गिरीश उपाध्याय
मध्यप्रदेश विधानसभा में मंगलवार को जो कुछ हुआ, वह कई सारी मान्य अथवा प्रचलित धारणाओं को गलत साबित करने के लिए पर्याप्त है। धारणा इस बात की कि मध्यप्रदेश में कानून और व्यवस्था का राज है। धारणा इस बात की कि मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने सुशासन की मिसाल कायम की है। धारणा इस बात की कि मध्यप्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में कहीं कोई माफिया शामिल नहीं है। धारणा इस बात की भी कि मध्यप्रदेश में सरकार नाम की कोई चीज कायम है। और धारणा इस बात की कि जिस दल की प्रदेश में सत्ता हो उसके जनप्रतिनिधि बड़े मजे मारते हैं, प्रशासन उनके इशारों पर नाचता है।
विधानसभा की 26 जुलाई 2016 की कार्यवाही इन सभी धारणाओं के मद्देनजर इतिहास का ऐसा हिस्सा बनेगी, जिसे न सिर्फ मौके बेमौके याद किया जाएगा, बल्कि राजनीतिक हिसाब-किताब बराबर करने के लिए बरसों तक उसका हवाला दिया जाता रहेगा। यह मामला लंबे समय से मध्यप्रदेश में सुर्खियों में बने हुए खनिज संपदा के अवैध दोहन से जुड़ा है। प्रश्नकाल में छतरपुर जिले के चंदला विधानसभा क्षेत्र से सत्तारूढ़ दल के विधायक आर.डी. प्रजापति ने मध्यप्रदेश व उत्तरप्रदेश के खनन माफिया द्वारा केन नदी में लगातार किए जा रहे अवैध उत्खनन का मामला उठाया था। उनका आरोप था कि खनिज माफिया प्रतिदिन 800 से 1000 ट्रक रेत नदी में से निकाल रहा है जबकि उसे इसकी कोई अनुमति नहीं दी गई है। इससे पर्यावरण को नुकसान के साथ ही शासन को करोड़ों रुपए की राजस्व हानि हो रही है।
प्रजापति ने बहुत ही संगीन आरोप लगाते हुए कहा कि लोगों को डराने धमकाने के लिए रेत माफिया आए दिन फायरिंग करते हैं, ऐसी ही फायरिंग में दो लोगों की जान जा चुकी है। जैसा कि तय था, खनिज साधन मंत्री राजेंद्र शुक्ल ने विधायक की तमाम बातों को बेबुनियाद ठहरा दिया। जबकि विधायक का कहना था कि मंत्री को गलत जानकारी दी गई है।
विधानसभा में लगातार जो दृश्य देखने को मिल रहा है, उसमें एक बात सत्ता पक्ष और विपक्ष में कॉमन दिखाई देती है। वो यह कि अधिकांश मामलों में सदस्य यह आरोप लगाते मिलेंगे कि उन्हें गलत जानकारी दी जा रही है। सदस्य लगातार कह रहे हैं कि अधिकारियों द्वारा मंत्रियों को गुमराह करने वाली जानकारी दिए जाने से न तो वे जवाब से संतुष्ट हो पा रहे हैं और न ही उनकी समस्याओं का निराकरण हो रहा है।
मंगलवार का घटनाक्रम इसलिए भी ज्यादा गंभीर है, क्योंकि अवैध उत्खनन का मामला खुद सत्तारूढ़ दल के विधायक ने ही उठाया था। इससे बड़ी बात कोई भी सदस्य और क्या कह सकता है कि यदि उसके द्वारा दी गई जानकारी गलत हो तो उसके खिलाफ एफआईआर करवा दी जाए। आर.डी. प्रजापति तो इतने उत्तेजित थे कि उन्होंने अध्यक्ष को यह तक प्रस्ताव दे डाला कि यदि मंत्री गलत जानकारी देने वाले अफसर को निलंबित नहीं कर सकते तो उन्हें (प्रजापति को) सदन से निलंबित कर दिया जाए।
मंगलवार को प्रजापति दूसरे ऐसे सदस्य थे जिन्होंने खनिज विभाग में हो रही अनियमितताओं और अपराधों का मामला उठाया था। इससे पहले भाजपा के ही विधायक बहादुरसिंह चौहान ने उज्जैन जिले में 30 करोड़ रुपए से अधिक के अवैध खनन का मामला उठाते हुए सीधे सीधे आरोप लगाया था कि वहां का खनिज अधिकारी, माफिया से मिला हुआ है। इसलिए कार्रवाई होने के बजाय मामले में केवल तारीख पर तारीख ही लग रही है।
मध्यप्रदेश में खनिज संपदा के दोहन का मामला हमेशा से ही विवादस्पद रहा है। खनिज माफियाओं द्वारा सरकारी अमले पर हमले की घटनाएं लगातार हो रही हैं। मुरैना जिले में तो ऐसी ही एक घटना में एक आईपीएस अधिकारी को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। तमाम कोशिशों के बावजूद ये घटनाएं थम नहीं रही हैं। आज भी प्रदेश का खनिज संसाधन बड़ी मात्रा में चुराया जा रहा है। और यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि इस तरह के माफियाओं को राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण है। चूंकि आरोप सत्तारूढ़ दल के सदस्यों के हैं इसलिए इन्हें सरकार को बदनाम करने का शगूफा कहकर खारिज भी नहीं किया जा सकता।
दूसरी ओर यह भी देखने में आ रहा है कि विधानसभा में विभिन्न विषयों या जनहित से जुड़े मुद्दों को उठाए जाने पर सरकारी पक्ष बजाय गंभीरता से उसका उत्तर देने के, मामले को किसी दूसरे ही मोर्चे पर उलझाने की कोशिश करता है। पिछले दिनों सदन में ग्रामीण बिजली उपभोक्ताओं की समस्या का मामला उठाया गया था लेकिन वह संविधान और बाबा साहब से होता हुआ दलितों के अपमान तक पहुंच गया। इसी तरह मंगलवार को भी मामला अवैध खनन माफिया से जुड़ा था लेकिन उसे ‘सिंहस्थ की जूठन’ से जोड़कर डायवर्ट करने की कोशिश हुई।
विपक्ष की यह बहुत छोटी सी और तार्किक मांग थी कि सदन के भीतर उठाए गए प्रश्न को लेकर मंत्री ने यदि संबंधित सदस्य को सदन के बाहर ‘संतुष्ट’ कर दिया है तो मंत्री वह बात सदन के भीतर बाकी सदस्यों को भी बता दें। लेकिन सत्ता पक्ष ने इसे अनावश्यक रूप से इतना उलझाया कि मामले का दम ही निकल गया। इस रवैये से यह संकेत क्यों न निकाला जाए कि ऐसे मुद्दों का सामना करने में अब सरकार की सांसें फूलने लगी हैं…