावधान किया ही क्यों गया था? दरअसल पिछले कुछ सालों से चली आ रही ‘नो डिटेंशन पॉलिसी’ का उद्देश्य था कि प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक छात्रों को पास-फेल के दबाव से मुक्त रखा जाए। सोचा यह गया था कि इसके चलते परीक्षा के मानसिक दबाव से मुक्त होकर ज्यादा से ज्यादा बच्चे प्रारंभिक शिक्षा पूरी कर सकेंगे और स्कूलों से ड्रॉप आउट हो रहे बच्चों की संख्या कम होगी।
लेकिन इस नीति का परिणाम यह हुआ कि बच्चों की नींव कमजोर होने लगी। मूल्यांकन के आधार पर अगली कक्षा में प्रवेश से मुक्ति मिलने से बच्चे आठवीं तक बिना बाधा के पहुंच गए। लेकिन परीक्षा मुक्त उस माहौल के बाद जब उन्हें नौवीं कक्षा से परीक्षा का दबाव सहना पड़ा तो वे मानसिक रूप से और अधिक टूटने लगे।
इधर उच्च शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ी और साथ ही अच्छे परिणाम लाने का अभिभावकों का दबाव भी। नतीजा यह हुआ कि परीक्षा और पारिवारिक या सामाजिक दबाव के चलते छात्रों का मनोबल टूटा और वे या तो पढ़ाई से ही मुंह मोड़ने लगे या फिर अनुकूल परिणाम न आने पर उन्होंने आत्महत्या जैसे कदम उठाने शुरू कर दिए।
इस मायने में सरकार के ताजा फैसले से सकारात्मक बदलाव की उम्मीद की जानी चाहिए। क्योंकि शुरू से ही छात्रों के मन में परीक्षा या प्रतिस्पर्धा का भाव होगा तो वे स्थितियों का अधिक चुनौतीपूर्ण ढंग से सामना कर सकेंगे। इससे उन छात्रों में भी हीन भावना नहीं आएगी जो प्रतिभावान थे, लेकिन उन्हें भी सब धान बाइस पसेरी की तर्ज पर तौला जाता था।
जावड़ेकर का कैबिनेट में यह कहना महत्वपूर्ण है कि शिक्षा राजनीतिक एजेंडा नहीं बल्कि राष्ट्रीय एजेंडा है। सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए शिक्षा शीर्ष प्राथमिकता होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्र में राजनीति सबसे ज्यादा हावी है।
चाहे देश की प्राथमिक शिक्षा हो या उच्च शिक्षा, मनमाने तरीके से किए जाने वाले बदलाव और बिना सोचे समझे हठधर्मिता के साथ योजनाओं को लागू किए जाने की जिद के चलते शिक्षा का बहुत बंटाढार हुआ है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मानव संसाधन विकास मंत्री ने जो बात कही है उस पर यह सरकार टिकी रहेगी और किसी भी रूप में शिक्षा का राजनीतिकरण या और कोई ‘करण’करने की कोशिश नहीं करेगी।
लेकिन शिक्षा से ही जुड़ी दूसरी खबर सारे किए धराए पर पानी फेरती नजर आती है। खुद सरकार ने संसद में इस बात को स्वीकार किया है कि देश के 37 प्रतिशत से ज्यादा स्कूलों में आज भी बिजली नहीं है। इस समय देश के केवल 62.81 फीसदी स्कूलों में ही बिजली पहुंच सकी है। इस सूची में झारखंड सबसे निचले पायदान पर है, जहां केवल 19 फीसदी स्कूलों में ही बिजली है। वहीं, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली, चंड़ीगढ़, दादर और नगर हवेली, दमन और दीव, लक्षद्वीप और पुडुचेरी इस सूची में टॉप पर हैं जहां के सभी स्कूलों में बिजली के कनेक्शन हैं।
आपकी यदि यह जानने में रुचि है कि अपना मध्यप्रदेश इस सूची में कहा खड़ा है, तो मैं आपको बता दूं कि आंकड़ों के अनुसार हम सबसे कम बिजली कनेक्शन वाले टॉप 5 राज्यों में शामिल हैं और हमारे यहां सिर्फ करीब 27 फीसदी स्कूलों में ही बिजली है। ये आंकड़े वर्ष 2015-16 के हैं। यह स्थित तब है जब केंद्र सरकार राज्यों के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में बिजली के कनेक्शन मुहैया कराने के लिए सर्वशिक्षा अभियान और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के जरिए अरबों रुपये की राशि मुहैया कराती है।
अब आप खुद सोच लीजिए कि जहां स्कूलों में बिजली तक नहीं है, वहां बच्चे कैसे तो पढ़ेंगे और आगे बढ़ेंगे। हमने उनकी सालाना किताबी परीक्षा लेने का तो फैसला कर लिया, लेकिन स्कूलों की बदहाली से जूझते हुए वे जो परीक्षा रोज देते हैं उसके बारे में कब सोचेंगे? इसलिए मैंने कहा- ‘’किस खबर पर खुश हों और किस पर आंसू बहाएं…?’’