युद्ध विकल्‍प नहीं है, पर अयुद्ध भी विकल्‍प नहीं है

सोशल मीडिया पर इन दिनों एक कविता काफी शेयर हो रही है। यह कविता, कवि एवं रंगकर्मी मंजुल भारद्वाज की फेसबुक वॉल से उठाई गई है। मुझे भी यह कविता वाट्सएप पर एक मित्र ने भेजी। इस कविता और कविता से जुड़े मुद्दे पर बात करने से पहले वह कविता सुन लीजिए।

युद्ध होना चाहिए/ क्योंकि युद्ध से वीरता प्रमाणित होती है/ युद्ध होना चाहिए/ कायरता का दाग मिटाने के लिए/ युद्ध होना चाहिए/ क्योंकि युद्ध से राष्ट्रभक्ति सिद्ध होती है/ युद्ध होना चाहिए/ क्योंकि दुश्मन को मिटाना है/ युद्ध होना चाहिए/ क्योंकि सत्ता हासिल करनी है/ युद्ध होना चाहिए/ क्योंकि हथियार बनाने वाले देशों को हथियार बेचने हैं/ युद्ध होना चाहिए/ क्योंकि मेरे अंदर का पशु चाहता है/ युद्ध तब तक होते रहना चाहिए/ जब तक मेरे भीतर इंसान होने की चेतना/ परास्त ना हो जाए/ युद्ध तब तक होना चाहिए/ जब तक मेरे भीतर का पशु/ हिंसा की जयजयकार में पागल हो/ दुनिया को नेस्तनाबूद ना कर दे/ युद्ध होना चाहिए/ जब तक सत्ता अपनी कमजोरियां छुपा ना ले/ युद्ध होना चाहिए/ जब तक माताएं सन्तान पैदा करती रहें/ युद्ध होना चाहिए/ जब तक बच्चे भूखे मरते रहें/ युद्ध होना चाहिए/ जब तक माथे का सिंदूर उजड़ता रहे/ युद्ध होना चाहिए/ जब तक एक भी सर जिंदा है/ युद्ध होना चाहिए/ क्योंकि दुश्मन चाहता है/ युद्ध होना चाहिए/ बदला लेने के लिए/ युद्ध होना चाहिए/ भीड़ चाहती है युद्ध हो/ युद्ध पराक्रम, शौर्य की गाथा है/ युद्ध हो क्योंकि कुरुक्षेत्र हुआ था/ युद्ध हो क्योंकि कलिंग हुआ था/ युद्ध हो क्योंकि मानवता हार गई है/ युद्ध हो क्योंकि सभ्यताएं पाखंड हैं/ युद्ध हो क्योंकि अहिंसा,शांति,पाखंड हैं/ युद्ध हो जब तक एक भी जीवित है/ युद्ध हो… युद्ध होना चाहिए?

कहने की जरूरत नहीं कि इस कविता का वर्तमान संदर्भ क्‍या है और यह क्‍यों लिखी गई है। इस पर भी ज्‍यादा बात और बहस करने की जरूरत नहीं कि सोशल मीडिया पर इसे क्‍यों शेयर किया जा रहा है। पर हां इस कविता में दो बातें ध्‍यान देने वाली हैं। एक तो यह कि इसके लेखक ने संकेतों में, युद्ध की बात करने वालों पर बहुत तीखा तंज किया है। और दूसरी बात यह कि पूरी कविता में उसी तंज को आधार बनाते हुए युद्ध की जरूरत बताने के बावजूद, कवि ने कविता का अंत प्रश्‍नवाचक चिह्न के साथ इस वाक्‍य से किया है कि- युद्ध होना चाहिए?

यानी यह कविता युद्ध की जरूरत को स्‍थापित करने या मान्‍यता देने वाली नहीं बल्कि यह सवाल उठाने वाली है कि क्‍या युद्ध होना चाहिए? पुलवामा की घटना के बाद टीवी चैनलों ने जिस तरह देश में युद्ध का उन्‍माद भड़काया उसकी चर्चा मैं कल कर चुका हूं। पर वर्तमान परिदृश्‍य में उस ‘लोकप्रिय धारा’ के विपरीत देश में कुछ स्‍वर ऐसे भी आ रहे हैं जो संवाद को युद्ध का विकल्‍प बताने वाले हैं।

जाहिर है जब चारों तरफ से आग बरस रही हो तो आप अपने आसपास बर्फ की कल्‍पना भी नहीं कर सकते। यही कारण है कि आज जो भी युद्ध के बजाय संवाद की बात कर रहा है वह खुद सोशल मीडिया का टारगेट बन गया है। फिर चाहे वह खिलाड़ी से नेता और नेता से मसखरा बने नवजोत सिद्धू हों या फिर चर्चित अभिनेता कमल हासन या कोई और…

सैद्धांतिक रूप से इस बात में कोई दो राय ही नहीं हो सकती कि युद्ध किसी भी समस्‍या का हल या विकल्‍प नहीं है। युद्ध अंतत: मानवता के खिलाफ मानव समाज द्वारा ही किया जाने वाला ऐसा अपराध है जो करती तो एक पीढ़ी है लेकिन उसके नतीजे न जाने कितनी पीढि़यों को भुगतने पड़ते हैं।

लेकिन जब भी हम युद्ध के खिलाफ बात करते हैं तो हम यह भी नहीं भूल सकते कि युद्ध करने और आप पर युद्ध थोप दिए जाने में बहुत अंतर है। इन दिनों खासतौर से कश्‍मीर में जो हो रहा है वह युद्ध को थोप दिए जाने जैसा ही है। और जब आप के न चाहते हुए भी आप पर युद्ध थोप दिया जाए तो आप युद्ध को वर्जित मानते हुए दुश्‍मन को अपनी गर्दन प्रस्‍तुत भी नहीं कर सकते।

मानाकि युद्ध विभीषिका है, वह मानव रक्‍त से खेला जाने वाला एक ऐसा खेल है जिसका अंत नरसंहार में ही होता है। लेकिन कश्‍मीर में जो हो रहा है क्‍या वह नरसंहार नहीं है। इस नरसंहार को रोकने के उपाय को आप कोई भी नाम दीजिए पर वह आपको किसी भी कीमत पर रोकना ही होगा। किसी भी युद्ध का परिणाम मानव समाज के हित में नहीं होता लेकिन फिर भी मानव सभ्‍यता का इतिहास युद्ध से भरा पड़ा है। कई बार ये युद्ध अकारण या दूसरों पर राज करने की अदम्‍य लालसा के कारण हुए हैं तो कई बार समाजों को मजबूरन युद्ध के मैदान में उतरना पड़ा है।

जब भी युद्ध की बात होती है हम महाभारत का उदाहरण देते हैं। लेकिन यह महाकाव्‍य भी बताता है कि कुरुक्षेत्र में आमने सामने होने से पहले ऐसी कई कोशिशें हुई थीं जिनके पीछे युद्ध को टालने या न होने देने की नीयत थी। पर ऐसी तमाम कोशिशों के बावजूद कुरुक्षेत्र को टाला नहीं जा सका। और युद्ध के संदर्भ में हम महाभारत तक ही क्‍यों टिक जाते हैं, स्‍वयं मर्यादापुरुषोत्‍तम राम को भी तो अंतत: युद्ध ही करना पड़ा था।

प्रश्‍न सिर्फ इतना है कि युद्ध से हमारा तात्‍पर्य क्‍या है। क्‍या युद्ध हमारे लिए सिर्फ एक चिह्नित इंसान या चिह्नित देश की गरदन काट डालने या उसे खत्‍म कर देने का सबब है या फिर हम उसे किसी समस्‍या के अंतिम और अपरिहार्य समाधानकारी उपाय के रूप में देखते हैं। हम उन्‍मादी होकर युद्ध के लिए तत्‍पर हो रहे हैं या फिर युद्ध का विकल्‍प चुनने से पहले अपनी बुद्धि और विवेक का भी इस्‍तेमाल कर रहे हैं। क्‍योंकि युद्ध तो गांधी ने भी किया था। जब देश और समाज के अस्तित्‍व को ही खतरा पैदा हो जाए तब युद्ध कई बार अपरिहार्य हो जाता है। लेकिन अविवेकी होकर न तो युद्ध की बात करना उचित है और न अयुद्ध की।

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