राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत इसी सप्ताह लंबे प्रवास पर मध्यप्रदेश आ रहे हैं। 6 से 13 फरवरी तक होने वाली इस यात्रा के दौरान वैसे तो वे भोपाल, बैतूल, हरदा और उज्जैन जिलों में आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लेंगे। लेकिन इनमें से मीडिया की नजर सबसे ज्यादा जिस कार्यक्रम पर रहेगी वो बैतूल जिले में होने वाला ‘हिन्दू सम्मेलन’ है। संघ के कार्यकर्ता कई महीनों से इस कार्यक्रम की तैयारी कर रहे हैं।
समय आजकल कुछ ऐसा है कि जहां भी ‘हिन्दू’ शब्द आ जाए, वहां मीडिया कुछ ज्यादा ही चौकन्ना हो जाता है। उसमें कई सांप्रदायिक, जातिगत या वर्गगत एंगल ढूंढे जाने लगते हैं। जाहिर है भागवत के इस कार्यक्रम को लेकर भी ऐसे कई एंगल ढूंढे जाएंगे और यदि कोई मनचाहा एंगल नहीं मिला, तो कोशिश होगी कि किसी बयान या किसी बात को अपने हिसाब से तोड़ मरोड़कर उसे सनसनी बनाया जाए। जैसाकि पिछले दिनों जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में संघ के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य के आरक्षण संबंधी बयान को लेकर हुआ था।
विडंबना ही है कि देश के माहौल या हवा में कुछ ऐसा जहर घोल दिया गया है कि ‘हिन्दू’ या ‘राष्ट्र‘ शब्द या तो कुछ लोगों का विशेषाधिकार हो गए हैं या इनका इस्तेमाल कई लोगों की भौंहे तनवा देता है। इतिहास में हजारों बार इस्तेमाल हुए ये शब्द इन दिनों राजनीतिक और सामाजिक विभाजन का कारण बना दिए गए हैं। निश्चित रूप से इसके पीछे अतीत में हुई कई अप्रिय और अवांछनीय घटनाएं भी बड़ा कारण रही हैं। लेकिन आज राजनीतिक एंगल से अलग रहकर इस मामले में एक देश के रूप में सोचने की जरूरत है।
मोहन भागवत जिस बैतूल जिले में आ रहे हैं वह मध्यप्रदेश का एक आदिवासी जिला है। वहां पर संघ से जुड़ी संस्था विद्या भारती ने शिक्षा और स्वावलंबन पर आधारित, गांवों के विकास के एक मॉडल को मूर्तरूप दिया है। संघ से जुड़े लोग इस क्षेत्र के आदिवासियों के बीच दो-ढाई दशक से काम कर रहे हैं और उनका दावा है कि आज वहां कई गांव आदर्श गांव की स्थिति में आ गए हैं। सरसंघचालक का दौरा उनके इस काम को सराहना और मान्यता प्रदान करना है।
लेकिन इलाके में मोहन भागवत की यात्रा को लेकर विवाद खड़ा करने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। ‘समस्त आदिवासी समाज संगठन’ नाम की एक संस्था के हवाले से कहा गया कि बैतूल का सम्मेलन आदिवासियों को हिंदू बनाने की कोशिश है। जबकि हिंदू सम्मेलन के सचिव बुधसिंह ठाकुर का कहना है कि सम्मेलन के बारे में भ्रामक प्रचार करके आदिवासियों को बरगलाया जा रहा है। सम्मेलन में न तो धर्म परिवर्तन पर बात होनी है, न ही आरक्षण जैसे विषयों पर।
बैतूल वैसे संवेदनशील इलाका है, क्योंकि यहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अलावा ईसाई मिशनरियों का भी काफी काम है। संघ और मिशनरियों से जुड़ी कई संस्थाएं यहां वर्षों से आदिवासियों के बीच सक्रिय हैं। ऐसे में सरसंघचालक की यात्रा संघ समर्थित संस्थाओं के काम को और अधिक मजबूती और महत्व प्रदान करेगी।
पर इस सबके बीच बड़ा सवाल यह है कि आखिर इस देश और यहीं की मिट्टी में पले बढ़े आदिवासियों के मन में खुद के हिन्दू न होने का विचार आ ही कैसे रहा है? आखिर वे कौन से कारण और कौन सी ताकतें हैं जो इस देश के मूल निवासियों को यहां के धर्म और संस्कृति के खिलाफ भड़का रही हैं। हर देश की अपनी संस्कृति और परंपराएं होती हैं। क्या ऐसे विरोध के बहाने हम अपनी ही सभ्यता और संस्कृति को नकारने पर नहीं तुले हैं?
इस बात पर सोचना ही होगा कि आदिवासियों को भड़का कर या उन्हें देश के धर्म और संस्कृति से अलग करके आखिर हम हासिल क्या करना चाहते हैं? यह तो देश को बिखराव की ओर ले जाने वाला ऐसा कदम है जिसका विरोध और जिसे रोकना दोनों ही जरूरी हैं। यह समय ‘एक भारत और समवेत भारतवासी’ की भावना जगाने का है। लेकिन कई लोग आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों आदि को विभिन्न कारणों से समाज व देश से अलग करने की साजिशों में लगे हैं।
‘धर्म’ शब्द कोई गाली नहीं, बल्कि भारत जैसे देश में अनेकता में एकता का आधार है। स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि धर्म के बिना भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। और भारत को यदि अपना धर्म बताना हो तो क्या वह इस्लाम या ईसाइयत को अपना धर्म बता सकता है? ठीक है कि कई ऐतिहासिक कारणों से हमारे समाज ने इस्लाम या ईसाईयत को मानने वालों को भी अपने में समाहित कर लिया है। लेकिन वे इस देश और यहां की मिट्टी की स्वाभाविक पहचान नहीं हैं। यहां की मिट्टी की महक हमारे आदिवासियों या वनवासियों में है। यदि हम उन्हें देश के धर्म से अलग करने या खिलाफ ले जाने वाली किसी गतिविधि का समर्थन करेंगे, तो अंतत: देश और अपने समाज को तोड़ने का ही काम करेंगे।
इस मामले का दूसरा पहलू समाज के बीच रहकर काम करने और बुनियादी गतिविधियां चलाने का है। हो सकता है कि शिक्षा, स्वास्थ्य या स्वरोजगार आदि से जुड़ी गतिविधियां चलाने वाला कोई भी संगठन आपके विचारों के माफिक न हो या आपके विचारों के ठीक विपरीत हो। लेकिन विचार का विरोध विचार से हो, उसके लिए समाज को जाग्रत करने, लोगों को स्वावलंबी बनाने या उनकी मदद करने वाली किसी गतिविधि को खारिज करना या उसका विरोध करना, अंतत: समाज कार्य के लिए आगे आने वालों को ही हतोत्साहित करता है। ऐसे समय जब सरकारें अपना दायित्व ठीक से नहीं निभा रहीं, समाज के दायित्वबोध को खत्म करना बहुत घातक होगा।