राहुल गांधी यूपीए सरकार के समय दसॉल्ट एविएशन से हुई भारत की बातचीत का हवाला देते हुए प्रत्येक रॉफेल विमान की कीमत करीब 527 करोड़ रुपए बता रहे हैं। और इसी आधार पर वे एनडीए सरकार द्वारा हर विमान अब करीब 1600 करोड़ रुपए में खरीदे जाने पर सवाल उठा रहे हैं।
उधर रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन सहित मोदी सरकार के कई मंत्रियों का कहना है कि राहुल जो कीमत बता रहे हैं वह खाली विमान की है, जबकि नए सौदे में भारत ने यह विमान कई नई सुविधाओं, हथियारों व अन्य शर्तों के साथ खरीदा है। बढ़ी हुई कीमत के पीछे एक तर्क यूपीए और एनडीए सरकार के समय डॉलर के अलग अलग रेट का भी है।
एक और मुद्दा अनिल अंबानी की कंपनी को 30 हजार करोड़ रुपए का फायदा पहुंचाने का है। यह 30 हजार का आंकड़ा भी रॉफेल के कुल 60 हजार करोड़ के सौदे के ऑफसेट कान्ट्रेक्ट की 50 प्रतिशत राशि को आधार बनाकर बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि सरकार ने इतनी बड़ी राशि अनिल अंबानी को गिफ्ट कर दी।
लेकिन दसॉल्ट ने फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलांद का विवादस्पद बयान आने के बाद जो स्पष्टीकरण जारी किया है, उसमें उसने दो बातें कही हैं। पहली तो यह कि अंबानी के साथ जो ऑफसेट कान्ट्रेक्ट हुआ वह रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) 2016 के नियमों और ‘मेक इन इंडिया’ नीति के अनुसार हुआ।
दूसरे, दसाल्ट एविएशन ने रिलायंस के अलावा बीटीएसएल, डीईएफएसवाईएस, काइनेटिक, महिंद्रा, मेनी, सैमटेल जैसी अन्य कंपनियों के साथ भी ऐसी ही अन्य साझेदारियों पर हस्ताक्षर किए हैं। इनके अलावा करीब सौ अन्य संभावित भागीदारों के साथ बातचीत अभी चल रही है।
अब सवाल उठता है कि यदि फ्रांस और भारत सरकार के बीच हुए समझौते के मुताबिक दसॉल्ट को सौदे की कुल रकम की पचास प्रतिशत राशि के बराबर का ऑफसेट कान्ट्रेक्ट भारतीय कंपनियों से करना था और उसने बकौल राहुल गांधी 30 हजार करोड़ का, यानी पूरा का पूरा कान्ट्रैक्ट अनिल अंबानी से कर लिया है, तो फिर बाकी सौ से अधिक कंपनियों के साथ दसॉल्ट कितनी राशि या कितने फीसदी हिस्से का करार कर रही है?
मामले में एक और पेंच अंबानी की कंपनी के अनुभव को लेकर है। लेकिन मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक ही मोदी सरकार ने फ्रांस सरकार से जो समझौता किया है, उसके तहत सारे 36 विमान बने बनाए, ‘रेडी टू यूज’ स्थिति में ही भारत को मिलेंगे, यानी उनका निर्माण भारत में होना ही नहीं है।
द हिन्दू समूह की पत्रिका बिजनेस लाइन में नयनिमा बसु ने 7 फरवरी 2018 को इस मामले पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें रक्षा मंत्रालय के सूत्रों के हवाले से कहा गया है कि यूपीए और एनडीए दोनों के समय ही ‘टेक्नालॉजी ट्रांसफर’ की कोई बात नहीं हुई। यूपीए के समय सिर्फ निर्माण के लायसेंस की बात थी, वहीं एनडीए ने बने बनाए विमान लेने का सौदा किया।
24 सितंबर 2018 को एनडीटीवी डॉट कॉम में प्रकाशित विष्णु सोम की स्टोरी कहती है कि अनिल अंबानी की कंपनी दसॉल्ट के साथ बनाए गए संयुक्त उपक्रम दसॉल्ट रिलायंस एयरोस्पेस लिमिटेड (डीआरएएल) में, जेट विमान के लिए कुछ पुर्जे बनाएगी। लेकिन इन पुर्जों का उन 36 रॉफेल विमानों में कतई इस्तेमाल नहीं होगा जो भारत को मिलने वाले हैं।
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इसी बीच, इन सारे तथ्यों के बावजूद, एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है। सवाल यह है कि जब मोदी सरकार ने यूपीए के समय की रॉफेल डील को रद्द किया तो उसने नए सिरे से प्रक्रिया शुरू करते वक्त सिर्फ रॉफेल को ही तवज्जो क्यों दी? क्या उसे यूपीए के समय बोली लगाने वाली बाकी कंपनियों से भी बात नहीं करनी चाहिए थी, ताकि देश को अधिक बेहतर और अपेक्षाकृत कम कीमत वाली डील मिल सकती।
यह सवाल कितना जरूरी है यह जानने के लिए फिर से 2011 में जाना होगा जब यूपीए सरकार द्वारा लड़ाकू विमानों के लिए बुलाए गए प्रस्तावों में दो विमानों को भारतीय वायुसेना की जरूरतों के उपयुक्त पाया गया था। ये विमान थे फ्रांस का रॉफेल और यूरोपियन एयरोनॉटिक डिफेंस एंड स्पेस कंपनी (ईएडीएस) जर्मनी का यूरोफाइटर।
7 अगस्त 2018 को मनु पब्बी ने इकॉनामिक टाइम्स में लिखा कि सरकार के विश्लेषण के मुताबिक यूरोफाइटर सस्ता भी था और जर्मनी ने एनडीए सरकार को यह भी प्रस्ताव दिया था कि यदि उसे मौका दिया जाता है तो वह विमान की कीमत में 20 फीसदी तक की कटौती करने को तैयार है। लेकिन भारत सरकार ने उसके इस प्रस्ताव का कोई जवाब ही नहीं दिया।
जर्मनी ने तो यहां तक कह दिया था कि भारत की तात्कालिक जरूरत को देखते हुए वह ब्रिटेन और इटली आदि देशों को होने वाली यूरोफाइटर टाइफून जेट की सप्लाई को डायवर्ट करके भारत को डिलिवरी देने को तैयार है। लेकिन जब यह स्पष्ट हो गया कि भारत सरकार रॉफेल पर ही विचार कर रही है तो जर्मनी ने फिर कोई पेशकश नहीं की।
जानकारों का कहना है कि भारत सरकार को उस समय जर्मनी से कम से कम बात तो करनी चाहिए थी ताकि दसॉल्ट एविएशन पर उसका मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ता और उससे रॉफेल की कीमत कुछ और कम करवाई जा सकती। वैसे भी सिर्फ एक ही वेंडर से बात करना रक्षा खरीद नियमों के खिलाफ है।
हाल ही में यह मामला उस समय और उलझ गया है जब इंडियन एक्सप्रेस में 27 सितंबर 2018 को सुशांत सिंह ने खबर दी है कि जिस समय रॉफेल से बातचीत चल रही थी उस समय रक्षा मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव ने कीमत को लेकर अपनी असहमति दर्ज कराई थी और यह बात फाइल पर दर्ज भी कर दी थी।
संयुक्त सचिव का कहना था कि ताजा बातचीत में रॉफेल का बेंचमार्क मूल्य तय करते समय यूपीए के समय हुई बातचीत के बेंचमार्क मूल्य को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार जब मामला उलझता नजर आया तो सरकार ने रक्षा खरीद महानिदेशक से संयुक्त सचिव के नोट को खारिज करवाकर रॉफेल की खरीद का रास्ता साफ करवा लिया।