यह मीडिया के हो हल्ले का जमाना है। मीडिया ही सारे एजेंडे सेट कर रहा है या मीडिया को इस्तेमाल कर एजेंडे सेट करवाए जा रहे हैं। जब भी कोई बड़ा मुद्दा उठता है उसकी हवा निकालने के लिए दूसरा मुद्दा खड़ा कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में डेसीबल की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। होता यह है कि पहला मुद्दा जिस शोर से उठाया गया था, उसका काउंटर करने वाला मुद्दा उससे दुगुने शोर के साथ उठाया जाता है।
वैसे तो हमारे यहां कहावत ‘नक्कार खाने में तूती की आवाज’ वाली रही है, लेकिन इन दिनों इस कहावत के मायने बदल गए हैं। अब तूती की आवाज को नगाड़ों से नहीं दबाया जाता, अब नगाड़ों की आवाज को और भी बड़े नगाड़े पीट कर दबाया जाता है।
अब तूतियों का कोई काम ही नहीं बचा। चारों तरफ नगाड़े ही नगाड़े हैं और हालात को देखते हुए इसी से मिलते जुलते एक और शब्द का इस्तेमाल करूं तो कहना पड़ेगा कि चारों तरफ नगाड़े ही नगाड़े हैं और उनके इर्द गिर्द नागड़े ही नागड़े हैं।
यह बात कहने के लिए मुझे इसलिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि गुरुवार को देश के तमाम टीवी चैनलों से पेट्रेल डीजल के दाम और रुपए की गिरती कीमत का मुद्दा पूरी तरह गायब था। चल रहा था तो सिर्फ माल्या-जेटली शो। इस शो का इतना शोर था कि यकीन करना मुश्किल हो गया कि चंद घंटों पहले तेल की बढ़ती कीमतें और उससे जनता को होने वाली परेशानी देश का सबसे बड़ा मुद्दा थी।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि माल्या–जेटली वाला मुद्दा कोई मुद्दा नहीं है। लेकिन यह क्या बात हुई कि इसके नगाड़े में हम तेल की कीमतों या रुपये की गिरावट आदि के बारे में कोई बात ही नहीं करें। जब तेल मुद्दा नहीं था तो राफेल मुद्दा था… कहने का आशय यह कि हम जितनी तेजी से खबरें पटक रहे हैं,उतनी ही तेजी से उन्हें भुला भी रहे हैं।
खबरों पर खबरों की परत चढ़ते जाने का यह विषय इसलिए भी मुझे खला क्योंकि तमाम उठापटक के बीच पिछले 24 घंटों में एक ऐसी खबर भी आई थी जिस पर सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से ही नहीं देश के भविष्य की दृष्टि से भी विचार करना बहुत जरूरी है, लेकिन उस खबर पर न तो मुझे किसी टीवी चैनल पर कोई पैनल चर्चा दिखी और न ही कोई बयान…
दरअसल दुनिया में स्वास्थ्य और चिकित्सा क्षेत्र की जानीमानी पत्रिका लेनसेट जर्नल में हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि दुनिया में आत्महत्या करने वाली महिलाओं में से एक तिहाई महिलाएं भारतीय होती हैं।
भारत में दुनिया की कुल आबादी का 18 प्रतिशत हिस्सा रहता है और अध्ययन कहता है कि 2016 में दुनिया में जितनी महिलाओं ने आत्महत्या की उनमें से 37 प्रतिशत भारतीय थीं। पुरुषों के मामले में यह प्रतिशत 24 है।
अध्ययन से जुड़ी पब्लिक हेल्थ फाउण्डेशन आफ इंडिया की प्रोफेसर राखी दंडोना के अनुसार भारत में खुदकुशी करने वाली महिलाओं में भी ज्यादा संख्या विवाहित महिलाओं की है। विवाह नाम की संस्था भी महिलाओं को खुदकुशी से बचाने में कोई खास भूमिका अदा नहीं कर पा रही है, क्योंकि कम उम्र में शादी होने, कम उम्र में मां बन जाने, सामाजिक स्तर बहुत नीचे होने, घरेलू हिंसा और दूसरों पर निर्भरता जैसे कारणों ने महिलाओं को कमजोर किया है।
एक और बड़ा कारण अवसाद या उत्तेजना की स्थिति में महिलाओं के लिए मनोचिकित्सा संबंधी सुविधाओं का अभाव भी है। दंडोना कहती हैं कि भारतीय महिलाओं में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति को देखते हुए खुदकुशी के कारणों का जेंडर आधारित विश्लेषण और अध्ययन अधिक गहराई से किया जाना जरूरी है। ताकि उन्हें समय रहते ऐसा कदम उठाए जाने से बचाया जा सके।
लेनसेट में प्रकाशित अध्ययन में 1990 से 2016 तक की अवधि में भारत में हुई आत्महत्याओं के विभिन्न कारणों का अध्ययन किया गया है। इससे पता चला है कि कुल आत्महत्याओं में से 63 प्रतिशत ऐसी हैं जो लोगों ने 15 से 39 वर्ष की उम्र के बीच की है। जबकि विश्व के आंकड़ों से तुलना करें तो आत्महत्या के मामले में यह आयु समूह तीसरे नंबर पर है।
आंकड़े बताते हैं कि भारत में 1990 से 2016 के बीच आत्महत्या के मामलों में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2016 में खुदकुशी करने वालों की संख्या 2 लाख 30 हजार 314 थी। देश के विभिन्न भागों में आत्महत्या का पैटर्न भी अलग अलग है। तमिलनाडु में ऐसे मामले सबसे ज्यादा होते हैं तो नागालैंड में सबसे कम।
इसी तरह कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में महिला-पुरुष दोनों की आत्महत्या दर अधिक है, जबकि केरल और छत्तीसगढ़ में पुरुषों की खुदकुशी की दर ज्यादा है। भारत में महिलाओं की आत्महत्या दर 15 प्रति एक लाख है, जो विश्व औसत से दुगुनी है। महिला आत्महत्या का विश्व औसत प्रति लाख 7 ही है। देश में पुरुषों में आत्महत्या की दर का औसत इन सालों में लगभग अपरिवर्तित रहा है।
इस अध्ययन का सबसे अहम संकेत यह निकलता है कि भारत का युवा और यहां की महिलाएं आत्महत्या की ओर तेजी से आकर्षित हो रही हैं। सामाजिक और आर्थिक दोनों दृष्टि से किसी भी देश के लिए यह बहुत खतरनाक ट्रेंड है।
इसका सीधा सीधा अर्थ यह है कि हम न घर में महिलाओं को सुरक्षित वातावरण उपलब्ध करा पा रहे हैं और न घर से बाहर युवाओं को। ये दोनों वर्ग, किसी भी देश की तरक्की को तय करने वाला महत्वपूर्ण कारक हैं और इनका अवसाद या कुंठाग्रस्त रहना देश के भविष्य को बहुत अधिक प्रभावित करेगा।
वैसे कई बार मैं सोचता हूं कि आत्महत्या के कारण भी हमारे यहां रूढ़ हो चले हैं। जैसे पारिवारिक कलह, पढ़ाई या प्रेम में असफलता, बेरोजगारी, लंबी बीमारी, खेती किसानी का कर्ज आदि… लेकिन क्या कोई अध्ययन ऐसा नहीं होना चाहिए जो यह पता लगाए कि भ्रष्टाचार या कुशासन की वजह से कितने लोगों ने आत्महत्या की… पर शायद ऐसे सवाल उन्हीं नगाड़ों के शोर में डूब जाते हैं जिनका जिक्र मैंने ऊपर किया…