उनकी दुनिया बेहतर बनाने के लिए हमें ही आगे आना होगा

यह बात हमने बच्‍चों से शुरू की थी और आज फिर से बच्‍चों के ही जिक्र के साथ इसे खत्‍म करेंगे। महिलाएं और बड़ी उम्र की लड़कियां तो फिर भी राजनीति की नजर में आ जाती हैं क्‍योंकि वे महिलाएं या लड़कियां होने के साथ साथ वोटर भी हैं। या यूं कहें कि राजनीति की नजर में उनकी पहली उपयोगिता वोटर के रूप में ही है।

लेकिन बच्‍चे न तो वोटर हैं और न ही राजनीति की चिंता का विषय। वे सिर्फ बच्‍चे हैं… ऐसे जीते जागते पुतले हैं जो न खुद अपने हक की आवाज उठा सकते हैं और न ही अपने हकों के लिए लड़ सकते हैं। समाज में बरसों से यह बात कही जाती रही है कि बच्‍चे राजनीति के एजेंडा में हैं ही नहीं और जो बात एजेंडा में ही न हो उस पर सोचना क्‍या और न सोचना क्‍या…

देश-प्रदेश में एक बार फिर चुनाव का मौसम आ रहा है। हर वर्ग अपनी मांगें उठा रहा है और हर वर्ग की वोट-वैल्‍यू को देखकर राजनीतिक पार्टियां और सरकारें उनके साथ सौदेबाजी कर रही हैं। किसी को मुफ्त मकान का वायदा पकड़ाया जा रहा है, तो किसी को बिजली बिलों की माफी का, किसी को कर्ज माफी का झुनझुना थमाया जा रहा है, तो किसी को मुफ्त इलाज का…

लेकिन इस सारी कवायद में बच्‍चे हमेशा की तरह नदारद हैं। उनकी अहमियत नेताजी की सभाओं में खाली स्‍थान भरने तक सीमित है। पंडाल खाली है, बच्‍चों को बिठा दो, सड़कों पर नेताजी का स्‍वागत करवाना है, बच्‍चों को खड़ा कर दो, मंत्रीजी को बहुत स्‍नेहिल दिखाना है, गोद में बच्‍चा दे दो, बच्चियों का हितैषी दिखाना है, पांव पुजवाने के लिए उन्‍हें लाइन में बिठा दो…

लेकिन असल मुद्दों पर कोई बात नहीं कर रहा। बच्‍चों के लिए ऐसे कठिन दौर में भोपाल के गैर सरकारी संगठन विकास संवाद की पहल पर कई संगठनों ने मिलकर, बच्‍चों को राजनीति के एजेंडा में लाने और राजनीति का ध्‍यान उनकी ओर आकर्षित करने के लिहाज से पिछले दिनों बच्‍चों का घोषणा पत्र जारी किया। इसमें बच्‍चों ने अपनी कई मांगों पर राजनेताओं से ध्‍यान देने को कहा है।

बच्‍चों ने राजनेताओं से अपील की है कि वे उनकी दुनि‍या बेहतर बनाने का वायदा करें और उनकी समस्‍याओं की ओर ध्‍यान दें। प्रदेश के 27 जिलों में मैदानी काम करने वाली संस्थाओं और संगठनों ने यह मांग पत्र तैयार करने के लिए सघन अभियान चलाया था। इसमें हर जिले से लगभग सौ बच्चों से संवाद किया गया।

संवाद के दौरान करीब तीन हजार बच्चों ने बातचीत में बेबाकी से अपने मुद्दे रखे। उन्‍होंने साफ-साफ कहा कि हम बच्‍चों को स्कूल छोड़कर मजदूरी में लगना पड़ता है। कानून होने के बावजूद हमारी बचपन में ही शादी कर दी जाती है। हमें स्कूल जाने में कई तरह का डर लगता है। न जाने कौन कब छेड़ दे।

कई बच्चों को स्‍कूल में एडमिशन नहीं मिलता क्योंकि उनका आधार कार्ड नहीं बना। स्कॉलरशिप के पैसे तो मिले, लेकिन उनका उपयोग हमारे लिए नहीं हुआ। हमारे लिए बेहतर शिक्षक नहीं हैं। जिन स्कूलों में शौचालय बन गए वहां उनमें ताले पड़े हुए हैं।

बच्‍चों ने अपेक्षा की है कि स्‍कूल में उन्‍हें बेहतर आधारभूत सुवि‍धाएं मुहैया कराई जाएंगी, स्कूल तक का पक्का मार्ग, बाउंड्री वॉल और खेल का मैदान, बनाया जाएगा। प्रशिक्षित शिक्षक से लेकर सफाई कर्मचारी तक की नियुक्ति होगी, साफ पेयजल, बि‍जली, कंप्‍यूटर आदि मुहैया कराए जाएंगे और आरटीई का दायरा 18 साल तक बढ़ाया जाएगा।

उनका कहना था कि कई बच्चे कुपोषण के कारण दम तोड़ देते हैं। उन्‍हें बेहतर इलाज नहीं मिल पाता। टीकाकरण से जाने कितने बच्चे छूट जाते हैं। बच्‍चों की ओर से कहा गया कि उनके पोषण एवं स्वास्थ्य पर वार्षिक रिपोर्ट तैयार की जाए जिसका सामाजिक अंकेक्षण ग्रामसभा खुद करे। साथ ही पलायन कर गए बच्चों के टीकाकरण हेतु नीति बनाई जाए।

बच्‍चों ने उम्‍मीद जताई है कि बाल मजदूरी, यौन शोषण, तस्करी आदि को रोकने के लिए सख्त कानून लागू किए जाएंगे। संरक्षण गृहों की स्थापना की जाएगी, भिक्षावृत्ति में संलग्न बच्चों को वहां से बाहर नि‍कालकर उनके पुनर्वास और शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी। बाल मजदूरी कानून का कड़ाई से पालन कि‍या जाएगा।

हर गुमशुदा बच्चे को खोजने के गंभीर प्रयास कि‍ए जाएंगे। इस काम में डिजिटल टूल्‍स का इस्‍तेमाल किया जाएगा। ऐसे प्रकरणों के निराकरण के लिए हर जिले में फास्ट ट्रेक कोर्ट की स्थापना होगी। इसके अलावा मातृत्व स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, पोषण  और कुपोषण, अधोसंरचनात्मक वि‍कास, वन एवं पर्यावरण, कृषि, रोजगार, पेयजल एवं स्वच्छता जैसे मुद्दों को भी बच्‍चों से जोड़कर उनके निराकरण की मांग की गई है।

बच्‍चों के मुताबिक इनके अलावा भी बहुत सारे मुद्दे हैं जो वे राजनेताओं और पाटियों के समक्ष रखना चाहते हैं। उन्‍होंने भरोसा जताया है कि इन सारी बातों को ध्‍यान में रखते हुए उन्‍हें राजनीति के मुख्‍य एजेंडे में शामिल किया जाएगा ताकि उनकी दुनिया को और बेहतर बनाया जा सके।

दरअसल चाहे बच्‍चे हों या किशोर लड़कियां, इस वर्ग की सबसे बड़ी परेशानी यही है कि इन पर ध्‍यान तभी जाता है जब वे या तो किसी वारदात के शिकार हो जाते हैं या फिर किसी नकारात्‍मक वजह से सुर्खियों में आ जाते हैं। वरना तो पोटली में बंधे, सड़ते रहते हैं।

विकास संवाद द्वारा संकलित यह दस्‍तावेज काफी बड़ा है और इसमें बच्‍चों और उनसे संबंधित मुद्दों पर अलग-अलग एंगल से बहुत विस्‍तार से बात की गई है। बच्‍चों की स्थिति के बारे में यदि जानना है तो इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए। इसकी खासियत यह है कि इसमें बच्‍चों की बात बच्‍चों ने ही कही है, शायद इसीलिए यह दस्‍तावेज वस्‍तुनिष्‍ठ और प्रामाणिक बन पड़ा है।

अंत में सिर्फ इतना ही कि यदि सचमुच हमें बच्‍चों और किशोरियों के भविष्‍य की फिक्र है तो उन्‍हें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में सक्रिय रूप से शामिल करना होगा। खुद उनके बारे में सोच लेने से ही काम नहीं चलने वाला, वह माहौल पैदा करना होगा कि पूरा समाज, पूरी व्‍यवस्‍था और पूरा राजनीतिक ढांचा उनके बारे में सोचे… और न सिर्फ सोचे बल्कि गंभीरता से उनके लिए कुछ करे भी… (समाप्‍त) 

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