मैक्‍समूलर और मैकाले का षडयंत्र बनाम आदिवासी दिवस

हरिहर शर्मा

भारत पर अपना औपनिवेशिक प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद ब्रिटिश हुक्मरानों को यह समझ में आ गया कि इस राष्ट्र की शाश्वतता, इसकी संजीवनी शक्ति इसकी संस्कृति में है और इसकी संस्कृति का संवाहक है यहां का विपुल साहित्य और शिक्षण पद्धति। यह जान लेने के बाद उन्होंने भारतवासियों की राष्ट्रीय चेतना को नष्ट-भ्रष्ट कर इसे सदा-सदा के लिए अपने साम्राज्य के अधीन उपनिवेश बनाये रखने की अपनी दूरगामी कूट्नीतिक योजना के तहत भारतीय संस्कृति पर हमला करने हेतु सर्वप्रथम भारतीय साहित्य को निशाना बनाया और अंग्रेजी-शिक्षण पद्धति को उसका माध्यम।

इसी योजना के तहत ईस्ट इंडिया कम्पनी ने ऋग्वेद को छपवाने के लिए मैक्समूलर को नौ लाख रुपये नगद दिए| इतना ही नहीं तो सैकड़ों वैदिक पंडितों को मासिक वेतन देकर इस कार्य हेतु नियत किया गया। मैक्समूलर ने इसकी भूमिका में लिखा कि इसको लिखने में 25 वर्ष लगे और फिर छपवाने में 20 वर्ष।  इस प्रकार 45 वर्ष तक वे केवल एक ही पुस्तक में लगे रहे।

उसके बाद ब्रिटिश राजनीतिज्ञों, प्रशासकों और कूटनीतिज्ञों ने एक सदी (1846-1947) तक लगातार फ्रेडरिक मैक्समूलर को वेदों के महान विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी योजना सफल हुई और उन्नीसवीं सदी के सरल हृदय हिन्दुओं ने उसे ही सच मान लिया जो कि मैक्समूलर ने कहा और लिखा। मैक्‍समूलर ने कहा वेद केवल तीन हजार साल पहले लिखे गए, हमने मान लिया।

अब सवाल यह उठता है कि मैक्समूलर वास्तव में वेदों और हिन्दू धर्म शास्त्रों का प्रशंसक होने के कारण वेदों, उपनिषदों, दर्शनों आदि के उदात्त, प्रेरणादायक और आध्यात्मिक चिंतन को अंग्रेजी माध्यम से विश्वभर में फैलाना चाहता था या वह 1857 के स्वतंत्रता समर के बाद घबराये अंग्रेजों की योजनानुसार किसी रणनीति पर काम कर रहा था? सोचने वाली बात है कि आखिर ईस्ट इंडिया कंपनी ने अंग्रेजी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं के ज्ञान में अधकचरे, चौबीस वर्षीय, अनुभवहीन गैर-ब्रिटिश, जर्मन युवक मैक्समूलर को ही वेदभाष्य के लिए क्यों चुना?

अगर ध्यान से उस समय की घटनाओं को एक सूत्र में पिरोयें तो बहुत कुछ समझ में आ जाएगा। वस्तुतः मैक्‍समूलर को बढ़ावा देना मैकाले की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा था। क्योंकि 2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में उसने कहा ही था- ‘’मैंने सारे भारत का भ्रमण किया है और मैंने एक भी व्यक्ति को चोर और भिखारी नहीं पाया है। मैंने इस देश में इतनी सम्पदा देखी है तथा इतने उच्चनैतिक आदर्श देखे हैं और इतने उच्च योग्यता वाले लोग देखे हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी इसे जीत पाएंगे जब तक कि इसके मूल आधार को ही नष्ट न कर दें जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर है और इसीलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम उसकी प्राचीन और पुरानी शिक्षा पद्धति और उनकी इस संस्कृति को बदल दें क्योंकि यदि भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ विदेशी और अंग्रेजी है, वह उनकी अपनी संस्कृति से अच्छा और उत्तम है तो वे अपना स्वाभिमान एवं भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे वैसे ही हो जायेंगे जैसा कि हम चाहते हैं, पूरी तरह एक पराधीन राष्ट्र।

उसके बाद आई मैकाले की वह शिक्षा नीति, जिससे आत्ममुग्ध हो उसने 12 अक्टूबर 1836 को, अपने पिता को लिखे एक पत्र में अपने हाथों से अपनी पीठ थपथपाई-

‘’हमारी शिक्षा पद्धति का हिन्दुओं पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ रहा है। कोई भी हिन्दू जिसने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर ली है, वह निष्ठापूर्वक हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ नहीं रहता है। कुछ एक, औपचारिक रूप में, नाम मात्र के लिए हिन्दू धर्म से जुड़े दिखाई देते हैं, लेकिन अनेक स्वयं को निराकार पूजककहते हैं तथा कुछ ईसाई मत अपना लेते हैं। यह मेरा पूरा विश्वास है यदि हमारी शिक्षा की योजनाएँ चलती रहीं तो तीस साल बाद बंगाल के सम्भ्रान्त परिवारों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रहेगा और ऐसा किसी प्रकार के प्रचार एवं धर्मान्तरण किए बगैर हो सकेगा। किसी धार्मिक आजादी में न्यूनतम हस्तक्षेप न करते हुए ऐसा हो सकेगा। ऐसा स्वाभाविक ज्ञान देने की प्रक्रिया द्वारा हो जाएगा। मैं हृदय से उस योजना के परिणामों से प्रसन्न हूँ।

एक ईसाई पादरी ने भी लिखा कि प्रत्येक ईसाई मिशनरी यह निश्चित तौर पर जानते हैं कि भारत में मिशन स्कूलों का निश्चित उद्‌देश्य क्या है। वे जानते हैं कि भारत में मिशन स्कूलों का कार्य लड़के और लड़कियों को जीजस क्राइस्ट की ओर ले जाने का है। इसी निश्चित उद्देश्य के प्रति मैक्समूलर को सचेष्ट करने हेतु दिसम्बर 1855 में मैकॉले ने उसे मिलने को बुलाया। इस भेंट का सम्पूर्ण वृतांत अपनी माँ को लिखे पत्र में मैक्समूलर ने स्वयं वर्णन किया है-

‘’इस बार मैं लंदन में मैकाले से मिला और उसके साथ मेरी भारत भेजे जाने वाले नौजवानों को क्या सिखाकर भेजा जाए, इस विषय पर लम्बी बातचीत हुई। निश्चित ही उसके विचार एकदम स्पष्ट हैं और वह असाधारण रूप से वाक्‌पटु व्यक्ति है।  मैं ऑक्सफोर्ड वापिस लौटा, दुःखी होकर, किन्तु शायद, अधिक समझदार मनुष्य बनकर।

मूलर के जीवनी लेखक नीरद चौधरी का मत है कि ‘इस भेंट के बाद उसने एक बहुरुपिया जैसा खेल खेला जिससे कि ब्रिटिशों के राजनैतिक उद्‌देश्यों की भी पूर्ति होती रहे और भारतीयों को भी शब्द जाल में बहकाए रखा जाये? मैक्समूलर ने हृदय की भावनाओं को 15 दिसम्बर 1866 को अपनी पत्नी को लिखे पत्र में इस प्रकार व्यक्त किया, जो उसके निधन के बाद, 1902 में उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसकी जीवनी में प्रकाशित किये –

‘’मुझे आशा है कि मैं इस काम को पूरा कर दूंगा और यद्यपि मैं उसे देखने के लिए जीवित न रहूँगा तो भी मेरा ऋग्वेद का यह संस्करण और वेद का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों की आत्माओं के विकास पर प्रभाव डालने वाला होगा। यह वेद उनके धर्म का मूल है और मूल को उन्हें दिखा देना उनको मूल सहित उखाड़ फेंकने का सबसे उत्तम तरीका है।‘’

मैक्समूलर स्वयं स्वीकार रहा है और स्पष्ट कह रहा है कि उसके द्वारा वेद और हिन्दू धर्म शास्त्रों के भाष्यादि का उद्‌देश्य हिन्दू धर्म को जड़ से उखाड़ फेंकना है। यदि श्रीमती जोर्जिना उसके अप्रकाशित पत्रों को प्रकाशित न करतीं तो विश्व उस छद्‌मवेशी व्यक्ति के असली चेहरे को आज तक भी नहीं जान पाता। इसी योजना के तहत उसने वेदों को केवल तीन हजार वर्ष पूर्व का घोषित किया और यहीं से शुरू हुई अंग्रेजों की कुटिल नीति।  पाश्चात्य इतिहासकारों ने प्रचारित करना शुरू किया कि चूंकि मोहन जोदड़ो के पुरातत्व अवशेष पांच हजार साल पुराने हैं, अतः निश्चित ही वे वेद पूर्व सभ्यता के लोग रहे होंगे, जिन्हें बाहर से आये आर्य लोगों ने नष्ट कर दिया या पराजित कर जंगलों में भगा दिया और उनके शहरों पर स्वयं कब्जा कर लिया।

उद्देश्य साफ़ था, यह दर्शाना कि जैसे हम बाहर से आये हैं, भारतवासी भी बाहरी ही हैं। यहाँ के मूल निवासी तो जंगलों में रहने वाले ही हैं, जिन्हें आक्रमणकारी आर्यों ने खदेड़ कर वनवासी बना दिया। उसी मानसिकता के साथ वनवासी समाज को नाम दिया गया– आदिवासी।  अर्थात वे ही भारत के मूल निवासी हैं, शेष लोग तो आक्रमणकारी आर्यों की संतान हैं, जो बाहर से आये हुए विदेशी हैं। जैसे हम विदेशी, वैसे ही वनों में रहने वाले आदिवासियों के अतिरिक्त हर भारतवासी भी विदेशी। यह देश नहीं धर्मशाला है, लोग आते गए, बसते गए।

किन्तु ज्यूं ज्यूं मोहन जोदड़ो पर शोध आगे बढ़ा, इस मिथ्या धारणा की हवा निकलना शुरू हो गई। मोहन जोदड़ो से प्राप्त शिव फलक में स्पष्ट रूप से सिन्धु घाटी की लिपि में ही वेदों के नामों का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त हुआ और पश्चिमी विद्वानों की धारणाओं की मिटटी पलीद हो गई। अर्थात यह सिद्ध हो गया कि वेद पांच हजार साल से भी अधिक प्राचीन हैं। और साथ ही यह भी कि आर्य और मोहनजोदड़ो सभ्यता अलग अलग नहीं हैं, जिस प्रकार आज हमारे यहाँ अनेक भाषायें हैं, उस समय भी थीं।  कुछ संस्कृत बोलते थे, कुछ सिन्धु घाटी सभ्यता की द्रविड़ पूर्व (प्रोटो द्रविडि़यन) भाषा।

आर्य सभ्यता और द्रविडि़यन सभ्यता साथ साथ चलीं, जैसे आज हैं। आर्य अगर कहीं बाहर से आये होते, तो जहाँ से आये हैं, वहां कुछ तो उनका प्रमाण उपलब्ध होता। लेकिन दुर्भाग्य से मैकाले की शिक्षा पद्धति से निकले काले अंग्रेजों ने तो वही मानना शुरू कर दिया, जो उनके मानसिक स्वामी ने बताया, भले ही वह कितना ही अप्रामाणिक और झूठ ही क्यों न हो।

अब बात 9 अगस्त आदिवासी दिवस की।  सचाई यह है कि 1492 में कोलम्बस के अमेरिका पहुंचने के बाद वहां के मूल निवासी ‘रेड इंडियन’ पर गोरी चमड़ी वालों ने अकथनीय अत्याचार किए। उन्हें गुलाम बनाया, वे खरीदे बेचे गए। लेकिन इस सबके बावजूद कुछ संगठनों द्वारा 1992 में कोलम्बस के अमेरिका में आने के 500 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में वहाँ एक बड़ा जश्न मनाने की तैयारी की गई। यह अमेरिका के मूलनिवासियों के जले पर नमक छिड़कने जैसा था, अतः स्वाभाविक ही इस आयोजन का विरोध किया गया।

उसके बाद 1994 से 9 अगस्त को आदिवासी दिवस अथवा ‘ट्राइबल डे’ अथवा मूलनिवासी दिवस मनाने की शुरुआत हुई। इसका लक्ष्य था ऐसे प्रदेश या देश के मूलनिवासियों को उनके अधिकार दिलाना जिन्हें अपने ही देश में दूसरे दर्जे की नागरिकता प्राप्त हो। सरल शब्दों में आक्रांताओं द्वारा उन पर किए गए अत्याचारों के कारण उनकी दयनीय स्थिति में सुधार लाने के कदम उठाना।

जरा विचार कीजिए कि भारत में तो ऐसी स्थिति कुछ है नहीं, फिर यहाँ 9 अगस्त जैसा दिवस मनाने का क्या औचित्य है? लेकिन भारत को टुकड़े-टुकड़े देखने की इच्छा रखने वाले लोग कहाँ मानने वाले हैं। मैकाले के ये मानस पुत्र अलगाववाद को हवा देने में जुटे हुए हैं, उससे सावधान रहने की जरूरत है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here