आज मैं आपको इसी कॉलम में 5 नवंबर को लिखी अपनी कुछ बातों की याद दिलाना चाहता हूं। प्रसंग महाराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर चल रही उठापटक का था और मैंने लिखा था-
‘’संभवत: भाजपा इस मामले को जानबूझकर इसलिए लंबा खींच रही है कि गलती से ही सही यदि शिवसेना को सरकार बनाने के लिए कांग्रेस और एनसीपी ने समर्थन दे दिया तो, उसके लिए यह बहुत बड़ी राजनीतिक जीत होगी। आज सीटों का जो गणित है उसमें शिवसेना को सरकार बनाने के लिए कांग्रेस और एनसीपी दोनों का सहयोग चाहिए होगा और जैसे ही ऐसा हुआ कांग्रेस अपने आप एक ऐसी पार्टी के साथ खड़ी नजर आएगी जिसकी राजनीतिक शैली और विचारधारा दोनों का वह घोर विरोध करती आई है।‘’
‘’जरा कल्पना कीजिए, क्या कांग्रेस उस पार्टी को सरकार बनाने के लिए सहयोग दे सकती है जिसने खुलेआम अयोध्या में बाबरी निर्माण को गिराने की जिम्मेदारी ली हो। क्या कांग्रेस उस पार्टी की ताजपोशी करवा सकती है जो, खुद उसके (कांग्रेस) ही मुताबिक, महात्मा गांधी की हत्या करवाने वाले विचार के जनक सावरकर को अपना आदर्श मानती हो। और यदि ऐसा हो जाता है तो इससे बढ़कर भाजपा के लिए मनचाहा छींका टूटने वाली बात और क्या हो सकती है।‘’
‘’जिस दिन कांग्रेस ने शिवसेना को सरकार बनाने के लिए समर्थन या सहयोग किया उसी दिन कांग्रेस का रहा सहा वैचारिक आधार और विरोध भी ध्वस्त हो जाएगा। फिर वह किस मुंह से अयोध्या की घटनाओं से लेकर महात्मा गांधी की हत्या के मामले में बोल सकेगी। और शायद यही वजह है कि भाजपा इतनी लंबी ढील के साथ महाराष्ट्र में सरकार के गठन का खेल खेल रही है। उसे पता है स्थितियां जो भी बनें, उसके दोनों हाथों में लड्डू रहेंगे। अव्वल तो शिवसेना को झक मारकर भाजपा के पास ही आना होगा और यदि ऐसा न हुआ तो कांग्रेस को अपनी पूरी राजनीतिक पुण्याई दांव पर लगाकर शिवसेना के साथ जाने का फैसला करना होगा। क्या कांग्रेस यह खतरा मोल लेगी? मजे की बात यह भी कि, ऐसा होने पर नुकसान सिर्फ कांग्रेस को ही नहीं शिवसेना को भी होगा, क्योंकि दोनों की विचारधाराएं दो अलग-अलग ध्रुवों पर टिकी हैं।‘’
‘’इसके बाद भी यदि बात नहीं बनती तो, राष्ट्रपति शासन का तुरुप का पत्ता तो भाजपा के पास है ही। छह माह में राजनीति की नदी में कितना पानी बह जाता है यह कोई दबी छिपी बात है क्या?’’
————–
अब उस पर बात करते हैं जो 12 नवंबर को हुआ। 24 अक्टूबर को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव परिणाम आ जाने के 18 दिन बाद भी कोई सरकार न बनने पर राज्यपाल भगतसिंह कोश्यारी ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश कर दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ब्राजील यात्रा पर रवाना होने से पहले आनन फानन में बुलाई गई केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में उस पर मुहर भी लगा दी गई। और शाम करीब साढ़े पांच बजे राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।
इस बीच राज्यपाल के फैसले के खिलाफ शिवसेना सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है। उसने सरकार बनाने के लिए एनसीपी और कांग्रेस का समर्थन पत्र जमा करने के लिए तीन दिन का अतिरिक्त समय दिए जाने की मांग का अनुरोध राज्यपाल द्वारा ठुकराए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। उधर एनसीपी कांग्रेस गठबंधन का भी आरोप है कि उन्हें 12 नवंबर की रात साढ़े आठ बजे का समय दिया गया था लेकिन उससे पहले ही राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी।
ताजा हालात में सारा मामला शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के बीच सिमट गया है। सरकार गठन को लेकर भाजपा अब एक पार्टी के तौर पर भले ही बाहर खड़ी है लेकिन राज्यपाल के जरिये वह मैदान में बनी भी हुई है। सवाल यह है कि जब यह पता चल गया था कि भाजपा सरकार बनाने नहीं जा रही है तो फिर शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस ने राष्ट्रपति शासन लग जाने की नौबत ही क्यों आने दी? अगर सरकार को लेकर वास्तव में ‘अंडरस्टैंडिंग’ बन चुकी थी तो सारी चिट्ठी पत्र पहले से तैयार क्यों नहीं रखी गई?
अब चूंकि राज्य में छह माह के लिए राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका है और शिवसेना राज्यपाल द्वारा वांछित समय न देने के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है इसलिए जो भी होगा वह कोर्ट के फैसले पर निर्भर करेगा। शिवसेना की ओर से कहा गया है कि वे राष्ट्रपति शासन को भी कोर्ट में चुनौती देंगे। यदि कोर्ट राष्ट्रपति शासन के फैसले को जायज ठहरा देता है तो भाजपा को सरकार बनाने के लिए जोड़तोड़ करने का पर्याप्त समय मिल जाएगा। और यदि ऐसा नहीं हुआ तो भी शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस भले ही मिलकर सरकार बनाने के फैसले पर पहुंच जाएं, अंतिम फैसला राज्यपाल पर ही निर्भर होगा। ऐसे में हो सकता है कि इन तीनों दलों को मिलीजुली सरकार बनाने के लिए भी कोर्ट की ही शरण लेनी पड़े।
शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की ओर से महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू करने को अनैतिक और केंद्र के दबाव में लिया गया फैसला बताया गया है। लेकिन ऐसा लगता है कि भारतीय राजनीति अब नैतिक और अनैतिक जैसे शब्दों से परे हो गई है। वहां इन शब्दों का कोई मायना नहीं बचा है। महाराष्ट्र में यह तो ठीक ठीक किसी को नहीं पता कि गठबंधन के दौरान भाजपा शिवसेना में क्या ‘डील’ हुई थी लेकिन यदि सरकार बनाने व चलाने के लिए 50-50 का कोई फार्मूला था भी तो भाजपा ने उसे न मानकर क्या कोई नैतिक काम किया है? और यदि ऐसा कुछ नहीं था तो क्या शिवसेना भाजपा पर अनैतिक दबाव डाल रही थी?
इसी तरह यदि राज्यपाल शिवसेना या एनसीपी-कांग्रेस को मनचाहा समय दे भी देते और ये तीनों मिलकर सरकार बना भी लेते तो क्या वह सरकार नैतिक होती? या फिर राष्ट्रपति शासन की छह माह की अवधि में जोड़तोड़ या तोड़फोड़ करके भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच जाती है तो क्या वह अनैतिक नहीं होगा? दरअसल राजनीति अब इन सबसे परे किसी भी तरह सत्ता हथियाने का खेल है, सफेद तरीके से नहीं तो काले तरीके से सही। महाराष्ट्र में यही हो रहा है…