कभी इन पथराई आंखों के लिए भी तो कोई रंग तलाशें  

आज देश के एक नामी और राष्‍ट्रीय कहे जाने वाले अखबार में पहले ही पन्‍ने पर एक हेडलाइन को देखकर मैं चौंक गया। यह हेडलाइन थी- ‘Sept 6 historic day when India became more equal’ अचानक तो समझ में नहीं आया कि पिछले दो चार दिनों में आखिर ऐसा क्‍या हुआ कि हमारा यह महान देश समानता के मामले और अधिक मजबूत हो गया।

फिर जब मोटे मोटे अक्षरों की इस हेडलाइन के ऊपर छपी छोटे अक्षरों वाली दो लाइनें देखी तो सिर पीट लिया। वे दो लाइनें बता रही थीं कि अमेरिका की दो मशहूर हस्तियों सर एल्‍टन जॉन और डेविड फर्निश ने भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा, हाल ही में समलैंगिता को अपराध करार देने वाला कानून खत्‍म किए जाने पर, इस अखबार के लिए कोई ’एक्‍सक्‍लूसिव’ टिप्‍पणी लिखी है।

पहले जान लीजिए कि ये सर एल्‍टन जॉन और डेविड फर्निश हैं कौन? एल्‍टन जॉन जाने माने गायक-संगीतकार हैं। उन्‍होंने ‘एल्टन जॉन एड्स फाउंडेशन’ की स्‍थापना की है। और ये जो डेविड फर्निश हैं वे इस फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं। इसके अलावा इन दोनों व्‍यक्तियों का एक और परिचय यह भी है कि ये पति-पत्‍नी हैं और दुनिया में समलैंगिता के मुखर प्रवक्‍ताओं में शुमार किए जाते हैं।

इन्‍हीं दो महानुभावों की लिखी टिप्‍पणी को देश के नामी अखबार में पहले पन्‍ने पर प्रमुखता से जगह दी गई। उन्‍होंने अपनी टिप्‍पणी में लिखा कि हम इस ऐतिहासिक क्षण तक पहुंचने के लिए संघर्ष करने वाले तमाम लोगों को बधाई देते हैं। औपनिवेशिक युग की धारा 377 को निरस्त करने के उल्लेखनीय फैसले के लिए सर्वोच्च न्यायालय की प्रशंसा करते हैं।

उन्‍होंने लिखा कि 6 सितंबर का दिन भारत के इतिहास में खास तौर से याद किया जाएगा। यह एलजीबीटी समुदाय की बड़ी जीत है, लेकिन कानून बदलने से कुछ नहीं होगा, जब तक कि लोगों का दिल नहीं बदलता। हमें विश्वास है कि, इस निर्णय के साथ, भारत स्थायी और सकारात्मक परिवर्तन के रास्ते पर है। इस फैसले से भारत के लोग और यहां की अर्थव्यवस्था समृद्ध होगी।

वैसे सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर के अपने फैसले में भारतीय दंड विधान की धारा 377 को समाप्‍त करते हुए उसके कारण भी गिनाए हैं। पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा कि समाज को पूर्वग्रहों से मुक्त होना चाहिए। व्यक्तिगत पसंद को स्‍वीकार करते हुए सबको समान अधिकार सुनिश्चित किए जाने चाहिए।

और जब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना दिया है तब इस विषय पर वैसे भी बात करने की कोई गुंजाइश बचती नहीं है। लेकिन मेरी आपत्ति इस बात पर है कि क्‍या यह विषय ऐसा है जिसे लेकर यह कहा जाए कि इस फैसले ने भारत के समुदाय को और अधिक समान बना दिया है-India become more equal… (?)

क्‍या भारत के समाज को समानता युक्‍त बताने के लिए अब हमें ऐसे विषयों पर आए फैसलों के पुरावे देना पड़ेंगे? क्‍या अब यही एक विषय बचा है जो भारत के सीने पर समतायुक्‍त समाज का बिल्‍ला ठोक सकेगा। भारत की अर्थव्‍यवस्‍था को समृद्ध बनाने के लिए क्‍या अब ऐसे ही ‘पुरुषार्थ’ की दरकार बची है?

मैं न तो किसी फैसले पर कोई टिप्‍पणी करना चाहता हूं न ही मुझे उस समुदाय से कोई विरोध है जिसे इस फैसले से ‘इंद्रधनुषी’ राहत मिली है। जीने का अधिकार सभी को है और कोई कैसे जीता है यह उसके विवेक और निर्णय पर निर्भर करता है। कोई दूसरा क्‍यों तय करे कि उसे कैसे जीना चाहिए।

लेकिन इस राय के साथ ही मैं यह भी कहना चाहूंगा कि कुछ बातें मनुष्‍य ने नहीं प्रकृति ने नैसर्गिक रूप से तय कर रखी हैं। यह हम हैं जो प्रकृति के उस नैसर्गिक चक्र के खिलाफ जाकर अपनी कथित ‘आजादी’ खोजने की कोशिश करते हैं। पत्रकारिता की दुनिया में एक उदाहरण बहुत प्रचलित है जो कहता है कि कुत्‍ता यदि आदमी को काटे तो खबर नहीं, लेकिन आदमी यदि कुत्‍ते को काट ले तो खबर है।

यहां हम भूल जाते हैं कि कुत्‍ते के द्वारा आदमी को काट लेना तो उसका प्राकृतिक स्‍वभाव है,पर क्‍या आदमी के द्वारा कुत्‍ते को काट लेने को भी हम प्राकृतिक या नैसर्गिक स्‍वभाव मान सकते हैं? ऐसा होना तो प्रकृति की व्‍यवस्‍था के खिलाफ है।

तो क्‍या हम उसे ‘खबर’ मान रहे जो प्रकृति के खिलाफ है? समलैंगिता को अपराध ठहराने वाले कानून की समाप्ति को भारतीय समाज की समानता के स्‍तर में वृद्धि बताना या उसे भारत की आर्थिक समृद्धि के द्वार खोलने वाला कहे जाने को, मैं इसी दृष्टिकोण से देखता हूं।

पहले पन्‍ने पर प्रमुखता से छपी इस टिप्‍पणी को देखकर मुझे पिछले दिनों सेवाग्राम में गांधी विमर्श के दौरान दिया गया प्रसिद्ध पत्रकार पी.साईंनाथ का वह भाषण याद आ गया जिसमें उन्‍होंने बताया था कि ग्रामीण भारत और खेती किसानी से जुड़ी खबरों को लेकर किए गए एक सर्वे में यह बात सामने आई कि देश के राष्‍ट्रीय अखबारों में इन विषयों को पहले पन्‍ने पर स्‍थान दिए जाने का प्रतिशत मात्र 0.67 है।

अब आप सोचिए, जिस समाज में सबसे अधिक असमानता है, जहां अमीर और गरीब की खाई लगातार बढ़ रही है, जिन दिनों देश आरक्षण और एससी-एसटी एक्‍ट में किए गए संशोधनों से पैदा हुई असमानता को लेकर उबला हुआ है, वहां हम समलैंगिता विरोधी कानून खत्‍म किए जाने को भारत में समानता की स्‍थापना का ‘माइलस्‍टोन’ बताते हुए कूद रहे हैं… जश्‍न मना रहे हैं…!!

यह सिर्फ एक विषय था, जिसका सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से निराकरण कर दिया। हो सकता है उससे 130 करोड़ की आबादी वाले इस देश के कुछ लोगों को राहत मिल गई हो, लेकिन वो किसान, वो मजदूर, वो गरीब कहां जाए जो सदियों से ऐसी समानता और अपना हक पाने का इंतजार कर रहे हैं…

मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन अपने बेडरूम में क्‍या करता है, लेकिन मुझे इस बात से फर्क पड़ता है कि एक गरीब अपनी झोपड़ी में कैसे रहता है, एक किसान अपने खेत और अपनी खेती को कैसे संभालता है, एक युवा अपना रोजगार कैसे तलाशता है, सुप्रीम कोर्ट के ही फैसले के बावजूद कैसे कानून को बदल देने वाला सरकार का एक फैसला देश में समानता और न्‍याय की धज्जियां उड़ा देता है…।

आपको हरी, नीली, पीली चड्डियों में इंद्रधनुष दिखता होगा, पर मुझे उन आंखों में पत्‍थर का अक्‍स दिखता है, जो सदियों से समानता का रंग ढूंढ रही हैं…

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here