कहां गए वो खत और उन खतों को लिखने वाले…

8 जनवरी को एक कार्यक्रम के सिलसिले में ग्‍वालियर जाना हुआ। कार्यक्रम मध्‍यप्रदेश के वरिष्‍ठ पत्रकार एवं संपादक स्‍व. माणिकचंद वाजपेयी की स्‍मृति में था और इसमें आज की आवश्‍यकता, नागरिक पत्रकारिता विषय पर व्‍याख्‍यान के साथ ही ‘पत्र लेखक और नागरिक पत्रकारिता सम्‍मान समारोह’ भी रखा गया था। मैं ऐसे आयोजनों को इसलिए सार्थक मानता हूं कि इनमें राजनीति और उससे जुड़े लोगों की लल्‍लो-चप्‍पो से अलग कुछ काम की बातें की जा सकती हैं।

मुझे बताया गया कि यह सालाना आयोजन एक दशक से भी अधिक समय से नियमित रूप से आयोजित किया जा रहा है। इसके लिए आयोजक निश्चित ही बधाई के पात्र हैं। इस कार्यक्रम में जाने के पीछे मेरी रुचि इसलिए भी थी कि उन लोगों के बीच कम से कम एक बार फिर से बैठने का मौका मिलेगा जो अखबार की दुनिया से धीरे धीरे गायब होते जा रहे हैं। और गायब क्‍या हो रहे हैं… सुनियोजित तरीके से गायब किये जा रहे हैं।

हां, पत्र लेखक ऐसी ही बिरादरी है जिसके लिए अखबारों ने या तो जगह खत्‍म कर दी है, या उसे एक कोने में धकेल कर उसके लिए चंद शब्‍दों की छोटी सी कोठरी तय कर दी है। एक जमाना था जब अखबारों के संपादकीय पेज पर ‘पत्र संपादक के नाम’ से जगह मुकर्रर होती थी। उसमें कई सारे लोगों की बात को सम्‍मान दिया जाता था। अखबार में पत्र का छपना शान की बात होती थी और पत्र लेखक समाज में अलग ही सम्‍मान पाता था। ये वो लोग होते थे जो पत्र के जरिये अपने इलाके की ऐसी बातों की ओर संपादक का ध्‍यान आकर्षिक करते थे जो बातें अखबार के रिपोर्टरों या संपादकीय विभाग के अन्‍य लोगों की नजरों में नहीं आ पाती थीं। इसके अलावा, ज्‍वलंत मुद्दों और समस्‍याओं पर विचार रखने के साथ-साथ ये पत्र लेखक, अखबारों के लिए ‘सुपर प्रूफ रीडर’ का काम भी किया करते थे।

‘सुपर प्रूफ रीडर’ मैंने इसलिए कहा क्‍योंकि उस जमाने में अखबारों में बाकायदा ‘प्रूफ रीडर’ नाम की संस्‍था हुआ करती थी। अखबार छपने से पहले सामग्री में भाषागत या तथ्‍यगत कमियों/त्रुटियों को दुरुस्‍त करना उन्‍हीं का काम था। पाठक यदि बिना बाधा के अखबार पढ़ पाता था, तो उसके पीछे इन प्रूफ रीडरों की अथक मेहनत हुआ करती थी।

लेकिन प्रूफ रीडरों की पैनी नजरों से छूटी हुई बात को पकड़ने का काम अखबार के पाठक किया करते थे। और ‘पत्र संपादक के नाम’ कॉलम वह जगह थी, जहां उस गलती या तथ्‍यात्‍मक त्रुटि को पाठकगण अखबार के संपादकीय विभाग की जानकारी में लाकर उसे दुरुस्‍त करवाते थे।

वह समय अपनी गलतियों का अहसास करने के साथ ही ध्‍यान में लाए जाने पर, उन्‍हें बेहिचक दुरुस्‍त करने का भी था। ऐसी कोई त्रुटि सामने आने पर अखबार का संपादक संबंधित गलती को दुरुस्‍त करते हुए अगले दिन गलत जानकारी प्रकाशित हो जाने पर खेद व्‍यक्‍त करते हुए बाकायदा भूल सुधार भी प्रकाशित करता था। अब अखबार में प्रूफ रीडर जैसी संस्‍थाएं खत्‍म हो गई हैं और गलती का अहसास, शान के खिलाफ माना जाने लगा है। इसके बाद यह कहने की जरूरत शायद नहीं बचती कि फिर गलतियों से क्‍या और कैसा सलूक होता होगा। हम खुदा, हमने ही लिखा और हमने ही बांचा…

कुल मिलाकर पत्र लेखक अखबार में बहुत महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखते थे। और मेरा मानना है कि आज हम चाहे जितने भी आधुनिक और कारोबारी (वैसे तो यहां बाजारू शब्‍द का इस्‍तेमाल अधिक उचित है) हो गए हों, तो भी इस समुदाय के लिए उचित और पर्याप्‍त जगह अखबार में होनी ही चाहिये। दरअसल आज जिसे हम नागरिक पत्रकारिता जैसा नया नाम दे रहे हैं वह पुराने जमाने की ‘पत्र लेखक पत्रकारिता ही है। चूंकि अब सूचनाओं और संचार का संसार बहुत विस्‍तृत हो गया है इसलिए मैं फेसबुक, वाट्सएप या ट्विटर को भी उसी पत्र लेखन परंपरा का विस्‍तार मानता हूं। कोशिश होनी चाहिये कि अखबारों में इनकी जगह न सिर्फ बरकरार रहे बल्कि वह बढ़े भी।

दूसरी बात पत्र लेखकों से है। मेरा मानना है कि अखबारों से पत्र लेखकों की जगह छिनने का एक कारण वे खुद भी हैं। विषय, कथ्‍य और भाषा की नवीनता व रोचकता के बजाय यदि सभी पाठक भ्रष्‍टाचार एक सामाजिक बुराई है या झूठ बोलना पाप है टाइप के विषयों पर निर्बंध लिखने लगेंगे तो अखबार कितने लोगों को कितनी बार छापेगा? बेहतर होगा कि विदिशा, रायसेन या होशंगाबाद का पत्र लेखक डोनाल्‍ड ट्रंप की विदेश नीति या भारत अफगानिस्‍तान के संबंधों पर लिखने के बजाय अपने आसपास के विषयों को प्राथमिकता दे। इससे उसके कथ्‍य में स्‍थानीयता भी बनी रहेगी और नवीनता भी। अकसर देखा गया है कि पत्र लेखकों पर नकारात्‍मकता हावी रहती है। यह सच है कि समाज आक्रोशित या आंदोलित रहता है, लेकिन यह क्‍या बात हुई कि हम जब भी लिखे नथुने फुलाकर ही लिखें। यदि अपने गांव, कस्‍बे या शहर की किसी सकारात्‍मक बात पर लिखें तो उससे पढ़ने वालों का ज्‍यादा भला होगा। समस्‍या के बजाय समाधान की बात करें तो हो सकता है अखबार उन्‍हें दी जाने वाली जगह में कम कटौती करें। वरना कचरे के ढेर तो हर गांव, शहर और कस्‍बे में मिल जाएंगे, यदि सारे लोग कचरे पर ही चिट्ठियां लिखने लगेंगे तो तय जानिये आपकी चिट्ठी भी अखबार के कूड़ेदान में ही पड़ी मिलेगी…

खत का यह किस्‍सा यूं ही खत्‍म न हो, इसके जतन तो होने ही चाहिए…

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