महिला या बालिका विमर्श का एक और पहलू भी है जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। महिलाओं, खासतौर से लड़कियों के मामले में बहुत सारा गुड़गोबर कथित स्त्रीवादियों और ‘आजादी’ के हिमायतियों ने भी किया है। मैंने इस बात को पहले भी लिखा था कि कोई मां-बाप अथवा परिजन अपनी बेटी या घर की किसी अन्य लड़की को,‘सुरक्षा चिंताओं’ के लिहाज से यदि कुछ कहते हैं तो तत्काल उसे लड़कियों या महिलाओं की आजादी खत्म करने का फतवा मान लिया जाता है।
दरअसल घरवाले यदि कुछ कह रहे हैं तो वह परिवार की बच्ची की हिफाजत को लेकर कह रहे होंगे, यह सोचने के बजाय मामले को हमेशा विवादस्पद बनाने की कोशिश होती है। बेटियों के प्रति मां-बाप की चिंताओं को अत्याचार या शोषण की परिभाषा में रख देने का दुष्परिणाम यह हो रहा है कि बेटियों पर दोहरी मार पड़ रही है।
ऐसे गलत निष्कर्षों के प्रभाव में आकर वे एक तरफ तो कथित आजादी के नाम पर खुद को खतरे में डाल रही हैं,दूसरी तरफ अपने परिवार के लोगों से भी कटती जा रही हैं। वैसे शायद ही कोई घर अपवादस्वरूप होता होगा,वरना तो घरवाले लड़की क्या लड़कों को भी आने जाने पर टोकते रहते हैं। हम अपने आसपास ही नजर घुमाकर देख लें, आखिर ऐसे कितने परिवार हमें मिलेंगे जो अपने लड़कों को देर रात तक आवारागर्दी करने पर कुछ न कहते हों।
यदि आप आंदोलनकारी, आजादीवादी या मोमबत्तीप्रदर्शक बनकर सोचने के बजाय थोड़ा ठंडे दिमाग से सोचें तो जरा बताइये कि लड़की को यह सलाह देने में कौनसा अत्याचार, शोषण या उसकी आजादी का हनन है कि बेटी,देर रात को सुनसान इलाके में जाने से बचना… या यदि कोई इलाका अपराध के लिए चिह्नित है तो उसे वहां न जाने की सलाह देकर मां बाप कौनसा गुनाह कर रहे हैं। यही बात कई तरह के आचार व्यवहार को लेकर दी जाने वाली सलाहों/सुझावों पर भी लागू होती है।
मैंने इस श्रृंखला के पिछले हिस्सों में समाज की जागरूकता और भागीदारी की बात की थी। उसी सिलसिले में यहां मैं अपने एक परिचित परिवार का अनुभव शेयर करना चाहता हूं। कई दिनों से उनकी बस्ती में घर के बाहर एक लड़की अपना दुपहिया वाहन खड़ा करके चली जाती थी। शायद उसे लगता होगा कि वहां उसका वाहन सुरक्षित रहेगा। घर की महिला ने उस बच्ची को कई दिनों तक वॉच किया।
पाया गया कि उस बच्ची के वाहन खड़ा करके इधर-उधर चहलकदमी करने के दौरान ही कुछ लड़के, जो कई बार मोटरसायकल पर होते थे तो कई बार किसी कार में, वहां आते और वह लड़की उनके साथ चली जाती। उनके वाहनों में नशे का सामान मौजूद होता। ऐसा इसलिए कि जब वे देर रात उस लड़की को छोड़ने आते तो कई बार घर के सामने ही शराब या बीयर की बोतलें फेंक जाते।
काफी दिनों तक यह सबकुछ देखने के बाद, घर की महिला ने एक दिन उस लड़की को टोका और पूछा कि बेटी तुम कौन हो, कहां से आती हो और इन लड़कों के साथ कहां जाती हो? क्या इन लड़कों से दोस्ती या इनके साथ जाने की बात तुम्हारे घरवालों को पता है? लड़की ने बहुत रुखाई से महिला की तरफ देखा और जवाब दिया-‘’आंटी आप अपना काम करिये… आपको क्या लेना देना है…’’
उस दिन के बाद, उस लड़की ने उस घर के सामने गाड़ी खड़ी करने के बजाय बस्ती के दूसरे छोर पर किसी दूसरे घर के सामने गाड़ी खड़ी करना शुरू कर दिया। कुछ दिनों बाद देखा गया कि कुछ और लड़कियां जो संभ्रांत घरों की लगती थीं वहां जुटने लगीं और कहीं दूसरी जगह जाने के बजाय वे लोग सड़क के पार बने उस पार्क में जाने लगे, जो अकसर सुनसान रहता है। बताया गया कि उस पार्क में जाकर लड़के कई तरह का नशा करते हैं।
अब कोई बताए कि ऐसी घटनाएं देखने सुनने के बाद भी क्या किसी को चुप रहना चाहिए? क्या कोई चुप रह सकता है? क्या ऐसी जिंदा मक्खी निगली जा सकती है? ऐसे मामलों में यदि कोई ऊंच-नीच हो जाए, कोई अपराध कर बैठे तो उसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए? यही होगा कि घटना हो जाने के बाद हल्ला मचेगा कि पुलिस कुछ नहीं करती, सरकार कुछ नहीं करती…
पर कोई यह देखने नहीं जाएगा कि यदि अपराध हुआ है तो उसके पीछे किसकी क्या भूमिका रही है? हाईवे की सड़कों पर अकसर एक साइनबोर्ड देखने को मिलता है, जिस पर लिखा होता है- ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’…क्या यह स्लोगन लड़कियों के मामले में हमारे सामाजिक परिदृश्य पर लागू नहीं होता?
सही है कि हरेक को अपने हिसाब से जीने और व्यवहार करने का अधिकार है। लड़कियां गुलाम या पिंजरे की पंछी बनाकर रखी जाएं यह कतई स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि यह व्यक्ति की निजता और उसकी आजादी से जुड़ा मामला है। लेकिन इनके मायने तभी हैं जब समाज का ढांचा भी उसी आदर्श स्थिति में हो। हम कूड़े के ढेर से इत्र की सुगंध की अपेक्षा करते हुए, खुशबू से सराबोर हो जाने की उम्मीद पाल लेंगे तो अपने साथ ज्यादती ही कर रहे होंगे।
ऐसे में विकल्प यही है कि हम या तो उस कूड़े के ढेर को खत्म करें या फिर उससे बचकर निकलें या दूर रहें। बच्चियों को अपराध से बचाने और उन पर होने वाले अत्याचार और शोषण को रोकने के लिए जरूरी है कि हम उन्हें पढ़ाई लिखाई के साथ साथ हर परिस्थिति से निपटने के लिए सक्षम बनाएं। हर उम्र की अपनी कमजोरी और आकर्षण होते हैं, यह सहज मानवीय स्वभाव है और इसे हम कतई खत्म नहीं कर सकते।
हमारे बस में यही है कि बच्चों में खुद का भला-बुरा सोचने लायक विवेक जाग्रत करें। सड़क पर कीचड़ या फिसलन हो तो वहां से निकलते समय सावधानी बरतना बहुत जरूरी होता है। ऐसे रास्तों पर फिसलकर वे ही लोग गिरते हैं जो स्वयं को संभालने या संतुलन बनाने में सक्षम नहीं होते। जो लोग संभलने या संतुलन बना लेने का हुनर जानते हैं, वे खुद को भी टूटने-फूटने से बचाते हैं और दाग लगने से अपने कपड़ों को भी…
कल बात करेंगे बच्चों के पोलिटिकल एजेंडे पर…