यह विरोध के तरीकों पर विरोध जताने का वक्त है…

देश में पिछले कई दिनों से देखने में आ रहे विरोध के बदलते तौर तरीके चिंता में डालने वाले हैं। ताजा मामला अपनी फसल के सही दाम न मिलने पर किसानों द्वारा फसलों के साथ साथ कई लीटर दूध को भी सड़क पर बहा देने का है। शुक्रवार को मैंने देखा कि अखबारों में किसान विरोध की इन घटनाओं के फोटो प्रमुखता से छपने और सोशल मीडिया पर इसकी जानकारी वायरल होने के बाद इस मुद्दे को लेकर अच्‍छी खासी बहस चल पड़ी है।

इन दिनों किसानों के साथ जो बीत रही है वह किसी से छिपा नहीं है। किसान लगातार अपनी फसल और उसके मूल्‍य को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। फसल बरबाद होने पर तो किसान रोता ही है लेकिन अब बंपर फसल आने पर भी उसे रोना पड़ रहा है। बाजार की असंतुलित व्‍यवस्‍था ने किसान को इस हालत में ला दिया है कि उसके लिए दोनों तरफ खाइयां ही बची हैं। वह चाहे इधर गिरे या उधर उसका मरना तय है।

ऐसा नहीं है कि लोग किसानों की तकलीफ को नहीं समझ रहे। दिक्‍कत यदि है तो सिर्फ इतनी कि जिन्‍हें समझना चाहिए वे ही इसे समझने को तैयार नहीं है या फिर जानकर भी अनजान बने हुए हैं। सरकारें किसानों के लिए या तो नारे गढ़ रही हैं या योजनाएं। वैसे यह काम देश आजाद होने के बाद से ही चला आ रहा है। पहली हरित क्रांति हो जाने के बाद, दूसरी हरित क्रांति की बात होने लगी है, लेकिन अनाज भंडारों को हरा भरा बनाने वाला किसान लगातार पीला पड़ता जा रहा है।

इसीके साथ एक तथ्‍य यह भी है कि दो चार सालों से किसानों ने अपने विरोध का जो तरीका अपनाया है, उस पर भी अब सवाल उठने लगे हैं। मध्‍यप्रदेश से लेकर महाराष्‍ट्र तक किसानों की ओर से किए गए ताजा विरोध प्रदर्शन के दौरान सब्जियां और दूध सड़कों पर फेंक देने की घटना पर लोगों ने अच्‍छी प्रतिक्रिया नहीं दी है। सवाल यह भी उठाया गया है कि जो किसान अपना खून पसीना बहाकर फसल उगाता है या फिर परिवार के सदस्‍य की तरह मवेशी को पालकर बड़ा करता है, वह कैसे अपनी फसल और दूध को यूं सड़कों पर बरबाद कर सकता है।

सोशल मीडिया पर कई लोगों ने यह सवाल भी उठाया है कि क्‍या यह बेहतर नहीं होता कि किसान विरोध स्‍वरूप यही दूध जरूरतमंद बच्‍चों में बांट देते या वे सब्जियां उन गरीबों को दे दी जातीं जो इन्‍हें खरीदने के बारे में सोच भी नहीं सकते। जिनके बच्‍चे इनका स्‍वाद चखने को तरस जाते हैं। इन घटनाओं पर यह टिप्‍पणी भी आई है कि ऐसा करने वाले किसान तो नहीं हो सकते।

मुझे लगता है देश में इन दिनों मसला चाहे किसानों का हो या किसी और वर्ग का। विरोध जताने के तौर तरीके ज्‍यादा से ज्‍यादा हिंसक, आत्‍मघाती या राष्‍ट्रघाती होते जा रहे हैं। फसल का उचित मूल्‍य न मिलने पर किसान सब्जियों को सड़कों पर रौंदने के लिए डाल देते हैं, दूध उत्‍पादक अपना दूध नालियों में बहा देते हैं, किसी सरकारी आदेश का विरोध करने के लिए कुछ लोग सरेआम सड़क पर एक बछड़े को काट डालते हैं, शिक्षा परिसरों में देश की एकता और अखंडता को नुकसान पहुंचाने वाले नारे लगाए जाते हैं।

विरोध के नाम पर या तो खुद जान देने का उपक्रम हो रहा है या दूसरों की जान लेने का। यदि आप गोहत्‍या के विरोध में हैं तो बिना जाने समझे किसी को भी पीटपीटकर मार डाल रहे हैं। दिल्‍ली में अपनी समस्‍याओं पर ध्‍यान आकर्षित कराने के लिए तमिलनाडु से आए किसान स्‍वमूत्र पान के अलावा अपने ही मल के सेवन की बात करने लगते हैं।

ये सारे तौर तरीके विरोध की पराकष्‍ठा हैं। ऐसा लगता है कि विरोध का यह रास्‍ता, विरोध प्रदर्शित करने के लिए कम और उसका प्रचार अधिक से अधिक हो इसके लिए ज्‍यादा अपनाया जा रहा है। कैसी विडंबना है कि जिस भारत में गांधी ने पूरी दुनिया को अहिंसक विरोध के लिए सत्‍याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन जैसे तौर तरीके सिखाए वहां आज अपनी बात रखने के लिए इस तरह की हिंसा को हथियार बनाया जा रहा है या बनाना पड़ रहा है।

कहने को संचार के संसाधनों ने अपनी बात सरकार, प्रशासन या नीति निर्धारकों, निर्णयकर्ताओं तक पहुंचाने के लिए कई मंच उपलब्‍ध कराए हैं और सोशल मीडिया जैसे प्‍लेटफार्म्‍स का उनके लिए बखूबी उपयोग भी हो रहा है, लेकिन इसके बावजूद सड़कों पर ऐसे हिंसा एवं उत्‍तेजना से भरे प्रदर्शन सोचने पर मजबूर करते हैं कि आखिर चीजें किस दिशा में जा रही हैं।

इसी के बीच एक मसला किसी भी मुद्दे पर अपनी आपत्ति या असहमति प्रकट करने संबंधी व्‍यवस्‍था का भी है। देश में ऐसा कोई मैकेनिज्‍म नहीं है कि आप सरकार के किसी फैसले, नीति अथवा योजना के लिए वैचारिक विरोध अथवा असहमति प्रकट कर सकें। यदि आपको इस तरह का कोई विरोध प्रकट करना है और उसके लिए आप सड़क पर उतरकर कोई प्रदर्शन करते हैं तो प्रशासन उससे कानून व्‍यवस्‍था की स्थिति की तरह ही निपटता है और आपको आपराधिक कानूनों यानी आईपीसी या सीआरपीसी के तहत अपराधी बनाया जाता है।

यानी, कोई वैचारिक असहमति या विरोध प्रकट करने पर भी सरकार की नजर में आप अपराधी ही हैं। यह स्थिति भी कई बार विरोध की उग्रता को जन्‍म देती है, लिहाजा इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए। क्‍योंकि किसी फैसले या विचार से असहमति जताना लोकतांत्रिक अधिकार है, कोई अपराध नहीं। यदि आप उसे भी अपराध की श्रेणी में डालने लगेंगे तो चीजें बनेंगी कम और बिगड़ेंगी ज्‍यादा… आज यही हो रहा है…

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