राकेश अचल
बात उन दिनों की है जब सिनेमा देखने का भूत हर किशोर वय के बच्चे के सर पर सवार होता था। मैं भी उसी पीढ़ी का बच्चा था। स्कूल-कॉलेज या ट्यूशन जाने के बहाने सिनेमा देखना एक बीमारी बन चुका था। उन्हीं दिनों अपने शहर की डिलाइट टाकीज में ‘ गोमती के किनारे’ फिल्म देखी थी। उन दिनों फिल्म पोस्टर पढ़ने के बाद देखी जाती थी| तब फिल्मों के प्रमोशन के लिए न तो टीवी था और न अभिनेता शहर-शहर भटकते फिरते थे।
‘गोमती के किनारे’ फिल्म देखने की मुख्य वजह अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी थी। मीना कुमारी का मैं दीवाना था। दीवानगी की वजह उनका धीर-गंभीर अभिनय और पुरकैफ़ आवाज थी। मैं मीना जी की लगभग हर फिल्म देखता था। फिल्म में संगीत किसका है, निर्देशक और निर्माता कौन है? ये सब गौण बातें थीं। लेकिन जब होश सम्हाला तो ये भी जाना की कौन सी फिल्म, किस निर्माता ने बनाई थी। सावन कुमार टाक को इस फिल्म के माध्यम से जाना था। उनके बारे में तब निकलने वाली फ़िल्मी पत्रिकाओं में भी खूब पढ़ा। धीरे-धीरे वे भी अपने से लगने लगे। उनके लिखे गीत भी जुबान पर चढ़ गए।
गोमती के किनारे के बाद सावन कुमार की दूसरी फिल्म ‘हवस’ देखी। ये फिल्म ‘ए’ सर्टिफिकेट फिल्म थी। फिल्म में मेरे पसंदीदा अभिनेता अनिल धवन और नयी अभिनेत्री नीतू सिंह थीं। फिल्म की कहानी तो जो थी सो थी लेकिन एक गीत ‘तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम’ बेहद लोकप्रिय था। मुहम्मद रफी साहब ने इस गीत को गाया था। फिल्म खूब चली और सावन कुमार टाक साहब भी। ऐसे सावन कुमार 86 साल की उम्र में हमेशा के लिए अलविदा कह गए। उन्होंने भादों के महीने में प्रस्थान किया। शायद उन्हें यही मौसम सबसे ज्यादा पसंद रहा होगा।
सावन कुमार टाक का नाम वाबस्ता होने की वजह से 2000 में उनकी फिल्म ‘कहो न प्यार है’ भी देखी। पिछले दो दशक से सिनेमा के प्रति आकर्षण कम जरूर हुआ लेकिन जब भी मौक़ा मिला सावन कुमार टाक साहब की तमाम फ़िल्में अवश्य देखीं। वे सिनेमा में नए और ज्वलंत विषयों पर फ़िल्में बनाने का जोखिम उठाते रहे। नए अभिनेताओं पर भी उन्होंने दांव लगाया और उनका नसीब देखिये कि वे हर बार कामयाब हुए। अपने जमाने के मशहूर अभिनेता संजीव कुमार हों या हास्य अभिनेता जूनियर मेहमूद, टाक साहब की ही देन कहे जा सकते हैं। टाक साहब संकोची लेकिन मस्तमौला तबीयत के आदमी रहे।
सावन कुमार टाक को युवाओं की पसंद की खासी पहचान थी। वे संवेदनशील विषयों को चुनते थे। उनकी फिल्मों की कहानियां काफी हद तक ‘बोल्ड’ भी कही जा सकती हैं। उनके लिखे गीत फौरन जुबान पर चढ़ते रहे। एक लेखक और निर्माता को इससे ज्यादा क्या चाहिए? मुझे याद आता है कि 1991 में बनी बॉलीवुड फिल्म ‘सनम बेवफ़ा’ का निर्माण और निर्देशन सावन कुमार टाक ने किया था। इस फिल्म से सलमान खान को जमकर लोकप्रियता हासिल हुई थी। इस फिल्म में सलमान खान, चांदनी, प्राण और डैनी डेनजोंगपा मुख्य भूमिका में थे। फिल्म को इतनी लोकप्रियता मिली कि इसे बंगाली भाषा में ‘डेन मोहोर’ नाम से बनाया गया। सावन कुमार का एक गीत ‘जिंदगी प्यार का गीत है…’ उस दौर में हर जुबान पर चढ़ा हुआ था, शायद हर व्यक्ति ने इस गीत को कभी न कभी गुनगुनाया भी हो।
सावन कुमार ने बतौर प्रोड्यूसर अपने कॅरियर की शुरुआत 1967 की फिल्म ‘नौनिहाल’ से की थी, जिसमें संजीव कपूर केंद्रीय भूमिका में थे। पहली ही फिल्म को नैशनल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था। किम्वदंतियां है कि सावन कुमार ‘ट्रैजडी क्वीन’ मीना कुमारी की जिंदगी का आखिरी हिस्सा थे। जब फिल्म ‘गोमती के किनारे’ बनाने के लिए सावन कुमार के पास पैसे खत्म हुए तो मीना कुमारी ने अपना बंगला तक बेच दिया था। इसी फिल्म के सेट पर मीना कुमारी इन पर फिदा हो गई थीं। दोनों की शादी होते-होते रह गयी। बाद में सावन कुमार ने संगीतकार उषा खन्ना से शादी की, लेकिन ज्यादा देर चली नहीं। सावन कुमार की जिंदगी में एक ही कमी रही कि वो संतान का सुख नहीं ले सके।
सावन कुमार चूंकि परदे के पीछे रहकर काम करने वाले कलाकार थे, इसलिए उनका जाना सुर्ख़ियों में नजर नहीं आता। लेकिन उनका न होना फ़िल्मी दुनिया को हमेशा एक रिक्तता अनुभव कराता रहेगा। राजस्थान की राजधानी जयपुर में जन्मे सावन कुमार यदि फिल्म निर्माता न होते तो मुमकिन है कि अभिनेता होते। वे घर से 45 रुपये लेकर निकले ही थे अभिनेता बनने, लेकिन बन गए फिल्म निर्माता और गीतकार। पृथ्वीराज कपूर को अपनी प्रेरणा मानने वाले सावन कुमार को सत्यजीत राय ने जो गुरुमंत्र दिया उसने सावन कुमार के जीवन की दिशा बदल दी।
स्वयं कुमार किसी राजनीतिक दल के सदस्य न थे लेकिन उस दौर के नेता उन्हें भी आकर्षित करते थे। एक बार सावन कुमार ट्रेन से एक दोस्त से मिलने जा रहे थे और रास्ते में जवाहर लाल नेहरू के निधन की खबर आई। ट्रेन के डिब्बे में सब रो रहे थे। इसी हालात को देखकर उन्होंने फिल्म ‘नौनिहाल’ बनाई। ये फिल्म बॉक्स ऑफिस सफल तो नहीं हुई पर इस फिल्म ने सावन कुमार को पहचान जरूर दिलाई। इस फिल्म के गाने को सुनकर इंदिरा गांधी भी प्रभावित हुईं थीं। सावन कुमार टाक जैसे निर्माता अब पैदा नहीं होते, इसलिए उनकी कमी बहुत दिनों तक महसूस की जाएगी। लेकिन जब-जब फिजाओं में ‘तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम’ गीत गूंजेगा तब-तब सावन कुमार की याद में उनके प्रशंसकों की आँखों से सावन-भादों बरसेंगे। विनम्र श्रद्धांजलि!
(मध्यमत)
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