हमारी प्राथमिकताएं क्‍या हैं, इस पर भी जरा सोचें

बड़ी अजीब स्थिति है। एक तरफ देश में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर लोग सड़कों पर हैं तो दूसरी ओर निर्भया कांड के दोषियों की फांसी कानूनी दांवपेंच में उलझी हुई है। जो लोग नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे हैं उनकी मांग है कि इस कानून को देश में लागू न किया जाए, बल्कि इसे वापस लिया जाए। दूसरी तरफ निर्भया कांड के दोषियों को जल्‍द से जल्‍द फांसी पर चढ़ा हुआ देखने वाले इस बात को लेकर कसमसा रहे हैं कि आखिर कानून कब तक ऐसे लोगों को तारीख पर तारीख की राहत देता रहेगा।

यानी एक ओर संसद द्वारा पास किया गया कानून लोग लागू होने देना नहीं चाहते तो दूसरी ओर वे यह भी चाहते हैं कि बलात्‍कार के दोषियों को जल्‍द से जल्‍द फांसी पर चढ़ा देने वाली कानूनी व्‍यवस्‍था बननी चाहिए। यानी हम चाहते हैं कि कानून का अनुपालन हमारी इच्‍छा और मंशा से हो। अब यह बहुत टेढ़ा सवाल है कि कानून या न्‍याय तंत्र को संविधान के अनुसार बनी व्‍यवस्‍था के तहत चलना चाहिए या फिर लोगों की मरजी के अनुसार।

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर हो रहे तमाम विरोध और हिंसा के बीच देश के गृह मंत्री अमित शाह ने साफ कर दिया है कि चाहे जितना विरोध होता रहे, सीएए लागू होकर रहेगा। इसे वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता। सरकार इसे लागू करके रहेगी। किसी भी मुख्यमंत्री को नागरिकता संशोधन कानून के लिए मना करने का कोई अधिकार नहीं है। जब संसद ने कानून बना दिया तो यह पूरे देश में लागू होगा।

उधर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में निर्भया कांड के एक दोषी की याचिका सुप्रीम कोर्ट की ओर से खारिज किए जाने के बाद चारों आरोपियों के डेथ वारंट जारी करने के मामले में दिल्‍ली की पटियाला हाउस कोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सात जनवरी तक सुनवाई आगे बढ़ाते हुए तिहाड़ जेल के अधिकारियों से कहा कि वे एक सप्‍ताह के भीतर दोषियों को नोटिस जारी करें। डेथ वारंट एक बार फिर टल जाने से निराश निर्भया की मां की टिप्‍पणी थी कि कोर्ट केवल दोषियों के अधिकारों को देख रहा है, हमारे नहीं। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि सुनवाई की अगली तारीख पर भी फैसला आ ही जाएगा।

दरअसल देश में महिलाओं की स्थिति को लेकर यह आम धारणा बनती जा रही है कि वे कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। महिलाएं मानती हैं कि न तो उन्‍हें समाज से सुरक्षा हासिल हो रही है और न कानून और न्‍याय प्रणाली से। उन्‍हें कदम कदम पर अपने अधिकारों के लिए लड़ना पड़ रहा है। उनका सबसे बड़ा दर्द यह है कि महिला अत्‍याचार के दोषियों को सजा मिलने में भी सालों साल लग रहे हैं, ऐसे में महिलाएं इस समाज और इस शासन व्‍यवस्‍था से क्‍या उम्‍मीद रखें।

महिलाओं में पनप रही ये भावनाएं निराधार भी नहीं हैं। जमीनी स्थितियां भी बता रही हैं कि भारत में महिलाओं के साथ भेदभाव बढ़ता ही जा रहा है। विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) की ओर से जारी ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स यानी स्‍त्री-पुरुष असमानता के मामले में भारत पिछले साल की तुलना में चार स्थान पिछड़कर 108 से 112वें नंबर पर पहुंच गया है।

153 देशों की इस सूची में खास बात यह है कि भारत ने महिलाओं के साथ असमानता के मामले में बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका से भी खराब प्रदर्शन किया है। ये तीनों देश इस रैंकिंग सूची में क्रमशः 50वें, 101वें और 102वें स्थान पर हैं। दक्षिण एशियाई देशों में सिर्फ मालदीव और पाकिस्तान ही भारत से पीछे हैं जो क्रमशः 123वें और 151वें स्थान पर हैं।

नागरिकता संशोधन कानून के अंतर्गत जिस बांग्‍लादेश का सबसे ज्‍यादा जिक्र हो रहा है और जहां से आने वाले शरणार्थियों को लेकर सबसे ज्‍यादा विवाद की स्थिति है उसी बांग्‍लादेश के बारे में यह रिपोर्ट कहती है कि उसने लग्जमबर्ग, अमेरिका और सिंगापुर से भी अच्छा प्रदर्शन किया है। विभिन्न पैमानों को आधार बनाते हुए रिपोर्ट का निष्‍कर्ष है कि दक्षिण एशिया को लैंगिक समानता का लक्ष्य हासिल करने में 71 वर्ष लगेंगे।

वैश्विक स्तर पर नियमित रोजगार के मामले में हर तीन पुरुष पर औसतन दो महिलाएं हैं। जबकि भारत में यह आंकड़ा हर तीन पुरुष पर एक महिला का है। भारत में सिर्फ एक ही जॉब है जिसमें पुरुषों के मुकाबले महिलाएं ज्यादा हैं, वह है- एचआर यानी मानव संसाधन। 153 देशों के अध्ययन में भारत ऐसा अकेला देश निकला जहां आर्थिक लैंगिक असमानता राजनीतिक लैंगिक असमानता से भी ज्‍यादा है। कॉरपोरेट की बात करें तो कंपनी बोर्डों में महज 13.8 फीसदी महिलाएं हैं।

अंतर्राष्‍ट्रीय रिपोर्ट से नीचे उतरकर यदि हम क्षेत्रीय आंकड़ों पर आएं तो वे भी महिलाओं की दुर्दशा ही बताने वाले हैं। मंगलवार को मध्‍यप्रदेश विधानसभा में गृहमंत्री बाला बच्‍चन ने प्रतिपक्ष के नेता गोपाल भार्गव के एक प्रश्‍न के उत्‍तर में बताया कि प्रदेश के बड़े शहरों में सबसे ज्यादा महिला अपराध ग्‍वालियर में हुए हैं। यहां 1 जनवरी 2019 से नवंबर तक 2366 केस दर्ज किए गए। जबकि भोपाल में 1545, इंदौर में 1042 और जबलपुर में 498 केस दर्ज हुए। ऐसे मामलों में सबसे ज्‍यादा चिंता की बात यह रहती है कि अपराधियों को सजा दिलाने यानी अभियोजन का काम बहुत धीमी गति से होता है।

ऐसे में यह सोचना लाजमी हो जाता है कि आखिर हमारी प्राथमिकता क्‍या होनी चाहिए। देश में आने वाले शरणार्थी या देश में रहने वाले लोग। दूसरे देशों से उत्‍पीड़न का शिकार होकर आने वाले लोगों की मानवीय मदद से किसी को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन क्‍या उससे भी ज्‍यादा जरूरी यह देखना नहीं है कि हम अपने ही देश में रहने वाले लोगों की, अपने स्‍थायी नागरिकों की मानवीय मदद कर पा रहे हैं या नहीं। उन्‍हें बुनियादी सुविधाएं मुहैया करा पा रहे हैं या नहीं, उनके साथ अपराध होने पर उन्‍हें समय पर न्‍याय मिल पा रहा है या नहीं।

यदि एक ही समय में देश में नागरिकता संशोधन कानून और निर्भया के दोषियों को सजा के मामले पर बहस चल रही हो तो हमारे लिए कौनसा मुद्दा ज्‍यादा गंभीर होना चाहिए? पर विडंबना यह है कि इनमें से एक जनता की अदालत में लंबित हो गया है और दूसरा कानूनी अदालत में…

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