बुधवार को लखनऊ से लेकर दिल्ली तक के मीडिया में यह खबर सुर्खियों में रही कि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के बीच 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन और सीट बंटवारे का फॉर्मूला तय हो गया है। कांग्रेस को दरकिनार करने वाले इस नए गठबंधन का औपचारिक ऐलान मायावती के जन्मदिन पर संभावित है।
दरअसल पिछले दिनों मध्यप्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से पहले तक सपा, बसपा और कांग्रेस तीनों के ही विपक्षी दलों के संभावित महागठबंधन का हिस्सा होने की खबरें आ रही थीं। लेकिन मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव नतीजों ने सारा परिदृश्य ही बदल दिया। तीनों राज्यों में भाजपा को पछाड़ कर कांग्रेस ने अपनी सरकार बनाई और नई परिस्थिति में माना जाने लगा कि अब कांग्रेस की ताकत बढ़ गई है और सीटों की बार्गेनिंग में वह अपना हिस्सा भी इसी अनुपात में चाहेगी।
लेकिन इस संभावित महागठबंधन को लेकर पहला खुटका उस समय हुआ जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस की नवगठित सरकार को समर्थन देने का ऐलान करने के बावजूद बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा के मुखिया अखिलेश यादव मुख्यमंत्री कमलनाथ के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं हुए।
इस आयोजन में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी भी नहीं आईं। मीडिया ने जब इस बारे में कमलनाथ से सवाल किए तो उनका जवाब था कि मायावती स्वास्थ्य कारणों से और ममता पारिवारिक पूजा कार्यक्रम में व्यस्त होने के कारण नहीं आ सकी हैं। अखिलेश के न आने का कोई ठोस कारण उन्होंने नहीं बताया।
अब मध्यप्रदेश के चुनाव नतीजे आने के ठीक एक सप्ताह बाद खबर आ रही है कि यूपी में बसपा और सपा ने 80 लोकसभा सीटों में से अपने लिए क्रमश: 38 और 37 सीटें तय कर ली हैं। अजीतसिंह की आरएलडी को दो से तीन सीटें दी जाएंगी जबकि कांग्रेस के लिए उसकी दो परंपरागत सीटें अमेठी और रायबरेली छोड़ दी जाएंगी। बताया जा रहा है कि इस फॉर्मूले पर दोनों ही दलों के शीर्ष नेताओं के बीच सहमति बन चुकी है।
भविष्य में गठबंधन का खाका कैसा बनेगा और मीडिया की चर्चा में आया यह फार्मूला कितना सही है, इस बारे में ठीक ठीक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन मध्यप्रदेश चुनाव और उसके बाद की घटनाओं का बारीकी से विश्लेषण करें तो ऐसा लगता है कि हिन्दी हार्टलैंड के तीनों राज्यों में कांग्रेस की जीत ने बसपा-सपा खेमे को डरा दिया है। संभवत: उन्हें लग रहा है कि कांग्रेस इस जीत के बाद जिस तरह से फुल फॉर्म में आई है और कई विपक्षी नेताओं ने नए मुख्यमंत्रियों की ताजपोशी में जिस तरह से शिरकत की है उससे कांग्रेस के भाव बढ़ गए हैं।
ऐसे में स्वाभाविक है कि कांग्रेस अब अपनी बढ़ती ताकत और प्रभाव को सामने रखते हुए उत्तरप्रदेश में अधिक सीटों की मांग करे। यदि ऐसा होगा तो निश्चित रूप से बसपा और सपा दोनों को ही अपना पेट काटना होगा, जिसके लिए वे शायद ही राजी हों। और इसीलिए यूपी में गठबंधन करने और सीटों का फार्मूला तय होने जैसी खबरें आ रही हैं या चलवाई जा रही हैं।
बसपा-सपा के मन का डर तो उसी दिन सामने आ गया था जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार को उन्होंने मन मसोसकर अपना समर्थन दिया था। मैं इसी कॉलम में लिख चुका हूं कि जिस तरह भाजपा के पास मध्यप्रदेश में अपनी सरकार बनाने का दावा छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं था, उसी तरह बसपा और सपा के पास भी कांग्रेस को समर्थन देने का अलावा कोई विकल्प नहीं था। भाजपा को वे समर्थन दे नहीं सकते थे और अगर कांग्रेस को समर्थन नहीं भी देते तो भी चार निर्दलियों के सहयोग से कांग्रेस की सरकार तो बन ही जानी थी।
जरा याद कीजिए बहन मायावती का 12 दिसंबर को आया वह बयान जिसके जरिए उन्होंने मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार को समर्थन का ऐलान किया था। शब्दों पर गौर कीजिए, उन्होंने कहा था कि भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए तीनों राज्यों की जनता ने न चाहते हुए भी दिल पर पत्थर रख कर कांग्रेस को वोट दिया है।
मायावती यहीं नहीं रुकीं, उन्होंने साफ कर दिया कि ‘’हमारी पार्टी ने कांग्रेस पार्टी की सोच और नीति से सहमति ना जताते हुए भी मध्यप्रदेश में कांग्रेस पार्टी को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने का फैसला किया है।‘’ उन्होंने तो उस बयान में कांग्रेस पर सीधा आरोप तक लगाया था कि इस पार्टी (कांग्रेस) ने यदि दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के हितों की सचमुच चिंता की होती तो आज न बसपा बनाने की जरूरत होती न भाजपा को आगे बढ़ने का मौका मिलता। इन वर्गों के लोगों की कांग्रेस पार्टी के राज में हर स्तर पर काफी ज्यादा उपेक्षा की गई। उसने इन वर्गों का कभी भला नहीं किया।
यानी समर्थन देने के बावजूद मायावती कांग्रेस को यह साफ साफ संदेश दे रही थीं कि उनकी और कांग्रेस की राहें एक नहीं हो सकतीं। और संभवत: यही कारण रहा होगा कि उन्होंने कमलनाथ के शपथ ग्रहण कार्यक्रम में शामिल न होकर, भोपाल की उस फोटो फ्रेम से खुद को अलग रखने का फैसला किया जिसमें विपक्ष के कई सारे नेता राहुल गांधी के साथ हाथ में हाथ पकड़े गठबंधन की छवि गढ़ते दिखाई दिए थे।
रहा सवाल अखिलेश का तो मध्यप्रदेश सरकार के गठन के बाद उनके सुर भी बदले हुए ही नजर आए थे। याद करें अभी पांच दिन पहले आया उनका वो बयान जिसमें उन्होंने राफेल मामले में जेपीसी के गठन की कांग्रेस की मांग से असहमति जताते हुए साफ कहा था कि इस मुद्दे पर जो भी बात कहनी है वह सुप्रीम कोर्ट में ही कही जानी चाहिए।
अब कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह तीन राज्यों में अपनी सरकार बनने का जश्न मनाए या राहुल को प्रधानमंत्री के रास्ते पर ले जाने वाला महागठबंधन बनने से पहले ही उसमें आई दरारों की चिंता करे…