गिरीश उपाध्याय
इन दिनों पर्यावरण और खासतौर से जंगल और इंसान के बीच रिश्तों को लेकर बनी फिल्म ‘शेरनी’ की बहुत चर्चा है। मध्यप्रदेश में फिल्माई गई इस फिल्म में जंगल और इंसान के बीच के रिश्तों की उलझनों को बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है। इसी फिल्म को लेकर हुई चर्चा के दौरान हाल ही में मेरे सामने आई एक टिप्पणी ने बहुत कुछ सोचने को मजबूर किया। फिल्म के एक दर्शक ने कहा कि- ‘’मैंने फिल्म देखी। पर्यावरण की दृष्टि से यह बहुत प्रभावित करती है, परंतु फिल्म के अंत से मैं सहमत नहीं हूँ। वन विभाग में फैला भ्रष्टाचार उजागर होना चाहिए था और दोषियों को दंड मिलना चाहिए था। शेरनी को गोली मारने वाले को दंडित किया जाना चाहिए था। डीएफओ के स्थानांतरण से क्या संदेश दिया गया है?’’
आमतौर पर फिल्में मनोरंजन के लिए ही देखी जाती हैं। यह फिल्मकार की काबिलियत पर निर्भर करता है कि मनोरंजन के साथ साथ वह फिल्म के जरिये दर्शकों को कोई संदेश भी दे दे या उनके मानस पर विचार का कोई बीज डाल दे। बॉलीवुड ने दुखांत फिल्में अपेक्षाकृत कम ही बनाई हैं। हमारे यहां फिल्मों के दो विषय बहुत ही लोकप्रिय हैं, इसे बोलचाल की भाषा में फार्मूला कहा जाता है। इस फार्मूले के तहत या तो प्यार-मोहब्बत पर आधारित फिल्में बनाई जाती हैं, जिनके अंत में नायक और नायिका का मिलन हो जाता है या फिर फिल्मों में अच्छाई और बुराई की कथित लड़ाई होती है, जिसमें अंतत: अच्छाई को ही जीतते हुए दिखाया जाता है।
इन फार्मूला विषयों से इतर भी कई फिल्में बनी हैं जिनमें ‘मदर इंडिया’ जैसी फिल्मों को ऐतिहासिक माना जा सकता है। इन दिनों परंपरागत विषयों से हटकर भी फिल्में बन रही हैं जो हमारे समाज में आए बदलाव और सामाजिक तानेबाने की उलझनों, जटिलता और मानवीय रिश्तों के मनोवैज्ञानिक पक्ष को स्पर्श करती हैं। अब सवाल यह है कि क्या ये फिल्में हमें मनोरंजन के अलावा कोई सामाजिक संदेश या वैचारिक आधार भी दे पा रही हैं?
इस सवाल को मैं ‘शेरनी’ फिल्म को लेकर की गई उस टिप्पणी से जोड़ता हूं जिसका उल्लेख मैंने ऊपर किया। दरअसल हम सदियों से ऐसा समाज रहे हैं जिसने चमत्कारों पर भरोसा किया है। मैं यह नहीं कहता कि चमत्कार नहीं होते होंगे, लेकिन अपवादस्वरूप चमत्कृत कर देने वाली घटनाओं का हो जाना और ऐसी घटनाओं को शाश्वत परिणति के रूप में स्वीकार कर लेना दो अलग अलग बातें हैं। चमत्कार हमेशा नहीं होते और उन्हें हमेशा होना भी नहीं चाहिए…
हमारी फिल्मों ने बाकी बातों के साथ एक जो बात हमारे समाज के मानस पर अंकित की है वो ये है कि अंतत: बुराई की हार हो ही जाएगी है और अंतिम परिणाम के रूप में अच्छाई विजयी होकर ही निकलेगी। आदर्शवादी दृष्टिकोण के चलते यह बात ठीक हो सकती है लेकिन इतिहास से लेकर वर्तमान तक की घटनाएं गवाह हैं कि वास्तविक जीवन में हमेशा ऐसा नहीं होता। पर होता यह है कि ज्यादातर मामलों में रुपहले परदे पर दो तीन घंटे बिताने के बाद हम उस आदर्शवादी छतरी के साथ ही सिनेमा हॉल से बाहर निकलते हैं। फिल्मों ने इस आदर्शवादी खुमारी को हमारे मानस का स्थायी भाव बना दिया है और हम वैसा होता हुआ ही देखना चाहते हैं।
यह पूछा जा सकता है कि यदि ऐसा है भी तो इसमें बुराई क्या है? क्या समाज में बुराई पर अच्छाई की जीत नहीं होनी चाहिए? क्या समाज में आदर्श और नैतिकता की स्थापना नहीं होनी चाहिए? जरूर होनी चाहिए। लेकिन हमेशा ऐसा होता नहीं है और दुर्भाग्य से फिल्मों ने हमें यह सिखा दिया है कि ऐसा ही होता है। रुपहले परदे पर होने वाला अच्छाई का चमत्कार हमें यह यकीन दिला देता है कि अब कुछ ऐसा होगा कि अच्छाई हर हाल में जीत जाएगी। दर्जनों गुंडों और असंभव परिस्थितियों से घिरा नायक यकायक अतिमानव में तब्दील होकर खलनायक और उसके बाहुबलियों को चुटकी बजाते धराशायी कर देता है। हम यह जान रहे होते हैं कि ऐसा होना संभव नहीं है लेकिन फिर भी मान रहे होते हैं कि ऐसा हो सकता है।
यानी एक तरह से हम हमेशा चमत्कार होने की उम्मीद कर रहे होते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि फिल्म के परदे पर यह उम्मीद साकार होती दिख जाती है और वास्तविक जीवन में इसके साकार होने का प्रतिशत नगण्य होता है। फिल्म संसार ने समाज का यही सबसे बड़ा नुकसान किया है। हम फिल्म के परदे पर अच्छाई को जीतता देख रोजमर्रा जिंदगी में भी मान लेते हैं कि चाहे कुछ हो जाए जीतेगी तो अच्छाई ही… और अच्छाई को जिताने वाला कोई न कोई महानायक या कोई चमत्कार अवश्य घटित होगा। हमारी इसी सोच ने अच्छाई को जिताने वाली परिस्थिति निर्मित करने की हमारी कोशिशों को भोथरा बना दिया है।
आज देश और समाज के जो हालात हैं उन्हें बदलने के लिए सामाजिक स्तर पर जिस जागरूकता और स्वयं की कोशिश की जरूरत है उसे न करते हुए समाज बस दो ही काम कर रहा है, पहला तो यह कि बुराई को कोसना, उसे गाली देना और दूसरा बुराई को खत्म कर देने वाले किसी चमत्कार की उम्मीद लगाकर बैठना। अपने स्तर पर क्या कोशिश की जा सकती है और क्या कोशिश की जानी चाहिए इसकी ओर या तो सोचा ही नहीं जा रहा या फिर बहुत कम लोग ही सोच रहे हैं। इसका नुकसान यह हुआ है कि समाज में अच्छा होने या अच्छे की जीत के बजाय वो ज्यादा हो रहा है जो अच्छा नहीं है।
ऐसे में यदि कोई फिल्म अपने अंत में कोई चमत्कार करती नजर नहीं आती या फिर वह वास्तविकता से परे जाकर जबरन अच्छाई की जीत नहीं दिखाती तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। दरअसल ऐसी फिल्मों और ऐसे साहित्य की आज अधिक जरूरत है जो लोगों की उस चेतना को झकझोरे जो यह मानती चली आई है कि वे कुछ करें या न करें आखिरकार अच्छाई तो जीत ही जाएगी। हकीकत यह है कि अच्छाई की जीत यूं ही नहीं होने वाली, उसके लिए समाज को ही जागरूक बनना होगा, प्रयास करने होंगे। आखिर हममें से कितने लोग हैं जो अच्छाई को जिताने के लिए प्रयास करते हैं? अच्छाई को जीतते हुए देखने की आकांक्षा रखना अलग बात है और अच्छाई की जीत के लायक परिस्थितियों का निर्माण करना अलग बात।
करीब पैंतीस साल पुरानी बात होगी, मराठी के बहुत चर्चित कवि दिलीप चित्रे ने मुझे दिए गए एक इंटरव्यू में सवाल उठाया था कि आखिर कविता अखबार की हेडलाइन क्यों नहीं बनती…? दरअसल साहित्य हो या सिनेमा इनका काम समाज को जगाना या झकझोरना है। किसी भी बात को एक ऐसे नोट पर लाकर छोड़ना कि उसके बाद लोग कुछ सोचने, विचारने और करने के लिए मजबूर हों… साहित्य और सिनेमा हमें धरातल पर समाधान नहीं दे सकते। वे समस्या की तरफ ध्यान दिला सकते हैं… समाधान का रास्ता दिखा सकते हैं। वास्तविक जीवन में असली समाधान तो हमें ही खोजना होगा। इस धारणा से दूर होकर कि कभी न कभी कोई चमत्कार होगा और सबकुछ ठीक हो जाएगा… ‘शेरनी’ फिल्म को इसलिए भी देखा जाना चाहिए क्योंकि यह समाधान नहीं देती, आपको बताती है कि जन, जीव और जंगल के बीच जो खेल चल रहा है उसमें आपकी भूमिका क्या है, या क्या होनी चाहिए… यदि आप सोच सकें तो ठीक है वरना शिकारी तो हाथ में बंदूक लिए चारों तरफ घूम ही रहे हैं…
(न्यूज 18 हिन्दी पर प्रकाशित आलेख)