सुप्रीम कोर्ट की इस मंशा का स्‍वागत होना चाहिए

दो दिन पहले आई एक खबर देश में मीडिया की दुनिया का रुख बदलने वाली हो सकती है। खबर के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट किसी भी मामले की पुलिस जांच के दौरान उसकी रिपोर्टिंग या मीडिया ट्रायल को लेकर गाइडलाइन तय कर सकता है। प्रधान न्यायाधीश जस्टिस जे.एस.खेहर ने संदिग्धों के मीडिया ट्रायल को लेकर चिंता जताई है। उन्होंने जो संकेत दिए है उनके अनुसार सुप्रीम कोर्ट ऐसी सीमा रेखा तय करेगा कि ट्रायल के लिए मामला लाए जाने से पहले, जांच के दौरान,पुलिस वाले कितनी बातें मीडिया को बता सकते हैं। कोर्ट ने महसूस किया है कि मीडिया रिपोर्ट्स से निष्पक्ष ट्रायल में दिक्कतें आने लगती हैं।

प्रस्तावित गाइडलाइंस में यह भी तय किया जाएगा कि क्या पुलिसकर्मी अभियुक्तों को कैमरे के सामने पेश कर सकते हैं या उनकी पहचान जाहिर की जा सकती है अथवा नहीं। जस्टिस खेहर और जस्टिस एन.वी.रमण की बेंच ने इस मामले में मध्यस्थ वकील गोपाल शंकरनारायण के इस सुझाव पर सहमति जताई कि मीडिया के लिए पुलिस ब्रीफिंग के भी कुछ कायदे तय होने चाहिए।

खुद प्रधान न्‍यायाधीश ने टिप्पणी की कि- ‘किसी भी शख्स की छवि बेहद अहम है। अगर गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में दिखाया जाता है, तो उसकी छवि हमेशा के लिए खराब हो सकती है, भले ही उसे बाद में बरी ही क्यों न कर दिया जाए। यह बेहद गंभीर मसला है।’

कोर्ट की यह टिप्‍पणी उसके सामने लंबित ऐसी कई याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान आई है, जिनमें किसी मुकदमे के मामले में पुलिस या जांच एजेंसियों से जुड़ी मीडिया रिपोर्टिंग को लेकर गाइडलाइंस जारी करने की मांग की गई है। ये याचिकाएं 1999 से पेंडिंग हैं।

हालांकि ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ पहले ही आदेश दे चुकी है कि अगर कोई अभियुक्त ट्रायल के दौरान छवि खराब करने वाले अभियान का सामना करता है, तो वह अपने मामले की रिपोर्टिंग को रुकवाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने के लिए स्वतंत्र होगा। जानेमाने वकील प्रशांत भूषण का कहना है कि कुछ मामलों में एफआईआर दर्ज होने से भी पहले संदिग्धों का नाम जारी करने से संबंधिम केस को लेकर पहले से ही कोई धारणा बन जाने का खतरा बना रहता है।

सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में लाया गया है कि मीडिया ऐसे मामलों को बहुत प्रचारित करता है और कई बार पूरी तरह से निर्दोष लोगों की छवि ऐसी खराब हो जाती है कि उसे दुरुस्त करना मुमकिन नहीं होता। ‘इससे न सिर्फ व्‍यक्ति की छवि को गंभीर नुकसान पहुंचता है, बल्कि ट्रायल पर भी असर होता है।’

दरअसल मीडिया की भूमिका इन दिनों जितनी चुनौतीपूर्ण हो रही है उतनी ही ज्‍यादा अराजकता वहां दिखाई देने लगी है। मनमाने और गैर जिम्‍मेदाराना ढंग से रिपोर्टिंग के सैकड़ों उदाहरण गिनाए जा सकते हैं। राजनीतिक मामलों में अर्थ का अनर्थ कर देना या अपने हिसाब से तथ्‍यों को तोड़ मरोड़ देना तो आम बात हो गई है। बेशर्मी की हद यह है कि नैतिकता और व्‍यावसायिक शुचिता को दरकिनार करते हुए गलती हो जाने पर माफी मांगने या गलती को सुधारने की जहमत तक नहीं उठाई जाती। मीडिया में ऐसी अकड़ और अहंकार का भाव आ गया है मानो उसने जो दिखाया या छापा है वही अंतिम सत्‍य है। यदि गलती की ओर ध्‍यान दिलाया भी जाए तो भी बजाय उसे दुरुस्‍त करने के कोशिश यही होती है कि जो गलत बात प्रकाशित या प्रसारित कर दी गई है, उसे ही येनकेन सत्‍य साबित किया जाए।

ऐसी रिपोर्टिंग में व्‍यावसायिक मापदंडों और नैतिकता का हनन अपराध से जुड़े मामलों में अधिक होता है। पुलिस अथवा जांच एजेंसियों द्वारा मामला हाथ में लेने से पहले ही ऐसा घनघोर मीडिया ट्रायल होता है कि पूछिये मत। और ट्रायल तो ट्रायल कई बार तो एक तरह से फतवा जारी करने के अंदाज में दोषी और निर्दोष का फैसला तक सुना दिया जाता है।

सबसे पहले खबर देने की जानलेवा जल्‍दी और अधिक से अधिक कवरेज के दबाव में घटना के ऐसे ऐसे एंगल बता दिए जाते हैं जो पेशगत ही नहीं बल्कि सामाजिक मर्यादाओं का भी खुले आम हनन करते हैं। हाल ही में भोपाल में लिव इन रिलेशन में रहने वाली एक युवती की हत्‍या की सनसनीखेज घटना की रिपोर्टिंग में पत्रकारीय मर्यादाओं के हनन पर कई लोगों ने आपत्ति जताई है। हद तो उस समय हो गई जब घटना की शिकार हुई युवती का शव लेने पश्चिम बंगाल से भोपाल आए उसके भाई की बाइट न मिलने पर मीडिया के कुछ लोगों ने उसके साथ कथित रूप से मारपीट तक कर डाली।

मीडिया के कार्यकलापों को लेकर जब भी कोई बात उठती है तो उसका यह कहते हुए विरोध शुरू हो जाता है कि अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर नकेल डाली जा रही है। मीडिया समुदाय का तर्क/कुतर्क या जोर इसी बात पर रहता है कि अपनी आचार संहिता वह स्‍वयं तय करेगा। लेकिन वास्‍तव में ऐसा कभी होता नहीं। इसलिए यदि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में कोई गाइडलाइन तय करने की बात सोच रहा है तो उस पर बिफरने, अकड़ने या विरोध करने के बजाय बेहतर होगा ठंडे दिमाग से सोचा जाए कि दूसरों की लक्ष्‍मण रेखाएं तय करने वाले खुद भी किसी सीमारेखा के भीतर क्‍यों न रहें।

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