सीमा पर युद्ध से ज्‍यादा खतरनाक है सोशल मीडिया का युद्ध

वैसे तो कई दिनों से मैंने यह सवाल सामान्‍य परिस्थितियों में भी पूछना शुरू कर दिया है कि आखिर हमें कितनी जल्‍दी और कितनी सारी खबरों की जरूरत है। और उससे भी बड़ी बात यह कि हमें खबरों की जरूरत आखिर है किसलिए? अपनी खुद की जानकारी के लिए या बिना सोचे समझे सोशल मीडिया पर फारवर्ड-फारवर्ड खेलने के लिए?

शांतिकाल में या सामान्‍य हालात में तो एक बार फिर भी इस फारवर्ड-फारवर्ड खेल के ‘अपराध’ को माफ किया जा सकता है लेकिन युद्ध जैसे हालात में? क्‍या युद्ध जैसे हालात में भी हम इससे बाज नहीं आ सकते? तमाम ज्ञान और बुद्धि का ठेका लेकर बैठे लोग क्‍या इतनी सी समझ का परिचय नहीं दे सकते कि कभी-कभी चुप रह जाना भी बहुत बड़ी खबर या प्रतिक्रिया होती है।

पर ऐसा लगता है कि लोगों को बोलने का बवासीर हो चला है। उनकी उंगलियां खुजली की ऐसी असाध्‍य बीमारी से ग्रस्‍त हैं जिसे किसी भी दवा से ठीक नहीं किया जा सकता। आप लाख समझा लीजिए, लाख देश के, समाज के हित की दुहाई दे दीजिए लेकिन उनकी खुजली तभी शांत होती है जब वे ऐसे दर्जन दो दर्जन संदेश दर्जन दो दर्जन बार फॉरवर्ड नहीं कर देते।

सरकार से लेकर विवेकशील लोगों की तमाम अपीलों के बावजूद बुधवार को सोशल मीडिया के शूरवीर बाज नहीं आए और उन्‍होंने ऐसी-ऐसी बातें, फोटो और वीडियो शेयर किए जो कतई नहीं किए जाने चाहिए थे। कई बार तो यह देख कर माथा पीटने का मन हुआ कि जिस ग्रुप पर ऐसी पोस्‍ट के खिलाफ उसी ग्रुप के लोग आपत्ति कर रहे थे वहीं पोस्‍ट डालने वाला अपनी दिमागी नंगई का खुलकर प्रदर्शन करते हुए इस बात पर अड़ा हुआ था कि आखिर इसमें गलत क्‍या है?

पत्रकारिता में एक सामान्‍य परंपरा या अघोषित संहिता रही है कि लोगों को विचलित करने वाले फोटो या वीडियो प्रदर्शित नहीं किए जाते। यदि उन्‍हें किसी कारण से प्रदर्शित करना अपरिहार्य ही हो तो ऐसी सामग्री को धुंधला (ब्‍लर) कर दिया जाता है। इसके साथ ही यह चेतावनी भी नत्‍थी की जाती है कि संबंधित सामग्री आपको विचलित कर सकती है।

लेकिन ऐसा लगता है कि फॉरवर्डबाजों को इन सब बातों से कोई लेना देना नहीं होता। वे आंख और दिमाग को बंद करके (या हो सकता है दोनों को पूरी तरह खोले रखते हुए भी) ऐसी सामग्री पटकते रहते हैं। जिगर मुरादाबादी का मशहूर शेर है- उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें/ मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे… लेकिन ऐसी सामग्री पटकने वालों का उसूल है- मेरा काम नफरत पटकना है, जहां तक पहुंचे…

कई ग्रुप पर तो बुधवार को कमाल का मैनेजमेंट चल रहा था। एक तरफ ऐसी सामग्री न डालने के उपदेश भी पोस्‍ट हो रहे थे और उन्‍हीं के समानांतर आपत्तिजनक सामग्री भी धड़ल्‍ले से डाली जा रही थी। कोई देखने सुनने वाला नहीं था। ग्रुप एडमिन या तो भांग खाकर पड़े हुए थे या शायद उन्‍हें इससे कोई सरोकार ही नहीं था कि उनके ग्रुप पर लोग किस तरह की सामग्री पोस्‍ट कर रहे हैं। और जब ग्रुप एडमिन को ही चिंता नहीं थी तो सामग्री पटकने वाले क्‍यों चिंता करते…

यही हाल टीवी मीडिया का भी था। एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ कहें या टीआरपी की दौड़, भाई लोगों ने बिना सोचे समझे ऐसी ऐसी ब्रेकिंग पटकी कि दिमाग झन्‍ना गया। और ऐसा किसी एक चैनल के साथ हो रहा हो यह भी नहीं था, करीब करीब सभी यही काम कर रहे थे। खुद को अव्‍वल साबित करने की होड़ा-होड़ी में समानता यदि थी तो सिर्फ इस बात की कि हरेक चैनल का एंकर दर्शकों को यह बताना नहीं भूल रहा था कि हम बहुत जिम्‍मेदारी(?) से कवरेज कर रहे हैं।

और यह जिम्‍मेदारी कितनी जिम्‍मेदारी से या कि कितनी गैर जिम्‍मेदारी से निभाई जा रही थी उसकी भी बानगी देख लीजिए। सुबह भारतीय सीमा में पाकिस्‍तानी विमानों की घुसपैठ की कोशिश के बाद कई हवाईअड्डों को अलर्ट किया गया और कई पर उड़ाने बंद कर दी गईं। इनमें अमृतसर का हवाईअड्डा भी शामिल था।

अब एक चैनल की रिपोर्टर अपनी किस्‍मत और दर्शकों की बदकिस्‍मती से लगभग उसी समय दिल्‍ली से अमृतसर हवाईअड्डे पर उतरी जब उड़ानों को रोकने की कार्रवाई की जा रही थी। उस रिपोर्टर ने विमानतल से बाहर निकलते ही मोर्चा संभाला और वहीं से लाइव शुरू कर दिया। विमानतल के प्रवेश द्वार से थोड़ी दूरी पर खड़े होकर वह रिपोर्टर अपने कैमरे से बार बार विमानतल का रास्‍ता जूम करके दिखाते हुए यह कहना भी नहीं भूल रही थी कि हमसे कहा जा रहा है कि हम हवाईअड्डे के फोटो न दिखाएं।

उस रिपोर्टर ने अपने इस महान कवरेज को आगे बढ़ाते हुए यह सूचना भी दी कि सुरक्षा बलों ने यहां बहुत सख्‍ती की है और सभी को हवाईअड्डे से दूर रहने को कहा गया है। वह यहीं नहीं रुकी, उसने हवाई अड्डे पर आने-जाने वाले यात्रियों के लाइव इंटरव्‍यू करना शुरू कर दिए और उनसे पूछने लगी कि आपके साथ क्‍या हुआ?

टीवी कैमरे पर पूछे जा रहे सवालों का यात्री अपने अपने हिसाब से जवाब दे रहे थे। उन जवाबों में इस बात को बहुत प्रमुखता से दिखाया गया कि- देखिए जी, हमें समय पर कोई सूचना नहीं दी गई। देखिए हम कितने परेशान हो रहे हैं, हमें फलां जगह से फलां जगह जाना था, अब क्‍या करेंगे, वगैरह… हैरत की बात तो यह रही कि संबंधित चैनल के मुख्‍यालय में बैठे किसी व्‍यक्ति ने इस तरह की सामग्री के प्रसारण को संपादित करने की जहमत नहीं उठाई।

अब सवाल सिर्फ इतना है कि जब मामला देश की सुरक्षा का हो तब हवाई अड्डों को पहले सैन्‍य जरूरत के लिए इस्‍तेमाल किया जाए या सामान्‍य यात्री परिवहन के लिए। हालांकि ये हवाई अड्डे थोड़ी देर बाद ही यात्री आवाजाही के लिए खोल दिए गए, लेकिन यह सवाल तो बना ही रहा कि जबान चलाने के लिए हम देश के लिए ये कर देंगे, वो कर देंगे जैसे बुक्‍काफाड़ दावे तो बहुत किए जाते हैं, लेकिन अपनी सुविधा में जरा सा खलल आए तो हम अपने वाली पर उतर आते हैं…

जो लोग देश पर आए संकट के दौर में अपनी यात्रा में जरा सा खलल बर्दाश्‍त नहीं कर सकते, और जो मीडिया देश की सुरक्षा के बजाय ऐसे लोगों की शिकायतों का प्रसारण ज्‍यादा जरूरी समझता हो, उनसे क्‍या आप किसी जिम्‍मेदार व्‍यवहार की अपेक्षा कर सकते हैं?

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