हम सब भी जिम्‍मेदार हैं बच्‍चों की इन मौतों के लिए

जिस समय देश नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी और एनपीआर जैसे मुद्दों में उलझा है उसी समय समानांतर रूप से एक और गंभीर खबर चल रही है जो देश की भावी पीढ़ी यानी बच्‍चों से ताल्‍लुक रखती है। राजनीति का जितना शिकार सीएए हो रहा है उतनी ही राजनीति बच्‍चों से जुड़े मुद्दे पर भी हो रही है। रविवार को नागरिकता संशोधन कानून को लेकर भाजपा ने जहां घर-घर जाकर लोगों को इस कानून के बारे में बताने/समझाने का अभियान शुरू किया वहीं कोटा के सरकारी अस्‍पताल में सौ से अधिक बच्‍चों के मारे जाने की खबर पर चल रहे विवाद के बीच ही एक और खबर आई कि गुजरात के अस्‍पतालों में भी इसी तरह से मौतें हुई हैं।

राजस्थान के कोटा में जहां 110 बच्चों की मौत की खबर थी वहीं गुजरात में दो जिला अस्‍पतालों में एक ही महीने में 196 मासूमों की मौत का मामला सामने आया है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक राजकोट के सिविल अस्पताल में दिसंबर में 111 बच्चों की मौत हो गई, वहीं अहमदाबाद में 85 नवजातों ने दम तोड़ दिया। राजकोट मामले की खुद अस्पताल के डीन मनीष मेहता ने पुष्टि की है। जबकि अहमदाबाद सिविल अस्पताल के सुपरिटेंडेंट जीएस राठौड़ का कहना है कि दिसंबर में 455 नवजात आईसीयू में भर्ती हुए थे, उनमें से 85 की मौत हो गई।

जिस तरह कोटा में हुई मौतों के बाद राजनीति शुरू हो गई थी उसी तरह गुजरात में हुई बच्‍चों की मौत पर भी राजनीतिक दांव खेले जाने लगे हैं। कोटा में हुई मौत पर राजस्‍थान की गहलोत सरकार के खिलाफ न सिर्फ भाजपा हमलावर हुई थी बल्कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा पर निशाना साधते हुए कहा था कि उत्‍तरप्रदेश में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ हुए प्रदर्शन में मारे गए और घायल हुए लोगों के घर जाकर राजनीति करने वाली प्रियंका जरा कोटा जाकर उन परिवारों से भी मिल लें जिनके बच्‍चे अस्‍पताल में दम तोड़ चुके हैं।

मायावती के इस बयान पर प्रियंका ने उलटे बसपा नेता को ही सलाह दे डाली थी यदि ऐसा ही है तो मायावती खुद कोटा जाकर पीडि़त परिवारों से क्‍यों नहीं मिल आतीं। अब उसी तरह गुजरात मामले में भी आरोप प्रत्‍यारोप शुरू हो गए हैं। कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि राजस्‍थान में हुए हादसों को लेकर हायतौबा मचाने वाले भाजपा नेता, गुजरात के अस्‍पतालों में जाकर क्‍यों नहीं देखते। कांग्रेस प्रवक्‍ता रणदीप सुरजेवाला ने ट्वीट किया-‘’राजकोट: 1 साल में 1235 मासूम बच्चों की मौत। अहमदाबाद+राजकोट: दिसम्बर में 219 मासूम बच्चों की मौत। अहमदाबाद: पिछले 3 महीनो में 253 मासूम मौत के शिकार। मोदीजी चुप, शाहजी चुप! पर मीडिया की चुप्‍पी के क्‍या मायने?’’

यह पूरा घटनाक्रम बच्‍चों के प्रति समाज और राजनीति की संवेदनहीनता को उजागर करने वाला है। दरअसल बच्‍चों की मौत को हमने सामान्‍य और स्‍वाभाविक घटना मान लिया है। इसमें कोई एक सरकार, एक पार्टी या एक अस्‍पताल दोषी नहीं है। दोषी है तो पूरा तंत्र, पूरी व्‍यवस्‍था और उससे भी ज्‍यादा बच्‍चों के प्रति उदासीनता वाली हमारी मानसिकता। सुनने में बुरा लग सकता है लेकिन आज भी स्थितियां ये हैं कि बच्‍चे के जीते जी हम उसकी उतनी परवाह नहीं करते जितना उसकी मौत के बाद आंसू बहाते हैं।

बच्‍चों की मौतों के पीछे एक नहीं कई कारण एकसाथ काम करते हैं। इनमें कम उम्र में महिला का मां बन जाना, गर्भवती महिलाओं का समुचित पोषण न होना, गर्भवती महिलाओं को समय पर लगने वाले टीके न लगना, अस्‍पताल के बजाय घर में प्रसव करवाना, प्रसव के बाद जरूरी एहतियात न बरतना, नवजात की सुरक्षा और पोषण में लापरवाही, उसे मां का दूध न मिलना, बच्‍चों को समय-समय पर लगने वाले टीके न लगवाना जैसे कारण शामिल हैं।

अस्‍पतालों की बात करें तो यह सही है कि वहां भी बच्‍चों के इलाज के लिए समुचित व्‍यवस्‍थाएं नहीं हैं। 5 जनवरी को ही खबर छपी है कि देश में बच्‍चों के दो लाख से अधिक विशेषज्ञ डॉक्‍टरों की जरूरत है लेकिन उपलब्‍धता सिर्फ 25 हजार डॉक्‍टरों की ही है। दूसरी बात सुविधाओं की है। अस्‍पतालों में बच्‍चों के वार्ड में ऑक्‍सीजन से लेकर अत्‍यधिक ठंड से बचाव के लिए इंतजामों और दवाइयों आदि का अभाव रहता है।

सरकारी अस्‍पतालों में मौतों का आंकड़ा ज्‍यादा दिखाई देने के पीछे इस कारण से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि वहां कई बार बच्‍चों को ऐसे समय में इलाज के लिए लाया जाता है जब उनकी हालत बहुत ज्‍यादा बिगड़ गई हो। यह भी देखने में आया है कि बच्‍चों का इलाज करने वाले निजी अस्‍पताल हालत गंभीर हो जाने पर हाथ खड़े करते हुए बच्‍चों को सरकारी अस्‍पताल में भरती कराने की सलाह दे देते हैं और बच्‍चे की मौत सरकारी अस्‍पताल के खाते में चली जाती है।

आंकड़े बताते हैं कि देश में बच्‍चों की सबसे अधिक मौतें डायरिया और निमोनिया से होती हैं। बच्‍चों को घातक/जानलेवा डायरिया से बचाने के रोटावायरस का टीका लगाया जाता है जबकि निमोनिया से बचाने के लिए पीसीवी का। रोटा वायरस का टीका 2016 में टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल किया गया था जबकि पीसीवी को 2017 में शामिल किया गया। जरूरत इस बात की है कि बच्‍चों को सारे टीके समय पर लगें। बच्‍चे के बीमार हो जाने, उसे गंभीर अवस्‍था में अस्‍पताल में भरती कराने और दुर्भाग्‍य से उसकी मौत हो जाने के बाद जितनी बातें होती हैं उसकी तुलना में यदि थोड़ा सा भी टीकाकरण जैसे जरूरी कार्यक्रम पर ध्‍यान दिया जाए तो ऐसी बहुत सारी मौतों को होने से रोका जा सकता है।

बाजार में या निजी अस्‍पतालों में हजारों रुपये खर्च कर लगाए जाने वाले ये टीके सरकारी अस्‍पतालों में मुफ्त में लगाए जाते हैं। टीकाकरण के लिए समय समय पर विशेष अभियान भी चलाए जाते हैं। लेकिन उसके बावजूद आज भी 35 फीसदी तक बच्‍चे ऐसे रह जाते हैं जिन्‍हें संपूर्ण टीकाकरण का कवर नहीं मिला होता। राष्‍ट्रीय परिवार स्‍वास्‍थ्‍य सर्वेक्षण एनएफएचएस-4 में संपूर्ण टीकाकरण से वंचित रह जाने वाले बच्‍चों की संख्‍या 36 प्रतिशत थी। अस्‍पतालों और सरकारी व्‍यवस्‍थाओं की लापरवाही या उदासीनता को उजागर करने और उन्‍हें जवाबदेह बनाए जाने के साथ यह भी जरूरी है कि समाज में मातृ एवं शिशु सुरक्षा और संपूर्ण टीकाकरण जैसे कार्यक्रमों के प्रति जागरूकता लाई जाए। और हां, ठंड के दिनों में दो चार कंबल बांटकर फोटो छपवाने वाले लोग कभी-कभार अस्‍पतालों में बच्‍चों के वार्ड में यह भी देख आया करें कि वहां क्‍या हाल हैं।

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