जब भी हमें राम या रहीम के समर्थन में कोई ठोस तर्क अथवा तथ्य नहीं मिलता, तो हम राम के खिलाफ रहीम को और रहीम के खिलाफ राम को खड़ा कर देते हैं। आज की बौद्धिक जुगालियों में ज्यादातर यही हो रहा है। कोई भी ‘बौद्धिक रेसिपी’ तैयार करने के बाद हम उसमें धर्म का तड़का जरूर लगाते हैं। अच्छी भली मिठाई तैयार होने के बाद उस पर ‘स्वादानुसार’ हरा या केशरिया रंग बुरक देना जमाने का चलन बन गया है।
अभिव्यक्ति की आजादी पर आज पढ़ें गिरीश उपाध्याय की आलेख श्रृंखला का तीसरा और अंतिम भाग।
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बड़वानी के पूर्व कलेक्टर अजय गंगवार अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखते हैं-
‘‘उन्होंने (नेहरू) देश में गोशाला और मंदिर की जगह यूनिवर्सिटी खोली यह भी उनकी घोर गलती थी। उन्होंने आपको अंधविश्वासी की जगह एक साइंटिफिक रास्ता दिखाया यह भी गलती थी। इन सब गलतियों के लिए गांधी फैमिली को देश से माफी तो बनती है।’’
देखिए, सबसे पहले तो यह समझ लीजिए कि नेहरू को इस देश में ऐसे किसी भी टुच्चे या हलके समर्थन की जरूरत नहीं है। नेहरू, नेहरू हैं और वे किसी की दया या समर्थन के मोहताज नहीं हैं। यह देश चाहे तो भी उनका नाम भारत के इतिहास से मिटा नहीं सकता। मिटाना चाहिए भी नहीं। जो लोग यह गलती कर रहे हैं, वे यह भूल रहे हैं कि वे भी इतिहास में अपने नाम के पन्नों को उसी तरह काला कर रहे हैं, जैसा एक विशेष कालखंड में श्रीमती इंदिरा गांधी ने किया था। चूहा पहाड़ में बिल तो बना सकता है, लेकिन वह पहाड़ को काटकर धूल बना दे, यह संभव नहीं। अरे जब इतिहास की धरोहरों को शमशीरों से नहीं मिटाया जा सका तो छोटी मोटी कीलें इधर उधर ठोक कर उन्हें क्या दबाया जा सकेगा?
श्री गंगवार बहुत ही हास्यास्पद तरीके से यूनिवर्सिटी के बरक्स गोशाला और मंदिर को खड़ा कर रहे हैं। यह उनके इंटलेक्च्युअल होने के बजाय तीव्र प्रतिक्रियावादी होने की ओर इशारा करता है। अरे भाई, यूनिवर्सिटी और गोशाला की क्या तुलना? दोनों की उपयोगिता दोनों का उद्देश्य ही सर्वथा अलग है। न तो कोई गोशाला किसी यूनिवर्सिटी का विकल्प हो सकती है और न ही कोई यूनिवर्सिटी किसी गोशाला का। न तो यूनिवर्सिटी में गाय भैंस बांधी जा सकती हैं और न ही गोशाला में छात्र बिठाए जा सकते हैं। लेकिन समाज के लिए उपयोगी तो दोनों हैं। क्या हम इस तरह की टिप्पणी करके यह कहना चाह रहे हैं कि देश में केवल विश्वविद्यालय होने चाहिए, गोशालाएं नहीं। या फिर सिर्फ गोशालाएं ही होनी चाहिए, विश्वविद्यालय नहीं। अगर श्री गंगवार में नेहरूजी की आत्मा का वास हो गया हो, तो बात अलग है, अन्यथा नेहरू ने कभी गोशालाओं का विरोध किया हो, यह ज्ञात नहीं पड़ता।
अपनी तमाम आधुनिकताओं के बावजूद नेहरू को इस देश से, यहां की मिट्टी से और यहां की संस्कृति से अगाध प्रेम था और यही बात उनकी वसीयत में भी झलकती है, जब वे अपनी चिता की राख का एक हिस्सा गंगा में प्रवाहित करने और बाकी हिस्सा इस देश के खेतों में बिखेर देने की बात करते हैं। याद रखिए नेहरू उस समय यह बात कर रहे हैं, जब देश की कृषि व्यस्था बहुतांश में केवल गोवंश पर ही आधारित थी। उन्होंने अपनी राख किसी विश्वविद्यालय परिसर में छिड़कने को तो नहीं कहा। फिर हम नाहक ही अपनी भ्रांत धारणाओं को नेहरू पर आरोपित कर पता नहीं कौनसा अभीष्ट सिद्ध करने में लगे हैं।
इसी तरह आप विश्वविद्यालय और मंदिर की तुलना भी कैसे कर सकते हैं। इस देश में ‘मंदिर’ शब्द ही कमबख्त राजनीति का पर्याय बना दिया गया है। जब आपको कुछ नहीं सूझता तो आप मंदिर मंदिर चिल्लाने लगते हैं। क्या मंदिरों को इस देश से मिटाया जा सकता है, क्या उन्हें मिटाया जाना चाहिए? मिटाने की असली जरूरत तो उस राजनीति को है, जो मंदिरों के नाम पर की जा रही है। मुझे तो याद नहीं आता कि नेहरू ने कभी ऐसा कहा हो कि इस देश में मंदिरों की जगह विश्वविद्यालय बनाए जाएं। आप अपनी किसी बात में विश्वविद्यालय और मंदिरों की तुलना करेंगे तो निश्चित ही एक वर्ग विशेष के प्रति आग्रही और दूसरे वर्ग के प्रति दुराग्रही दिखेंगे।
और ये सांइटिफिक और अंधविश्वासी का मतलब क्या है भाई? अभी अभी हमारे उज्जैन में संपन्न सिंहस्थ महाकुंभ में करोड़ों लोगों ने पवित्र शिप्रा में डुबकी लगाई और मंदिरों के दर्शन किए, तो क्या वे सब अंधविश्वासी थे? आप तो संविधान और विधिसम्मत शासन व्यवस्था के प्रतिनिधि हैं, आप कैसे इस तरह की तुलना कर सकते हैं? और ऐसे समय में आप मंदिर शब्द का ही इस्तेमाल क्यों करते हैं, जरा कभी मस्जिद,गुरुद्वारा या चर्च जैसे शब्दों को मंदिर के स्थान पर बिठा कर देखिए। आप जानबूझकर उकसाने वाली टिप्पणी करें और फिर कहें कि उसकी प्रतिक्रिया हो रही है, तो ऐसा कैसे चलेगा?
मुझे लगता है कि बात बात में मंदिर और ऐसे ही अन्य प्रतीकों को ले आना फैशन बना लिया गया है। जिन लोगों के पास अपनी बात कहने के लिए ठोस तथ्य, प्रमाण, तर्क या विवेक नहीं है, वे ही कभी धर्म को तो कभी धर्मस्थलों को आड़ बनाकर वार करते हैं। और यह बात सभी पर समान रूप से लागू होती है। चूंकि इन प्रतीकों के इस्तेमाल में शीघ्र चर्चित या ‘लोकप्रिय’ होने का तत्व अधिक है, इसलिए हर कोई इसका चूरण की तरह इस्तेमाल कर लेता है। जरूरत हो या न हो, एक फक्की तो मार ही ली जाए।
दरअसल सोशल मीडिया पर ऐसी अनावश्यक पोस्ट डाल कर सस्ती लोकप्रियता अर्जित करने का उपक्रम करने के बजाय किसी भी प्रशासनिक अधिकारी से अपेक्षा तो यह की जाती है कि वह अपने काम से उदाहरण पेश करे। चाहे वह किसी की भी नीतियों से प्रभावित हो, चलताऊ तरीके से उनका ‘तुलनात्मक अध्ययन’ प्रस्तुत करने के बजाय अपने काम से बताए कि उसने किस की नीतियों पर चलकर बदलाव की नींव डाली। बेहतर होता कि श्री गंगवार इस तरह की फिजूल टिप्पणियों में पड़ने के बजाय यह बताते कि कलेक्टर रहते हुए उन्होंने ‘नेहरूवादी नीतियों’ पर चल कर ही सही, कितने लोगों का जीवन बदल डाला।
यदि फेसबुक पर अपनी किसी खास ‘प्रतिबद्धता’ का प्रचार करने के बजाय वे यह रास्ता अपनाते तो राजनीतिक व्यवस्था को भी सोचने पर मजबूर होना पड़ता कि, आखिर आज किसकी नीतियां ज्यादा कारगर हैं, नेहरू की या नरेंद्र मोदी की। देश किस मॉडल को चुने, नेहरू मॉडल को या मोदी मॉडल को।
पर क्या करें, हम दिखावे और ढकोसले में जीने के आदी हो गए हैं। इसलिए हमें वही रास आता है और वही हम कर रहे हैं। अभिव्यक्ति की आजादी का कवच जब हमारी रक्षा के लिए मौजूद है तो फिर डर भी किस बात का…
(समाप्त)
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हे भारतजादो, पहले आजादी का सही मायना तो समझ लो!
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क्या जवाबदेही के बिना समाज चल सकता है?