अजय बोकिल
समझना कठिन है कि जो गीत ‘दिल की गहराइयों’ में हो, उसे सचिवालयकर्मियों द्वारा हर माह की पहली तारीख को गाने में दिक्कत क्या है? जो गीत जन्मा ही राष्ट्रवाद की भावभूमि पर हो, उसे ‘राष्ट्रवादी’ कहकर खारिज भी नहीं किया जा सकता। जिस गीत को गाने में महज 2 मिनट और 40 सेकंड लगते हों और जिसे गाने के लिए सचिवालय के सौ डेढ़ कर्मचारी भी मुश्किल से जुटते हों, उसे बंद करने या संशोधित करने से भी क्या हासिल होगा? अलबत्ता जाने अनजाने एक ‘नॉन इश्यू’ में राजनीतिक मुद्दे की हवा भरने का काम जरूर हो रहा है।
कमलनाथ सरकार की इस ‘असावधानी’ को बीजेपी की चतुर आंखों ने बखूबी भांप लिया है। इसीलिए मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह ने तत्काल ऐलान किया कि उनकी पार्टी के सभी 109 विधायक पंद्रहवीं विधानसभा के मंगलाचरण में 7 जनवरी को सचिवालय प्रांगण में ही राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम’ दमदारी से गाएंगे। उधर दिल्ली में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने मप्र में सरकारी वंदे मातरम् गायन बंद करने के लिए सीधे कांग्रेस अध्यवक्ष राहुल गांधी से जवाब तलब किया है कि क्या यह सब उनके इशारे पर हुआ है? क्या यह देशद्रोह नहीं है? शाह ने यह आरोप भी जड़ा कि ‘वंदे मातरम्’ गान पर प्रतिबंध न लगाया होता तो देश बंटने से बच सकता था। इस बीच भाजपा ने इसी मुद्दे को लेकर प्रदर्शन भी शुरू कर दिए हैं।
बेशक, बात छोटी सी थी, लेकिन अब बड़े राजनीतिक मुद्दे का रूप लेती जा रही है। मप्र में कांग्रेस की कमलनाथ सरकार वजूद में आने के बाद सबकी नजरें इस बात पर थीं कि इस बार साल के और महीने के भी पहले दिन वल्लभ भवन के उद्यान में होने वाला सामूहिक ‘वंदे मातरम्’ गान होता है या नहीं? यह राष्ट्रगीत दफ्तर शुरू होने से पहले 14 सालों से एक रस्म अदायगी के तौर पर होता रहा है। गोया यह भी एक सरकारी खानापूर्ति हो। लेकिन वो होता रहा है, यह अहम है।
इसका राजनीतिक संदेश यही था कि जिस वंदे मातरम् गीत को पहले कांग्रेस ने अपनाया और बाद में उसी ने नजरअंदाज किया और फिर उसी ने संसद में इसका गान फिर शुरू किया, उसे भाजपा सरकार पूरा सम्मान देती है। साथ ही इस गीत पर ‘मुस्लिम विरोधी’होने के आरोपों को सिरे से खारिज करती है।
वैसे यह ‘वंदे मातरम्’गीत की ही ताकत है कि इस पर जितना और जितनी बार विवाद खड़ा किया गया, यह गीत उतना ही ताकतवर बन कर उभरा। ‘वंदे मातरम्’वास्तव में बांगला के मूर्धन्य कवि-लेखक बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की अमर रचना ‘आनंद मठ’की एक काव्य रचना है, जिसमें विद्रोही सन्यासी इसे गाते हैं। इस गीत को राष्ट्रीय चेतना का प्रेरक भी सबसे पहले कांग्रेस ने ही माना और 1896 के कलकत्ता अधिवेशन में कवींद्र रवींद्रनाथ टैगोर ने पहली बार इसे सस्वर गाया। बाद में कांग्रेस के अधिवेशनों का आरंभ इस गीत से होने लगा।
यह गीत ‘बंग भंग आंदोलन’की जान था। 1905 में महात्मा गांधी ने लिखा कि ‘वंदे मातरम्’ने वास्तव में राष्ट्रीय गीत का दर्जा हासिल कर लिया है।‘वंदे मातरम्’ पर पहली बड़ी आपत्ति 1923 में कांग्रेस के काकीनाडा अधिवेशन में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अली ने यह कहकर की कि इस गीत में देवी आराधना है और यह मूर्तिपूजा का प्रतीक है, जो इस्लाम के खिलाफ है। उन्होंने अधिवेशन में इस गीत को गा रहे प्रख्यात संगीतज्ञ पं. वी.डी. पलुस्कर को गाने से रोका। लेकिन पलुस्कर ने इस विरोध की परवाह नहीं की और पूरा गीत गाकर ही दम लिया।
इस घटना के बाद कांग्रेस में तुष्टिकरण की नीति हावी हुई और ‘वंदे मातरम्’को लेकर दो धड़े हो गए। यह तर्क दिया गया कि ‘वंदे मातरम्’किसी पर ‘थोपा’नहीं जाना चाहिए। इन सबके बावजूद आजादी की पूर्व रात्रि में 14 अगस्त 1947 को संसद के ऐतिहासिक सत्र का शुभारंभ इसी महान गीत से हुआ। इस दमदार शुरुआत के बाद कांग्रेस फिर पीछे हटी और ‘वंदे मातरम्’दरकिनार हो गया। हालांकि आकाशवाणी का आरंभ गान वह बना रहा।
प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव के जमाने में कांग्रेस को इस गीत की महत्ता फिर समझ आई और इस गीत पर ‘हिंदुत्व’को बढ़ावा देने के आरोप को नजरअंदाज कर पहली बार इसे संसद में गाया गया। यही परंपरा विधानसभाओं में भी शुरू हुई। ‘वंदे मातरम्’की मूल भावना ‘सुजलाम् सुफलाम्’मातृभूमि के आगे देश ने फिर सिर नवाया। हालांकि कुछ खेमो से विरोध आज भी होता है, यह बात गौण है। अगर मप्र की बात करें तो 2005 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने राष्ट्रगीत के सचिवालय में गायन की शुरुआत की।
पहली बार 1 जुलाई 2005 को सचिवालय कर्मचारियों ने इसे सामूहिक रूप से गाया और इस गीत की ऊर्जा महसूस की। हालांकि तब गौर की इस पहल को उमा भारती की तुलना में खुद को ज्यादा ‘हिंदूवादी’साबित करने की कोशिश के रूप में भी देखा गया था। लेकिन वास्तव में यह प्रशासन के निर्जीव माहौल में मातृभूमि को वंदन करने का जज्बाती प्रयास जरूर था। तब से यह सिलसिला अभी तक चला आ रहा था।
लेकिन न जाने क्यों, नई कमलनाथ सरकार आने के बाद यह राष्ट्रगीत नहीं हुआ। नहीं होगा, इसके बारे में शायद किसी ने सोचा भी न होगा। क्योंकि जैसे यह मान लिया गया है कि जिस तरह पहली तारीख को वेतन बैंक अकाउंट में जमा होना है, उसी तरह 1 तारीख को ‘वंदे मातरम’गायन भी पुलिस बैंड के साथ होना ही है। इस बार ऐसा अगर नहीं हुआ तो किसके इशारे पर नहीं हुआ, किसी गफलत अथवा सोची समझी रणनीति के तहत नहीं हुआ, यह अभी साफ नहीं है।
मुख्यमंत्री कमलनाथ ने इस विवाद को बढ़ने से रोकने के लिए बयान दिया है कि वंदे मातरम् पर रोक अस्थायी है। यह फैसला किसी एजेंडे के तहत नहीं लिया गया है। उन्होंने कहा कि ‘वंदे मातरम्’तो हमारी दिल की गहराइयों में बसा है। हम इसे वापस शुरू करेंगे, लेकिन नए रूप में। मुख्यमंत्री कमलनाथ का यह बयान कई दिलों को शंकित कर गया। क्योंकि अगर वे इसे किसी संशोधन के साथ फिर शुरू करना चाहते हैं तो वह क्या होगा?
क्या ‘वंदे मातरम्’की सुपरिचित धुन को बदला जाएगा? क्या इसके शब्द बदलेंगे? क्या इसे गाने वालों में कोई तब्दीली होगी? क्या इसे गाने की जगह में बदलाव होगा? आखिर बदलाव होगा तो क्या होगा? अगर कुछ होगा भी तो किसी रूप में और नीयत से होगा? होगा भी तो क्या वह सर्वस्वीकार्य होगा? जरा सोचिए, जो गीत सीधे मातृभूमि की आत्मा से जुड़ा हो, वह बदल कैसे सकता है? आखिर कोई मां कैसे बदल सकती है और उसे बदलने का अधिकार किसने दिया है?
ऐसे तमाम सवाल मन को मथने लगे हैं। हो सकता है मुख्यमंत्री कमलनाथ और कांग्रेस इसे बहुत क्षुद्र मसला मानें। ठीक है कि जो इसे नहीं गाते वो देशद्रोही नहीं होंगे, लेकिन जो इसे गाते हैं, उनकी देशभक्ति किसी पार्टी तक सीमित है, यह मान लेना भी गैर वाजिब होगा। नई सरकार अगर ऐसे ही अनावश्यक और संवेदनशील मुद्दों में हाथ डालेगी तो ऐसे तमाम क्षुद्र मुद्दों की धीमी आंच आगामी लोकसभा चुनाव में लावे में बदल सकती है। अभी तक का संकेत यही है कि कमलनाथ सकारात्मक बातों के स्वस्तिवाचन के साथ आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें इसी ट्रैक पर आगे भी दौड़ना चाहिए। किसी की अधकचरी सलाह पर नॉन इश्यूज के दलदल में धंसेंगे तो बड़ा राजनीतिक नुकसान रोके न रुकेगा।
(सुबह सवेरे से साभार)