अजय बोकिल
अगर यह महज सुर्खी बटोरने के लिए किया गया उपक्रम नहीं है तो भाजपा सांसद वरूण गांधी की इस अपील में दम है कि देश के अमीर सांसद वर्तमान लोकसभा के बाकी बचे कार्यकाल के लिए अपना वेतन छोड़ने के लिए आंदोलन शुरू करें। सांसद वरूण गांधी ने यह अपील बाकायदा लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन को चिट्ठी लिखकर की है।
पत्र में वरूण ने भारत में दिनोदिन बढ़ती आर्थिक असमानता का हवाला देते हुए कहा कि हमारे देश में 1 प्रतिशत अमीर देश की कुल संपदा के 60 प्रतिशत के मालिक हैं। जबकि 1930 में 21 प्रतिशत लोगों के पास इतनी संपदा थी। आज भारत में 84 अरबपतियों के पास देश की 70 प्रतिशत संपदा है। यह आर्थिक खाई हमारे लोकतंत्र के लिए हानिकारक है। ऐसे में बेहतर होगा कि बतौर जनप्रतिनिधि सांसद अपने वेतन भत्ते खुद छोड़ने की पहल करें। निर्वाचित प्रतिनिधि के तौर पर हमे देश की सामाजिक, आर्थिक हकीकत के प्रति सक्रिय होना चाहिए।
वरूण गांधी की इस अपील पर किसी जनप्रतिनिधि ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। कोई उनके समर्थन में भी नहीं आया है। क्योंकि असल में यह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। हालांकि वरूण यह भी मानते हैं कि सभी सांसदों की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। कुछ तो अपनी आजीकविका के लिए सरकारी वेतन भत्तों पर ही निर्भर हैं। लेकिन ऐसे सांसदों की संख्या बहुत कम है। वरूण ने वेतन छोड़ने की पहल का एक विकल्प यह भी सुझाया है कि अगर सांसद वेतन छोड़ना नहीं चाहते तो कम से कम इसे बढ़ाने से तो बचें। वरूण का मानना है कि ऐसी किसी स्वैच्छिक पहल से निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की संवेदनशीलता को लेकर देश भर में सकारात्मक संदेश जाएगा।
वरूण गांधी ने यह अपील अभी क्यों की, इस अपील के पीछे असली कारण क्या है, इस पर विचार करने से पहले यह जानना भी जरूरी है कि सांसदों- विधायकों को बतौर वेतन भत्ते मिलता क्या है और जो मिलता है, वह भी उन्हें कम क्यों पड़ता है? उनकी तनख्वाहों और सुविधाअों पर अंकुश रखने के लिए भी क्या कोई वैधानिक संस्था होनी चाहिए या नहीं या फिर जनप्रतिनिधि हो जाने का मतलब खुदा हो जाना है।
देश में सांसदों और विधायकों को अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने का वैधानिक अधिकार है। यह ‘सांसदों के वेतन, भत्ते और पेशंन अधिनियम 1954’ के तहत तय होता है। जब भी इसमे वृद्धि की जाती है, तब अधिनियम में संशोधन करना पड़ता है। सांसदों के लिए यह काम संसद में और विधायकों के लिए विधानसभा में होता है। सांसदों की पिछली वेतन वृद्धि 2010 में की गई, जब उनका वेतन 16 हजार से बढ़ाकर 50 हजार किया गया।
केवल वेतन की राशि देखें तो यह बहुत कम लग सकती है, लेकिन सांसदों को अन्य दूसरे भत्ते व सुविधाएं काफी मिलती हैं। मसलन सत्र के दौरान 2 हजार रू. प्रतिदिन डीए, संसदीय क्षेत्र भत्ता 45 हजार रू. प्रति माह, आॅफिस खर्च भत्ता 15 हजार रू. प्रति माह, यात्रा भत्ता, तीन टेलिफोन कनेक्शन पर डेढ़ लाख फ्री काॅल्स प्रति माह, दो मोबाइल फोन कनेक्शन, हर माह 4 हजार लीटर प्रति माह मुफ्त पानी, 50 हजार यूनिट प्रति माह फ्री बिजली के अलावा फर्नीचर तथा कुछ और सुविधाएं भी शामिल हैं।
मोटे तौर पर एक सांसद को हर माह पौने तीन से तीन लाख रू. तक पड़ते हैं। इस पर उनका कोई टैक्स नहीं कटता। विधायकों को औसतन 2 से ढाई लाख रू. तक ( हर राज्य के अनुसार) हर माह मिलते हैं। हालांकि कई सांसदों और विधायकों को यह रकम भी काफी कम लगती है। उनका तर्क है कि एक जनप्रतिनिधि के रूप में उनके जो खर्चे हैं, उसकी तुलना में जो वेतन भत्ते उन्हें मिलते हैं, वे काफी कम हैं। दो- तीन लाख में आजकल होता ही क्या है?
चूंकि वे निर्वाचित प्रतिनिधि हैं, इसलिए उन्हें आलातरीन अफसरों से भी ज्यादा वेतन मिलना चाहिए। यह उनके सम्मान और गरिमा का भी प्रश्न है। ऊंचा वेतन उनकी हैसियत को भी स्थापित करता है। यह बात अलग है कि वर्तमान 16 वीं लोकसभा में 442 सांसद करोड़पति हैं। इनमें से एक के पास तो 683 करोड़ की सम्पत्ति है। यानी कुल में से 82 फीसदी सांसद तो वैसे ही करोड़पति हैं। फिर इन्हें और ज्यादा वेतन भत्तों की क्या जरूरत है? खासकर तब कि जब देश में लाखों लोगों को रोज दो जून की भी ठीक से नहीं मिल पाती हो।
वरूण की अपील इस प्रश्न की अोर भी ध्यान आकर्षित करती है कि वेतन-भत्ते निर्धारण के मामले में जनप्रतिनिधियों की हैसियत ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ की क्यों है?’ क्यों वे जब चाहे अपनी तनख्वाहें और भत्ते बढ़ा लेते हैं। यह एक ऐसा मुददा है, जिस पर पक्ष-विपक्ष एक सुर में बोलते हैं। बहस होती भी है तो सिर्फ इस पर कि वेतन बढ़ाना क्यों जरूरी है। एक झटके में पास होने वाला विधेयक भी यही है।
दुनिया के कई देशों में जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्ते निर्धारित करने या बढ़ाने के बारे में कुछ स्वतंत्र निकाय होते हैं। भारत में भी ऐसी बात उठती रही है, लेकिन अंकुश कोई नहीं चाहता। वरूण ने सुझाव दिया कि ब्रिटेन की रिव्यू बॉडी आॅन सीनियर सैलरी की तरह एक स्वतंत्र वैधानिक संस्था की स्थापना की जा सकती है जो ऐसे फैसले की वहनीयता और सांसद की वित्तीय क्षतिपूर्ति की जांच करेगी और फैसला करेगी।
वरूण गांधी आजकल अपनी ही पार्टी भाजपा में हाशिए पर चल रहे हैं। खुद उनके कांग्रेस में जाने की खबरें भी जब- तब उड़ती रहती हैं। इंसान कई बार अपने ही पर काटने की बात तब करता है, जब उसे कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझता। वरूण की अपील विचारणीय तो है, लेकिन उसे नैतिक बल भी मिलता, अगर वह अपील के साथ यह ऐलान भी कर डालते कि अगले माह से जनहित में मैं अपने सभी वेतन भत्ते छोड़ता हूं!