दयाशंकर और मेधा पाटकर की ‘वेश्‍या’ में क्‍या फर्क है?

0
1015

गिरीश उपाध्‍याय

बहुत कठिन समय है भाई!  प्रेमचंद की कहानी कफन के पात्र घीसू और माधव आग में भूने हुए आलू फूंक कर न खाने के कारण अपना हलक जला बैठे थे। आज सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले लोग शब्‍दों को फूंक फूंक कर न बोलने के कारण अपना हलक जला रहे हैं। कई बार तो तालू से लेकर तिल्‍ली तक पूरा बदन, उस शब्‍द पर भी जला जा रहा है जो कहा ही नहीं गया।

आमिर खान ने जो बात करीब साल भर पहले बोली थी, उसका बिना किसी नाम का उल्‍लेख किए, जिक्र भर कर देने से देश के रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर इन दिनों सड़क से लेकर संसद तक में सफाई देते फिर रहे हैं। उत्‍तरप्रदेश में अपने प्रदेश उपाध्‍यक्ष के मुखारविंद से निकले एक शब्‍द के कारण, ऐन चुनाव से पहले, भारतीय जनता पार्टी की राजनीति झुलसी पड़ी है। उस जलन से पैदा हुए फफोले, राजनीतिक चतुराई के किसी भी बर्नाल से ठीक नहीं हो रहे।

एक दौर था जब राजनीतिक बयानों के केंद्र में कुत्‍ता था। इन दिनों वेश्‍या शब्‍द कुछ ज्‍यादा चलता नजर आ रहा है। बसपा नेता मायावती के संदर्भ में, उत्‍तरप्रदेश भाजपा के नेता दयाशंकर द्वारा इस शब्‍द के इस्‍तेमाल के बाद राजनीति में जो तूफान आया उससे पूरा देश वाकिफ है। वह मामला अभी ठंडा नहीं पड़ा है। इसी बीच इसी वेश्‍या शब्‍द को लेकर प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और नर्मदा बचाओ आंदोलन की सूत्रधार मेधा पाटकर झमेले में फंस गई हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार मेधा हाल ही में यह कह बैठीं कि ‘’नर्मदा जल को कंपनियों द्वारा ऐसे लूटा जा रहा है जैसे कोई वेश्‍या को लूटता है।‘’

बयान का विरोध करते हुए लोगों ने उनके खिलाफ एफआईआर की मांग की है। बवाल बढ़ता देख मेधा पाटकर ने माफी मांगते हुए कहा है कि उनकी बात तोड़ मरोड़ कर पेश की गई, लेकिन फिर भी किसी की भावना को ठेस पहुंची तो मैं माफी चाहती हूं।

व्‍यक्तिगत रूप से मैं भी मानता हूं कि मेधा पाटकर की वो मंशा कतई नहीं रही होगी, जिसे कुछ लोग मुद्दा बनाकर मामले को तूल दे रहे हैं। जिस नर्मदा को बचाने के लिए वे इतने सालों से संघर्ष कर रही हैं, उसके बारे में वे ऐसी निम्‍नस्‍तरीय धारणा रखती होंगी, यह मानना संभव नहीं है। और यदि वे अपने बयान पर खेद व्‍यक्‍त करते हुए उसके लिए माफी मांग रही हैं, तो उनकी माफी को स्‍वीकृति मिलनी चाहिए।

लेकिन… लेकिन… लेकिन… जिस समय मैं मेधा पाटकर की माफी को स्‍वीकृति देने की बात लिख रहा हूं, ठीक उसी समय उस बिरादरी से भी कुछ सवाल करना चाहता हूं जो मेधा जी के इर्द गिर्द रहती है। यह वो बिरादरी है जो राजनेताओं द्वारा दिए जाने वाले विवादस्‍पद बयानों पर, उनके माफी मांगने के बावजूद, उन्‍हें असहिष्‍णु और फॉसिस्‍ट और न जाने क्‍या क्‍या कहते हुए उनकी चमड़ी उधेड़ने को उतारू बैठी रहती है।

बोलते समय जबान का फिसल जाना आम बात है। सामान्‍य बोलचाल में हम जाने अनजाने कई मुहावरों, कहावतों, उपमाओं, रूपकों, बिंबों और अलंकारों आदि का उपयोग करते रहते हैं। ऐसे में किसी के अडि़यल रवैये को लेकर ‘कुत्‍ते की टेढ़ी दुम’ वाली कहावत का उल्‍लेख करने पर यदि यह आरोप लगा दिया जाए कि आपने तो फलां व्‍यक्ति को या फलां समुदाय को कुत्‍ता बता दिया है, तो जीना और बात करना ही मुश्किल हो जाएगा।

वास्‍तव में इस तरह की भाषा के उपयोग पर, ‘पार्टी’ बनकर प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करने के बजाय, बयान के गुण-दोष और व्‍यक्ति की पृष्‍ठभूमि देखकर फैसला किया जाना चाहिए। जो आज नहीं हो रहा है। जैसे ‘माथा देखकर तिलक लगाने’ वाली कहावत है, उसी तर्ज पर बयानों के मामले में हम गर्दन देखकर तलवार चला रहे हैं। गर्दन यदि विरोधी की है, तो वह हमारी तलवार की धार पर होगी और यदि किसी अपने की है, तो हम उस पर सिर्फ मूठ टिकाकर काम चलाना चाहेंगे। ऐसा तो नहीं चल सकता ना!

प्रतिप्रश्‍न करने वालों या ‘तर्क-कुतर्कवादियों’ को यह पूछने का पूरा हक है कि बसपा कार्यकर्ताओं की ‘देवी’ या जगत ‘बहनजी’ के खिलाफ परोक्ष रूप से ‘वेश्‍या’ शब्‍द के इस्‍तेमाल पर यदि दयाशंकर सिंह पर कानूनी कार्रवाई जायज है, तो मेधा पाटकर को, करोड़ों लोगों की आस्‍था और श्रद्धा की केंद्र मां नर्मदा के खिलाफ परोक्ष रूप से ही सही, इस शब्‍द का इस्‍तेमाल करने पर क्‍यों बख्‍श दिया जाना चाहिए। मेधा और उनके समर्थक यदि यह आड़ लें कि उन्‍होंने अपने बयान के लिए माफी मांग ली है, तो भई माफी तो दयाशंकर ने भी मांग ली थी। माफी तो भगवंत मान भी मांग चुके हैं। जब उनकी माफी स्‍वीकार्य नहीं है, तो मेधा की माफी में ऐसे कौन से हीरे जड़े हैं?

मैं जानता हूं कि ये बहुत चुभते हुए या जहर बुझे सवाल लग सकते हैं, लेकिन इन पर सोचना तो पड़ेगा ही। यह कैसे हो सकता है कि एक ही तरह के बयान पर हम किसी को ‘असहिष्‍णु भेडि़या’ बता दें और दूसरे को ‘बकरी’ बताकर क्षमादान दे दें। यदि आप चाहते हैं कि समाज के वास्‍तविक दोषियों को सजा मिले, तो पहला काम यह करें कि खुद वैसा ‘अपराध’ न करें और दूसरा यह कि किसी के भी बारे में ‘जघन्‍य अपराधी’ होने का फतवा अपराध की प्रकृति और व्‍यक्ति के इतिहास, भूगोल को जान लेने के बाद ही दें। ऐसा नहीं करेंगे तो दयाशंकर के साथ साथ आपको मेधा पाटकर को भी सूली पर लटकाना होगा। क्‍या आप इसके लिए तैयार हैं?

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here