योग्‍यता और रोजगार के बीच तालमेल भी कहां है?

बेरोजगारी भत्‍ते का जिक्र करते हुए मैंने कल ही लिखा था कि पिछले कुछ सालों के दौरान सरकारों ने इसी तरह की मुफ्तखोरी को बढ़ावा देकर खुद की कुर्सी बचाने का काम बहुत होशियारी से किया है। इससे सामाजिक और आर्थिक ढांचे को जो नुकसान पहुंच रहा है उसकी तरफ किसी का ध्‍यान नहीं है।

और अभी जब मैं यह कॉलम लिख रहा हूं तभी खबर आ रही है कि चुनाव में कांग्रेस की ओर से तुरुप के पत्‍ते की तरह इस्‍तेमाल किए गए किसानों की कर्ज माफी वाले मुद्दे की काट के लिए केंद्र की मोदी सरकार ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम’ (यूबीआई) योजना के माध्‍यम से देश के 10 करोड़ लोगों को हर महीने 2500 रुपए तक देने पर विचार कर रही है।

आरंभिक जानकारी कहती है कि यूबीआई से लाभान्वित होने वाले व्‍यक्ति का एक विशिष्‍ट नंबर होगा जिसे आधार नंबर से जोड़ा जाएगा। उसी नंबर से लिंक एक अकाउंट होगा जिसमें हर माह योजना की राशि जमा कर दी जाएगी। यह राशि देने के बाद अलग अलग योजनाओं में मिलने वाली सबसिडी का लाभ बंद हो जाता है।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार यूबीआई का जिक्र पिछले साल के आर्थिक सर्वेक्षण में किया गया था और कहा गया था कि गरीबों को सीधे फायदा पहुंचाने के लिहाज से यह योजना बहुत अच्‍छी साबित हो सकती है। केंद्र सरकार आरंभिक चरण में इस योजना के लिए 10 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान कर सकती है।

दरअसल चाहे यूबीआई जैसी योजनाओं का मसला हो या बेरोजगारी भत्‍ते जैसी योजनाओं का, इन्‍हें लेकर दो ही सवाल उठते हैं। पहला तो यह कि योजना से लाभान्वित होने वाले वास्‍तविक हितग्राहियों की पहचान हो और उसके बाद ही उनके खातों में पैसा ट्रांसफर किया जाए। दूसरा और भी अधिक गंभीर सवाल यह है कि ऐसी कोई भी योजना लोगों को निष्क्रिय या मुफ्तखोर बनाने वाली न हो।

लेकिन अनुभव यह रहा है कि अव्‍वल तो वास्‍तविक और जरूरतमंद हितग्राहियों की सही पहचान नहीं हो पाती, उनके खातें में जाने वाली राशि का कोई और लोग ही फायदा उठा लेते हैं और दूसरे इस तरह की योजनाओं के बाद मानस यह बनने लगता है कि जब बिना काम किए मुफ्त में, घर बैठे ही पैसा आ रहा है तो काम करने की जरूरत क्‍या है।

निश्चित रूप से ऐसी मानसिकता का देश के सामाजिक और आर्थिक दोनों ढांचों पर विपरीत असर होता है। कोई भी देश अपने नागरिकों को बिना कुछ किए धरे, सिर्फ उनका मुंह बंद रखने के लिए पैसे देकर अपनी अर्थ व्‍यवस्‍था को नहीं चला सकता। फिर चाहे वह सस्‍ता अनाज देने का मामला हो या फिर घर बैठे पैसा पहुंचाने का।

मूल मुद्दा यह है कि आप ऐसा वातावरण निर्मित कर पा रहे हैं या नहीं जिसमें कोई भी व्‍यक्ति काम करके अपना गुजारा कर सके। असली जरूरत लोगों को काम देने की है, उनके लिए किसी न किसी किस्‍म का रोजगार मुहैया कराने की है न कि पैसा देकर उनका मुंह बंद करते हुए उन्‍हें और निठल्‍ला बनाने की।

सरकारों के इसी रुख का नतीजा यह हुआ है कि आज सरकारी तंत्र में रोजगार मिलने के बावजूद सबसे अधिक कामचोरी हो रही है। वहां या तो भ्रष्‍टाचार का बोलबाला है या फिर कामचोरी का। पूरे सरकारी तंत्र में 10-15 प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जो ईमानदारी और निष्‍ठा से काम कर रहे होंगे वरना सरकारी नौकरी को लोग ऐसा मानकर चलते हैं मानो घर के दामाद बन गए हों।

‘द क्विंट’ ने इसी साल जुलाई में मध्‍यप्रदेश में रोजगार को लेकर एक स्‍टोरी की थी। उसमें एक युवा से हुई बातचीत आंखें खोल देने वाली है। उस युवक का कहना था कि मैंने कंप्‍यूटर एप्‍लीकेशन में पोस्‍ट ग्रेजुएट डिप्‍लोमा (पीजीडीसीए) किया है मैं टैली (एक खास किस्‍म का सॉफ्टवेयर) भी जानता हूं लेकिन प्राइवेट सेक्‍टर मुझे सिर्फ 8000 रुपए प्रतिमाह की ही नौकरी दे रहा है इसलिए मैं 2016 से सरकारी नौकरी की तलाश में हूं।

हो सकता है इस युवक की तरह हजारों युवक ऐसे ही घूम रहे हों। यह भी संभव है कि उनके पास अपनी योग्‍यता हो, साथ ही कोई मजबूरी भी हो, लेकिन मैं मोटे तौर पर यहां युवाओं की मानसिकता और सरकारी नौकरी की असलियत के बारे में बात करना चाहता हूं।

यदि इस युवक की ही बात को लिया जाए तो निजी क्षेत्र उसकी योग्‍यता के आधार पर उसे 8000 रुपए प्रतिमाह ही ऑफर कर रहा है, यानी कोई नियोक्‍ता है जो उसकी क्षमता, योग्‍यता और उसके योगदान का मूल्‍यांकन कर उसे सिर्फ इतनी ही राशि देने के लायक मान रहा है। तो क्‍या यह संभव नहीं कि वह उतनी ही क्षमता रखता हो और सरकारी नौकरी लग जाने के बाद भी उसका आउटपुट इतने पारिश्रमिक के ही लायक हो।

अब यदि वह 15 या 20 हजार की सरकारी नौकरी पा भी जाता है तो उसका आउटपुट तो दोगुना नहीं होगा ना। यानी वह अपने किए गए कार्य के एवज में करीब दुगुना या तिगुना वेतन प्राप्‍त कर रहा होगा। हम में से ज्‍यादातर लोगों का सरकारी कामकाज के बारे में जो अनुभव है वह किसी से छिपा नहीं है। तो सरकारी नौकरी इसलिए भी पसंदीदा है क्‍योंकि वहां निजी क्षेत्र जैसा परफार्मेंस का दबाव नहीं है।

ऐसे में यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर हम अपने युवाओं को किस दिशा में ले जा रहे हैं। उनका भविष्‍य कैसा गढ़ रहे हैं। हमारी पहली प्राथमिकता उन्‍हें घर बैठे एक भत्‍ता देकर मुंह बंद कराने की न होकर, पहले उन्‍हें योग्‍य और सक्षम बनाने की है और उसके बाद उनकी योग्‍यता और प्रतिभा के आधार पर उन्‍हें सम्‍मानजनक और पर्याप्‍त वेतन देने वाली नौकरी मुहैया कराने की। लेकिन क्‍या हम ऐसा कर पा रहे हैं? क्‍या हमारे सिस्‍टम में योग्‍यता और रोजगार के बीच बेहतर तालमेल है? (जारी)

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