प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पेरिस जलवायु समझौते पर भारत के हस्ताक्षर को बड़ी घटना बताया है। दो अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरुद्दीन ने राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा हस्ताक्षरित इस समझौते के अनुमोदन वाले दस्तावेज एक विशेष समारोह में संयुक्त राष्ट्र के करार विभाग को सौंपे। इस मौके पर संयुक्त राष्ट्र के शीर्ष अधिकारी एवं वरिष्ठ राजनयिक मौजूद थे।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने भारत के इस फैसले की तारीफ करते हुए ‘सभी भारतीयों को धन्यवाद‘दिया। उन्होंने कहा कि भारत द्वारा पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते का अनुमोदन करने के कदम ने, इस ऐतिहासिक समझौते को, इस वर्ष लागू करने की दिशा में विश्व को और आगे बढ़ा दिया है।
जिस समय विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक भारत, गांधी जयंती के दिन ‘ऐतिहासिक’ पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर कर रहा था, ठीक उसी समय मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के अलावा इंदौर और जबलपुर में बीज स्वराज अभियान के बैनर तले किसान, जीएम (जेनेटिकली मॉडीफाइड) सरसों को अनुमति दिए जाने के खिलाफ सड़क पर प्रदर्शन कर रहे थे।
संयुक्त राष्ट्र में भारत के समझौता दस्तावेज को सौंपे जाते समय कई अधिकारी और वरिष्ठ राजनयिक मौजूद थे और यहां हमारे मध्यप्रदेश में, दो अक्टूबर को जीएम सरसों को लेकर हुए विरोध प्रदर्शन से 12 दिन पहले 20 सितंबर को ‘बीज स्वराज अभियान’ के लोगों से मिलने के लिए न तो मुख्यमंत्री के पास समय था और न ही कृषि मंत्री के पास। पेरिस और भोपाल की ये घटनाएं बताती हैं कि जलवायु परिवर्तन से लेकर विकास की तमाम अवधारणाओं पर हमारा अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार कुछ और है और घरेलू मोर्चे पर कुछ और।
बीज स्वराज अभियान के संयोजक नीलेश देसाई कहते हैं कि जीएम सरसों को लेकर देश के किसान आंदोलित हैं। सरसों की इस किस्म से पर्यावरण के साथ-साथ किसान की सुरक्षा और उपभोक्ता की सेहत को भी खतरा है, लिहाजा इसे प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। देश के तमाम किसान संगठनों ने पिछले दिनों महाराष्ट्र के अकोला में जीएम सरसों को देश में लागू करने की सरकार की मंशा का विरोध करते हुए कहा कि इस कदम से देश की खेती बरबाद होगी।
जीएम सरसों से पहले देश बीटी कॉटन का उपयोग कर कपास उत्पादक किसानों को तबाह होते देख चुका है। खेतों में मरी पड़ी फसल को देखकर फांसी के फंदों पर झूल जाने वाले किसानों के चेहरे अभी भी कपास उत्पादक इलाके के लोगों की आंखों से ओझल नहीं हुए हैं। किसान एकता संगठन ने कहा भी है कि- “जीएम फसलों को लेकर देश की चाहत का भुगतान पंजाब, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र के किसान बीटी कॉटन से तबाह होकर कर चुके हैं। पिछले दो सालों में बीटी कॉटन के खेतों को उसी बॉलवार्म ने तबाह किया, जिसको रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय कंपनी मान्सेंटो, कपास की ‘बीटी किस्म’ यहां लेकर आई थी।” विशेषज्ञ कहते हैं कि इन कंपनियों ने तो ‘बीटी कपास’ से करोड़ों का मुनाफा कमाया, पर उसका खमियाजा देश के किसानों को भरना पड़ा। किसान संगठनों का कहना है कि जीएम-सरसों से उत्पादन बढ़ने के दावे भी पूरी तरह बकवास हैं, क्योंकि देश में पहले से लगभग पांच ऐसी किस्में मौजूद हैं जिनकी उत्पादकता इस जीएम-सरसों से बेहतर है।
‘किसान एकता’ संगठन के संयोजक और खाद्य एवं कृषि नीति विश्लेषक देविंदर शर्मा कहते हैं कि “तीस साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1986 में तिलहन टेक्नोलॉजी मिशन लाकर देश की तिलहन खेती में एक नई धारा को जन्म दिया, जो बाद में ‘पीली क्रांति’ कहलाई। इस क्रांति का असर ये हुआ कि 1993-94 में देश अपने खाने के तेल की आवश्यकता का 97 प्रतिशत हिस्सा खुद उत्पादित कर रहा था। फिर बाद के समय में इस क्रांति का पतन शुरू हुआ। भारत ने वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइज़ेशन के दबाव के आगे घुटने टेक दिए,आयात दरों को गिरा दिया और पीली क्रांति को जान-बूझकर मार डाला। इसी कारण किसान तिलहन की खेती से दूर भागने लगे।”
दरअसल पूरे विश्व में जीएम फसलों का भारी विरोध हो रहा है। किसान संगठनों का कहना है कि भारत को जीएम फसलों को बढ़ावा देना बंद करना होगा, वरना देश के किसानों के साथ-साथ निर्यात, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान पहुंचेगा। ये फसल किसानों की समस्या को और विकराल कर देगी। क्योंकि इस नई किस्म में एक खरपतवार नाशक के खिलाफ फसल की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की जो तकनीक इस्तेमाल हुई है, वो तकनीक इंसानी सेहत और पर्यावरण के लिए बहुत खतरनाक है। खेती पर बनी संसदीय कमेटी (2012) और सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई कमेटी (2013) दोनों ने ही इस तकनीक को भारत में लागू न करने की वकालत की थी। किसान पहले ही खरपतवार के बढ़ते प्रकोप से परेशान हैं, ऐसे में ये फसल किसानों को ज्यादा से ज्यादा खरपतवार नाशक के इस्तेमाल के लिए मजबूर करेगी।
जीएम सरसों का मामला मध्यप्रदेश के संदर्भ में इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि खासतौर से हमारे ग्वालियर चंबल इलाके में किसान बड़ी मात्रा में सरसों की फसल लेते हैं। सरसों की खेती ने ही, एक समय डकैत समस्या से ग्रस्त इस इलाके की सामाजिक और आर्थिक संरचना को बदल दिया है। ऐसे में मध्यप्रदेश सरकार को तो सोचना ही चाहिए कि वह जीएम सरसों को अनुमति क्यों दे?
हम पेरिस की तो सोचते हैं, पर कभी चंबल इलाके के अंबाह, पोरसा की भी चिंता कर लें।