शरद कोकास
किसी पुरानी किताब के
पन्नों के बीच दबा बचपन
अचानक पूछ लेता है
कहाँ खो गए
रंगबिरंगे फूल और तितलियाँ
जब नहीं होते थे कागज़ के फूल
तितलियाँ तब भी होती थीं
खेला करती थीं आंगन में
बच्चों के साथ
और थकती नहीं थीं
काँच के बंद कमरों में
व्याप्त हैं चिंताएँ
ओज़ोन की घटती परत पर
पृथ्वी के बढ़ते तापमान
समुद्र के बढ़ते जलस्तर और
हिमालय की पिघलती बर्फ पर
कमरे के बाहर
रोटी की नमीं सोख रहा है
किसान के पेट पर ऊगा
यूकेलिप्टस का पेड़
सुविधा की छत पर चढ़े
कुछ बच्चे
हँस रहे हैं
ऋतुओं की झूठी कहानी पर
आकाश की आँखों के सामने
लगातार ज़ारी है साजिश
प्रकृति को
अजायब घरों में क़ैद कर देने की।
(कविता संकलन: ‘ गुनगुनी धूप में बैठकर’ से)

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