एक बुनियादी फर्क यह आया है कि गांधी की राजनीति संयम और अहिंसा पर आधारित थी,जबकि आज की राजनीति खुल्लमखुल्ला आतंक और हिंसा पर टिकी है। और यह हिंसा केवल शारीरिक ही नहीं है, वैचारिक, मानसिक और पारिस्थितिक भी है। भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का एक मशहूर नाटक है वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, आज यह वाक्य बदलकर ‘राजनीतिक हिंसा हिंसा न भवति’ हो गया है।
गांधी विशुद्ध सत्य, यानी प्योर ट्रुथ की बात करते हैं, लेकिन आज जमाना पोस्टट्रुथ का है। उससे हम कैसे तालमेल बिठाएंगे? और पोस्टट्रुथ ही क्यों यह तो पोस्टपेड ट्रुथ और प्री पेड ट्रुथ का भी जमाना है। आज सत्य का सौदा हो रहा है, उसके पैकेज फिक्स हैं।
कुछ जगह ऐसे पैकेज प्रीपेड के रूप में उपलब्ध हैं, तो कुछ जगह पोस्टपेड के रूप में। आज राजनीति भी पोस्टपेड और प्रीपेड है। हम सब तो कावडि़ये हैं जो कंधे पर इन पैकेज को ढो रहे हैं। कोई भी ‘सेल्समैन’ आता है और हमें अपनी पार्टी का पैकेज बेच जाता है।
हर आंदोलन के पीछे एक विचार होता है या यूं कहें कि विचार होना चाहिए। पर आज कौन है जो विचार या विचारधारा पर चल रहा है। नोटबंदी के पीछे कौनसा एकात्म मानववाद था। या कर्नाटक में जेडीएस के साथ हुए अलायंस के पीछे कौनसा नेहरूवाद या गांधीवाद है। क्या उत्तरप्रदेश में मुलायम या अखिलेश की सरकार सचमुच समाजवाद पर चल रही थी?
दरअसल यह सब कुछ राजनीतिक सुविधावाद है और सारे दलों में यह वाद निर्विवाद रूप से मौजूद है। आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अव्वल तो आंदोलन करने की स्थितियां ही पैदा होने से पहले खत्म की जा रही हैं और यदि कोई आंदोलन खड़ा भी हो जाए तो उसे कुचलने या संदिग्ध बना डालने में कोई कसर बाकी नहीं रखी जा रही।
दूसरी तरफ हमारा समाज भी सुविधाभोगी हो गया है। किसी आंदोलन से उसका काम भर निकल जाए, फिर वह उसकी तरफ देखता भी नहीं। अण्णा के आंदोलन और इरोम शर्मिला के आंदोलन इसके उदाहरण हैं। अण्णा को हरेक ने (यहां मैं सिर्फ अरविंद केजरीवाल की ही बात नहीं कर रहा, हरेक मतलब हरेक) सीढ़ी की तरह ही तो इस्तेमाल किया।
जिस इरोम शर्मिला ने अपनी जिंदगी के सबसे शानदार साल समाज के लिए संघर्ष करते हुए बिता दिए, उस समाज ने उसे अपना प्रतिनिधि बनाने के बजाय ऐसी लात मारी कि आगे से कोई जनता के लिए आवाज उठाना ही भूल जाए। गांधी और आज के समय में एक फर्क यह भी है कि वहां आंदोलन का एक अगुवा होता था, अब अगुवाई भीड़ करती है।
अभी, गांधी के 150 साल पूरे होने पर मैं अलग-अलग भावभूमि पर गांधी को लेकर लिखे गए आलेख पढ़ रहा था। उसी दौरान एक विचार ने जैसे झकझोर दिया। आज जो लोग हाथों में हंटर,लाठी, पत्थर, पेट्रोल, तलवार या बंदूक लेकर निकलते हैं और देखते ही देखते जिंदा लोगों को चीथड़ों में और सार्वजनिक संपत्ति को राख के ढेर में बदल देते हैं, उनके बाप दादे भी शायद सोच नहीं सकते कि गांधी ने जिस हथियार को इस्तेमाल किया वह था ‘भूख’।
आमतौर पर भूख किसी भी समाज के सबसे विपन्न और वंचित वर्ग से चिपका ऐसा शब्द है जो व्यक्ति की आत्मा तक को दुर्बल बना देता है। उसी भूख को गांधी ने अपने सबसे बड़े अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करते हुए दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्य की नींव हिला दी।
भूख को हड़ताल का जरिया बनाना अपने आप में ऐसा अनूठा और मारक प्रयोग था जिसकी काट अंग्रेजों के पास नहीं थी। यही कारण था कि इधर गांधी भूख हड़ताल या उपवास पर बैठते और उधर अंग्रेज सरकार का सिंहासन डोलने लगता। कबीर ने कहा है ना- दुर्बल को न सताइये,जाकी मोटी हाय, मरी खाल की सांस से लोह भसम हो जाये।
गांधी ने यही ताकत भूखे लोगों के मन में पैदा की। उन्होंने भूख को हथियार बनाना सिखाया और उसी हथियार की मदद से इतने बड़े साम्राज्य को हिलाकर रख दिया। गांधी जानते थे कि लोगों को अपने से जोड़ने के लिए उन्हें उनके ही रहन-सहन को अपनाना होगा, उनके दुखदर्द के भीतर उतरना होगा, उनके जैसा बनना होगा।
शायद इसीलिए वे बदन पर सिर्फ एक कपड़ा पहनते हैं, झोपड़ी में रहते हैं, थर्ड क्लास में यात्रा करते हैं, अपना मलमूत्र खुद साफ करते हैं और नमक जैसी मामूली चीज के लिए मीलों पैदल चलते हैं। यानी वे लोगों को विश्वास दिलाते हैं कि उनका नेता जमीन से दो इंच ऊपर वाला नहीं बल्कि उन्हीं के बीच का इंसान हैं।
इसके विपरीत आज लोग बात तो गांधी की करते हैं, लेकिन उनका वास्तविक आचरण महाराजाओं जैसा है। गांधी भले ही आजाद भारत के लोगों के लिए आंदोलन करने का कोई लिखित नुस्खा न दे गए हों पर मुझे लगता है भारत के लिए आज भी गांधी का वही तरीका सबसे मुफीद है।
बस दिक्कत यह हुई है कि गांधी के विचार या तौरतरीकों को हमने हमेशा पूज्य भाव से लिया। समय और परिस्थितियों के हिसाब से उसमें संशोधन या बदलाव की कोशिश नहीं की। उसे आज की जरूरतों और परिस्थितियों के हिसाब से ढालने का प्रयास नहीं किया। हमने उनकी बात को किताब में दर्ज कर लिया और जरूरत पड़ने पर सिर्फ उसे बांच लिया।
गांधी ने तो ‘सत्य के साथ भी प्रयोग’ किए थे, लेकिन हमने आजाद भारत में गांधी के साथ कितने प्रयोग किए? हां, राजनीतिक लाभ के लिए उनके नाम का उपयोग या दुरुपयोग जरूर किया। आज जरूरत इस बात की है कि हम गांधी को रिथिंक और रिडिफाइन करें।
गांधी हमारे लिए न तो सिर्फ झाड़ू हैं और न ही चतुर बनिया। वे एक ऐसा लाइट हाउस हैं जिसने इतने सालों बाद भी रोशनी देना और राह दिखाना बंद नहीं किया है। हम सिर्फ गांधी के चश्मे को इस्तेमाल कर रहे हैं। अपनी आंख के मोतियाबिंद का इलाज नहीं करा रहे।
आंख में मोतियाबिंद लेकर हम किसी भी चश्मे से देखें, हमें धुंधला ही दिखाई देगा। उसी तरह सत्य और अहिंसा का शाश्वत और सार्वभौम संदेश देने वाला हमारा ही एक महापुरुष भी सिर्फ‘झाड़ू’ बनकर रह जाएगा, जैसाकि आज हो रहा है।