आकाश शुक्ला
हमारी वर्तमान पुलिस व्यवस्था शासन कर रही राजनीतिक पार्टियों की मंशा के अनुरूप कार्य करती है, इस कारण इसके दुरुपयोग की संभावनाएं ज्यादा है। और यही पुलिस कस्टडी में हो रहे अपराधों का कारण भी है। पुलिस का कार्य अपराधियों को देश के कानून के अनुरूप नियंत्रित करना और कानून व्यवस्था बनाना है। परंतु वर्तमान में पुलिस-राजनीतिक गठजोड़ के चलते सत्ताधारी पार्टियों की स्थिति बड़े भाई की और पुलिस की छोटे भाई जैसी हो गई है। पुलिस का स्वतंत्र होना उसकी निष्पक्षता के लिए बहुत आवश्यक है।
1996 में उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर पुलिस सुधार की मांग की थी। उन्होंने अपील की थी कि कोर्ट केंद्र व राज्यों को यह निर्देश दे कि वे अपने-अपने यहां पुलिस की गुणवत्ता में सुधार करें और जड़ हो चुकी व्यवस्था को अच्छे प्रदर्शन करने लायक बनाएं।
प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ मामले में उच्चत्तम न्यायालय के निर्देश के मुख्य बिंदु, जो पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए दिए गए थे इस प्रकार हैं—
– प्रत्येक राज्य में एक ‘राज्य सुरक्षा आयोग’का गठन किया जाए, जिसका कार्य पुलिस के कामकाज के लिए नीतियां बनाना और पुलिस के निवारक कार्यों और सेवा उन्मुख कार्यों के प्रदर्शन के लिए निर्देश देना, पुलिस प्रदर्शन का मूल्यांकन करना, तथा राज्य सरकारों द्वारा पुलिस पर अनुचित दबाव से मुक्ति को सुनिश्चित करना होगा।
– प्रत्येक राज्य में एक ‘पुलिस स्थापना बोर्ड’ का गठन किया जाए जो उप पुलिस-अधीक्षक के पद से नीचे के अधिकारियों के लिए पोस्टिंग, स्थानांतरण और पदोन्नति का फैसला करेगा, तथा उपरोक्त विषयों पर उच्च रैंक के अधिकारियों के लिए राज्य सरकार को सिफारिशें प्रदान करेगा। राज्य से भी अपेक्षा की जाएगी कि वह इन सिफारिशों को उचित भार दे और इसे स्वीकार करें।
– राज्य तथा जिला स्तर पर ‘पुलिस शिकायत प्राधिकरण’ का गठन, किया जाये, जो पुलिसकर्मियों द्वारा गंभीर कदाचार और सत्ता के दुरुपयोग संबंधी आरोपों की जांच करेगा। जिला स्तरीय प्राधिकरण का नेतृत्व एक सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश कर सकता है जबकि राज्य स्तरीय प्राधिकरण का नेतृत्व उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश कर सकता है।
राज्य स्तरीय शिकायत प्राधिकरण केवल पुलिसकर्मियों द्वारा गंभीर कदाचार के आरोपों का संज्ञान लेगा, इसमें मौत, चोट या पुलिस हिरासत में बलात्कार जैसी घटनाओं की शिकायत शामिल होगी। जिला स्तरीय शिकायत प्राधिकरण जबरन वसूली, जमीन-मकान हड़पने या किसी भी घटना में शामिल करने के आरोपों की पूछताछ कर सकता है।
– राज्य बलों में पुलिस महानिदेशक तथा अन्य प्रमुख पुलिस अधिकारियों के लिए कम से कम दो साल का न्यूनतम कार्यकाल प्रदान किया जाए।
– सेवा-अवधि, अच्छे रिकॉर्ड और अनुभव के आधार पर संघ लोक सेवा आयोग द्वारा पदोन्नति के लिए सूचीबद्ध किये गए तीन वरिष्ठतम अधिकारियों में से राज्य पुलिस के महानिदेशक की नियुक्ति सुनिश्चित की जाये।
– जांच करने वाली पुलिस तथा कानून और व्यवस्था संबंधी पुलिस को अलग किया जाए ताकि त्वरित जांच, बेहतर विशेषज्ञता और बेहतर तालमेल सुनिश्चित हो सके।
– केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के प्रमुख के रूप में चयन और नियुक्ति के लिए एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग का गठन किया जाए। जिसका कार्यकाल 2 वर्षों का होगा।
वर्तमान में विकास दुबे का संदिग्ध परिस्थितियों में एनकाउंटर होने पर (हालांकि हमारे समाज को विकास दुबे जैसे अपराधियों से कोई सहानुभूति नहीं रहती) यह बात फिर से उठी है कि न्यायिक प्रक्रिया का पालन किए बिना अपराधी को पुलिस द्वारा दंड देने के लिए एनकाउंटर करने की प्रवृत्ति खतरनाक है। यहां विकास दुबे की मौत इतना महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है जितना पुलिस द्वारा कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं करना और जनता का ऐसी गतिविधियों को समर्थन देना। क्योंकि यदि हमारी पुलिस और जनता दोनों के मन में न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान नहीं रहेगा और पुलिस ही प्रकरण बनाएगी, पुलिस ही सुनवाई करेगी और पुलिस ही सजा देगी तो न्यायिक प्रक्रिया का महत्व और मतलब दोनों खत्म हो जाएगा जिसके परिणाम दीर्घकाल में जनता की दुर्गति के रूप में सामने आएंगे और पुलिस निरंकुश हो जाएगी।
इसका तात्कालिक और सबसे अच्छा उदाहरण तमिलनाडु के तूतीकोरन में पी.जयराज व बेनिक्स की मौत का मामला है-
59 वर्षीय पी. जयराज और उनके 31 वर्षीय बेटे बेनिक्स को लॉकडाउन नियमों का उल्लंघन कर तय समय से अधिक वक्त तक अपनी मोबाइल की दुकान खोलने के लिए 19 जून को गिरफ्तार किया गया था। दो दिन बाद एक अस्पताल में उनकी मौत हो गई थी। जयराज और बेनिक्स के परिजनों ने हिरासत में पुलिस द्वारा उनके साथ बर्बरता किए जाने का आरोप लगाया था। जयराज की पत्नी सेल्वारानी ने शिकायत दर्ज कराते हुए कहा था कि पुलिसिया बर्बरता के कारण उनके पति और बेटे की मौत हुई।
इस मामले में बीती एक जुलाई को छह पुलिसकर्मियों पर हत्या का केस दर्ज किया गया था। अब तक इस मामले में चार पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार किया जा चुका है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दाखिल हुई है। हम यदि विकास दुबे के एनकाउंटर पर पुलिस का सपोर्ट करते हैं और पुलिस की वाहवाही करते हैं तो उसके दीर्घकालिक परिणाम के रूप में हमें तमिलनाडु के पी. जयराज और उनके बेटे बेनिक्स की लॉकडाउन के दौरान अधिक देर तक दुकान खोलने जैसे साधारण से अपराध के कारण पुलिस कस्टडी में मौत जैसे दुष्परिणामों के लिए तैयार रहना चाहिए।
प्रकाश सिंह बनाम संघ (2006 8 SCC 1) और डी.के. बसु बनाम राज्य पश्चिम बंगाल (1997) के मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पारित दिशानिर्देशों के क्रियान्वयन के प्रयासों में कमी है। इन मामलों में दिए दिशानिर्देशों का पूर्णत: पालन अब भी नहीं हुआ है। इस कारण भारतीय पुलिस प्रणाली में व्याप्त खामियों को खत्म करने के लिए फिर से दिशानिर्देश जारी करने और उन्हें शीघ्र लागू करने की आवश्यकता है। जिससे हिरासत में यातना की रोकथाम हो सके।
“इस देश में पुलिस व्यवस्था के भीतर संस्थागत सुधार की तत्काल आवश्यकता है और अत्याचार और हिरासत में मौत के मामलों को रोकने एवम् जीवन के अधिकार की सुरक्षा देने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार कानूनों के दायित्वों की पूर्ति में, एक मजबूत कानून बनाने की आवश्यकता है। हम अपनी पुलिस के औपनिवेशिक रवैये को खत्म करने में विफल रहे हैं।”
सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के बावजूद, हिरासत में अत्याचार निरंतर बढ़ रहे हैं। भारत के कानूनी, विधायी और वैधानिक ढांचे में कई खामियां हैं, जिनके कारण हिरासत में हिंसा, बलात्कार और अत्याचार एक प्रचलित महामारी के रूप में बढ़ रहा है। जो वर्दी कानून और आम जनता के वैधानिक अधिकारों के बचाव के लिए है, वह राज्य मशीनरी के निर्देशों पर सुगम और स्थायी तरीके से मानवाधिकारों का हनन और अपमान निरंतर कर रही है।
गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार को सुनिश्चित करने और सुरक्षित करने के संवैधानिक दायित्व को पूरा करने के लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण और निहित शक्ति के अभ्यास में हिरासत में यातना, मौत, बलात्कार की रोकथाम के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रकाश सिंह बनाम संघ मामले में दिए दिशानिर्देशों को लागू करने की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एक स्वतंत्र समिति बनाने के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देने की भी आवश्यकता है, जिसमें सभी विभागों/मंत्रालयों के सदस्यों को शामिल किया जाए, जो पूरे कानूनी ढांचे की समीक्षा करें और मौजूदा कानूनी ढांचे में खामियों का पता लगाएं। हिरासत में यातना, मौतों, बलात्कारों के खतरे को रोकें ताकि विधि आयोग और अंतर्राष्ट्रीय कानून व्यवस्था की सिफारिशों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों के अनुरूप विधि का पुनर्निधारण हो सके और पुलिस के औपनिवेशिक रवैये को खत्म किया जा सके।
(लेखक एडवोकेट हैं)