बापू, तुम मुर्गी खाते यदि, तो क्या भजते तुमको ऐरे-गैरे…

जिस मुद्दे पर हम इन दिनों बात कर रहे हैं, उसकी शुरुआत हिन्‍दी और गांधी दोनों के साथ हो रही ज्‍यादती से हुई थी। आज हिन्‍दी और गांधी से जुड़ा एक ऐसा किस्‍सा सुनिये जिसका एक सिरा हमारे अपने प्रदेश के शहर इंदौर से शुरू होता है लेकिन बात खत्‍म होती है गांधी के व्‍यक्तित्‍व के एक ऐसे पहलू पर जिस पर बहुत सारे सवाल खड़े होते हैं।

यह तथ्‍य किसी से छिपा नहीं है कि गांधीजी ने हिन्‍दी को राष्‍ट्रभाषा बनाने का विचार इंदौर में हुए एक सम्‍मेलन में ही व्‍यक्‍त किया था। गांधीजी हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति थे और उन्‍होंने कहा था कि- “इस मौके पर अपने दुख की भी कुछ कहानी कह दूं। हिंदी भाषा राष्ट्रभाषा बने या न बने, मैं उसे छोड़ नहीं सकता। तुलसीदास का पुजारी होने के कारण हिंदी पर मेरा मोह रहेगा ही। लेकिन हिंदी बोलने वालों में रवीन्द्रनाथ कहां हैं? प्रफुल्लचन्द्र राय कहां हैं? जगदीश बोस कहां हैं? ऐसे और भी नाम मैं बता सकता हूं। मैं जानता हूं कि मेरी अथवा मेरे जैसे हजारों की इच्छा मात्र से ऐसे व्यक्ति थोड़े ही पैदा होने वाले हैं। लेकिन जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनना है, उसमें ऐसे महान व्यक्तियों के होने की आशा रखी ही जायेगी।”

गांधीजी के इस बयान पर प्रसिद्ध कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ भड़क गए। उन्‍होंने गांधीजी से मिलकर अपने मन की बात रखनी चाही। निरालाजी को बहुत मुश्किल से गांधीजी से मिलने का समय मिला। सिर्फ 20 मिनिट के लिए तय हुई इस मुलाकात के दौरान दोनों के बीच जो बातचीत हुई उसका विवरण खुद निरालाजी ने कुछ इस तरह दिया है। वे लिखते हैं-

मैंने (गांधीजी से) कहा-”आपके सभापति के अभिभाषण में हिंदी के साहित्य और साहित्यिकों के संबंध में, जहां तक मुझे स्मरण है, आपने एकाधिक बार पं० बनारसीदास चतुर्वेदी का नाम सिर्फ़ लिया है। इसका हिंदी के साहित्यिकों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, क्या आपने सोचा था?”

महात्माजी-”मैं तो हिंदी कुछ भी नहीं जानता।”

निराला-”तो आपको क्या अधिकार है कि आप कहें कि हिंदी में रवींद्रनाथ ठाकुर कौन हैं?

महात्माजी- “मेरे कहने का मतलब कुछ और था”।

निराला- ”यानी आप रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसा साहित्यिक हिंदी में नहीं देखना चाहते, प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर का नाती या नोबल-पुरस्कार-प्राप्त मनुष्य देखना चाहते हैं, यह?”

यह संवाद सुन वहां मौजूद सभी लोग सन्न रह गए। लोग ताज्जुब से निराला जी की तरफ़ देखने लगे। वे आगे लिखते हैं-

मैंने स्वस्थ-चित्त हो महात्माजी से कहा-”बंगला मेरी वैसी ही मात्र-भाषा है, जैसे हिंदी। रवींद्रनाथ का पूरा साहित्य मैंने पढ़ा है। मैं आपसे आधा घंटा समय चाहता हूं। कुछ चीजें चुनी हुई रवींद्रनाथ की सुनाऊंगा, उनकी कला का विवेचन करूंगा, साथ कुछ हिंदी की चीजें सुनाऊंगा।”

महात्माजी-”मेरे पास समय नहीं है।”

निरालाजी ने लिखा- ‘’मैं हैरान होकर हिंदी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति को देखता रहा, जो राजनीतिक रूप से देश के नेताओं को रास्ता बतलाता है, बेमतलब पहरों तकली चलाता है, प्रार्थना में मुर्दे गाने सुनता है, हिंदी-साहित्य-सम्मेलन का सभापति है, लेकिन हिंदी के कवि को आधा घंटा वक्त नहीं देता- अपरिणामदर्शी की तरह जो जी में आता है, खुली सभा में कह जाता है, सामने बगलें झांकता है!’’

खैर, इस बहुत ही संक्षिप्‍त मुलाकात में, गांधीजी के सामने अपनी बात रखने गए निराला, बड़े खिन्‍न मन से वहां से लौटे। लौटने के बाद उन्‍होंने बापू के नाम यह कविता लिखी-

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,

तो क्या भजते होते तुमको

ऐरे-गैरे नत्थू खैरे;

सर के बल खड़े हुए होते

हिंदी के इतने लेखक-कवि? 

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,

तो लोकमान्य से क्या तुमने

लोहा भी कभी लिया होता,

दक्खिन में हिंदी चलवाकर

लखते हिंदुस्तानी की छवि? 

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,

तो क्या अवतार हुये होते

कुल-के-कुल कायथ बनियों के?

दुनिया के सबसे बड़े पुरुष

आदम-भेड़ों के होते भी! 

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि,

तो क्या पटेल, राजन, टण्डन,

गोपालाचारी भी भजते?-

भजता होता तुमको मैं औ

मेरी प्यारी अल्लारक्खी,

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?

यह किस्‍सा मैंने इसलिए सुनाया क्‍योंकि इतिहास की यह गवाही हमें कई सबक देती है। कई सवाल खड़े करती है। और सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्‍या आज कोई है जो सत्‍ता शीर्ष पर बैठे लोगों से, आमने-सामने बैठकर इस तरह की जिरह कर सके? अव्‍वल तो उसे मिलने का समय ही नहीं मिलेगा, और यदि मिल भी गया तो उसका व्‍यवहार वैसा तो कदापि नहीं होगा जैसा हिन्‍दी के उस योद्धा कवि ‘निराला’ का था। भले ही सामने गांधी जैसा व्‍यक्तित्‍व था लेकिन हिन्‍दी के उस हिमायती ने उन्‍हें भी आईना दिखाने में कसर नहीं छोड़ी। अपनी आत्‍मकथा में गांधी के व्‍यक्तित्‍व के खारेपन को भी बेखौफ होकर उजागर किया। गांधी भी शायद गांधी इसीलिये हो पाए कि उनमें निराला की खरी खोटी सुनने का माद्दा था।

अब जब हिन्‍दी के लिए इस अंदाज में लड़ने वाले और गांधी तक को ‘सही-गलत’ की पहचान करवाने वाले बचे ही नहीं हैं, तो दोनों की दुर्दशा पर ताज्‍जुब कैसा?

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