गिरीश उपाध्याय
मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मध्यप्रदेश को इस बात पर खुश होना चाहिए अथवा संजीदा कि, हम भी कुछ अन्य राज्यों की तरह ‘गोरक्षा की राष्ट्रीय मुख्यधारा’ में शामिल हो गए हैं। हमारे मंदसौर जिले के ‘गोरक्षकों’ ने हाल ही में दो मुस्लिम महिलाओं की धुनाई कर उन्हें ‘गोरक्षा’ का ऐसा सबक सिखाया है, जिसे वे जिंदगी भर नहीं भूल पाएंगी। प्रसन्नता का विषय यह भी है कि लाड़लियों के इस प्रदेश में, इस बार ‘गोरक्षा अभियान’ की अगुवाई महिलाओं ने की। यानी बाकी राज्यों की तुलना में हम अधिक प्रगतिशील हैं। हमारे यहां सिर्फ पुरुष ही गोरक्षा के अनुष्ठान में नहीं लगे हैं, वरन हमारी गो-वीरांगनाएं भी राष्ट्रहित से जुड़े इस अभियान में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रही हैं।
एक तरफ गोरक्षकों की यह वीरगाथा है, तो दूसरी तरफ बहुत ही दुखद प्रसंग के रूप में मध्यप्रदेश सरकार का यह गो-द्रोही बयान आया है कि जिस मांस की कथित तस्करी के आरोप में उन महिलाओं को सबक सिखाया गया, वो मांस गाय का नही बल्कि भैंसे का था। बहुत से लोगों को सरकार के इस बयान में साजिश की अथवा गोवंश के हत्यारों से मिलीभगत की बू नजर आ रही है। अरे, जब गोरक्षकों ने पता कर लिया था कि, वे महिलाएं गोमांस ही ले जा रही हैं, तो सरकार या गृहमंत्री कौन होते हैं उस मांस को भैंसे का मांस बताने वाले। क्या पुलिस, प्रशासन, गृहमंत्री और खुद सरकार हजरत, अपने आपको गोरक्षकों से ऊपर समझने लगे हैं? क्या उन्हें गोरक्षकों के कोप का जरा भी डर नहीं रहा? क्या सरकार को नहीं पता कि वह गोरक्षकों के कारण ही सत्ता में टिकी हुई है। वे जिस दिन चाहेंगे इस सरकार की चमड़ी उधेड़ देंगे, ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने ऊना में गाय की खाल उतारने वाले दलितों की उधेड़ी थी। ये राजनेता अब तक अपनी पीठ को केवल ‘राजनीतिक चाकुओं’ से ही सुरक्षित रखना सीखे हैं, लेकिन उन्हें पता होना चाहिए कि, अब उन्हें अपनी पीठ को राजनीतिक चाकुओं से कम और गोरक्षकों के चाबुकों से बचाने की जरूरत ज्यादा है।
बेचारे गोरक्षक कितनी विनम्रता से देश के लोगों को समझाने में लगे हैं कि गाय हमारी माता है, उसके साथ कोई भी खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं होगा। लेकिन इस देश में लोग शायद विनम्रता की भाषा समझना ही भूल गए हैं। ये लोग ‘लातों के भूत’ हो गए हैं, या यूं कहें कि ये सबके सब चाबुकों, हंटरों, बेल्टों, लाठियों, चाकुओं के भूत हो गए हैं। जब तक इनका इस्तेमाल न हो, लोगों को समझ में ही नहीं आता कि गो-माता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। भले ही गो माता दिवंगत हो गई हों, लेकिन आप इतने खुद मुख्तार कब से हो गए कि उनकी खाल उतारने से पहले गोरक्षकों की इजाजत तक नहीं लेंगे, उनसे पूछेंगे तक नहीं… और यदि आपने ऐसा ‘गुनाह’ किया है तो फिर तैयार रहिए अपनी खाल उधड़वाने के लिए…
सरकारों को भी इस बात को गंभीरता से समझना होगा कि गोरक्षा का मामला अब राष्ट्रीय सीमाओं को पार कर अंतर्राष्ट्रीय हो गया है। गोरक्षा गतिविधियों से जुड़ी खबरें अब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में भी जगह पाने लगी हैं, इसलिए सरकार को गोरक्षकों का एक स्थायी कैडर बनाने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। इसके लिए ‘काऊ सिक्योरिटी फोर्स’ जैसी कोई अर्धसैनिक इकाई गठित की जा सकती है। इसके दो फायदे होंगे। एक तो गोरक्षा के काम को गति दी जा सकेगी और दूसरे जो लोग भी गोरक्षकों को असामाजिक या गुंडा तत्व कहते हैं उनके मुंह बंद किए जा सकेंगे।
कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी यह बहुत जरूरी है कि हम गो-रक्षकों और गो-गुंडों में फर्क स्पष्ट करें। यह समय की मांग है। जो लोग रात रात भर जागकर, गो तस्करों को पकड़ने, उनकी धुनाई करने और उन्हें यथोचित सबक सिखाने का काम कर रहे हैं, उनके श्रम और समर्पण का सम्मान होना ही चाहिए। जो लोग इतने अत्याधुनिक उपकरणों और सूचना तंत्र से लैस हैं कि मीलों दूर से पता लगा लेते हैं कि अमुक वाहन में या अमुक व्यक्ति के पास गोमांस है, उनका कुछ तो सकारात्मक उपयोग इस तंत्र को करना ही चाहिए।
बस इसमें एक ही दिक्कत आ सकती है। गोरक्षक तो उड़ती चिडि़या की तरह गोकशी करने वालों और गोमांस के तस्करों को पहचान लेंगे, लेकिन सरकार या समाज कैसे पहचानेगा कि कौन गो-रक्षक है और कौन गो-गुंडा। गो-रक्षा के नाम पर जो गो-गुंडागर्दी करने में लगे हैं, गाय के रूप में जिन्हें आतंक फैलाने या चौथ वसूली का बहुत बढि़या जरिया मिल गया है, उन पर लगाम कैसे कसी जाएगी?
आपको यदि मेरी ये सारी बातें मजाक लग रही हों तो चलिए मैं कुछ संजीदा बात कर लेता हूं। क्या आपको नहीं लगता कि गो-रक्षक और गो-गुंडों में फर्क करने के लिए उन संगठनों को ही आगे आना चाहिए जो गोरक्षा को अपना दायित्व मानते हैं? क्योंकि यदि ऐसा नहीं हो पाया तो ‘गोरक्षकों’ की ये टोलियां किसी सार्थक समूह के तौर पर नहीं, बल्कि आतंक फैलाने वाले गुंडों के गिरोह के रूप में ही पहचानी जाएंगी। और यदि इस अभियान के पीछे आपका कोई राजनीतिक उद्देश्य भी है, जो कि होगा ही, तो वह भी सफल नहीं हो पाएगा। क्योंकि जो घटनाएं हो रही हैं वे समाज में गोरक्षकों की छवि ‘रक्षक’ की नहीं ‘भक्षक’ की गढ़ रही हैं।