कल मैंने मध्यप्रदेश में बनने जा रही नई सरकार के गठन को लेकर चली जोड़-तोड़ पर बात की थी और उसी में सपा-बसपा का भी जिक्र किया था। आज मैं उसी बात को आगे बढ़ाते हुए, लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बनने वाले महागठबंधन और उसमें बसपा की भूमिका को लेकर कुछ और लिखना चाहता था। लेकिन नई परिस्थितियों ने मुझे अपना विषय बदलने पर मजबूर कर दिया। अब बसपा और बहन मायावती के तेवर को लेकर बाद में लिखूंगा।
आज मुझे विषय बदलने पर, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बनने जा रही कांग्रेस की सरकारों में, नेतृत्व को लेकर दिन भर चले घमासान ने मजबूर किया है। सुबह से लेकर अभी यानी गुरुवार शाम सात बजे तक तीनों राज्यों में जिस तरह का घमासान देखने को मिला है, वह सोचने पर मजबूर करने वाला है।
कांग्रेस ने इस बार मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तीनों राज्यों में चुनाव के दौरान किसी भी नेता को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं किया था। इसके बावजूद मध्यप्रदेश में जहां यह तय था कि कमलनाथ अथवा ज्योतिरादित्य सिंधिया में से कोई मुख्यमंत्री बनेगा वहीं राजस्थान में भी यह बात बिलकुल साफ थी कि वहां फैसला अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच होगा। पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में दो से अधिक नाम चर्चा में थे, लेकिन वहां भी मुख्य रूप से भूपेश बघेल और टी.एस.सिंहदेव के बीच ही निर्णय होने के कयास लगाए जा रहे थे।
कांग्रेस के नेताओं ने चुनाव के दौरान, मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट न किए जाने पर सफाई दी थी कि उनके यहां नेता का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से होता है और चुनाव के बाद जो विधायक चुनकर आएंगे, वे ही तय करेंगे कि उनका नेता कौन होगा। सैद्धांतिक रूप से सुनने में यह बात बहुत अच्छी और पूरी लोकतांत्रिक पारदर्शिता वाली लगती है।
चुनाव पूरे हुए। छत्तीसगढ़ को छोड़कर, जैसे भी स्थिति बनी, मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी कांग्रेस की सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ। जैसाकि कहा गया था और जैसाकि होता भी आया है, विधायक दल का नेता चुनने के लिए सभी नए विधायकों की बैठक हुई। इस बैठक के लिए केंद्रीय नेतृत्व ने अपने पर्यवेक्षक भी भेजे। उन पर्यवेक्षकों की मौजूदगी में नेता के बारे में रायशुमारी भी हुई। लेकिन नतीजा वहां घोषित नहीं किया गया। चुनाव के दौरान नारा जरूर दिया गया था- वक्त है बदलाव का- लेकिन परंपरा नहीं बदली। तमाम तरीकों से नए विधायकों व अन्य कार्यकर्ताओं की राय जानने के बाद भी एक लाइन का प्रस्ताव पारित किया गया कि फैसला आलाकमान पर छोड़ा जाता है।
बस यहीं से तय हो गया कि, यह पेंच इतना आसान नहीं है जितना बताया जा रहा है और यह बड़ी मुश्किल से खुलने वाला है। बात दिल्ली पहुंची और गुरुवार को पूरे दिन टीवी चैनलों पर जो दिखाया गया उससे लगा कि जितना घमासान चुनाव लड़ने के दौरान नहीं हुआ उससे ज्यादा घमासान चुनाव जीतने के बाद नेता चुनने को लेकर हो रहा है। मैं जब ये पंक्तियां लिख रहा हूं उस समय तक तीनों राज्यों में नेता चयन का फैसला नहीं हो सका है। हो सकता है आप पाठकगण इस मायने में खुशनसीब हों कि आपको यह कॉलम पढ़ने के साथ साथ तीनों प्रदेशों के नए मुखिया का नाम भी जानने को मिल जाए।
मैंने पूरे दिन इस घमासान को लेकर अलग अलग टीवी चैनलों की बहस सुनी। एक तरफ मीडिया लगा हुआ था यह बताने में कि किस तरह नेता के नाम पर मारकाट मची हुई है और दूसरी तरफ बेचारे कांग्रेस के प्रवक्ता इस दृश्य को एक तरह से ‘इग्नोर’ करते हुए सफाई दे रहे थे कि यह कार्यकर्ताओं का उत्साह है। उनका कहना था कि इतने साल बाद पार्टी सत्ता में आई है इसलिए ऐसा जोश स्वाभाविक है। उनकी दलील थी कि हर नेता के अपने समर्थक और प्रशसंक होते हैं, यदि वे खुशी या उत्साह में अपने नेता के नारे लगा रहे हैं तो इसमें गलत क्या है।
लेकिन तमाम सफाइयों के बावजूद टीवी चैनल जो दिखा रहे थे उससे लग रहा था कि जो हो रहा है वह कांग्रेस की छवि के लिए ठीक नहीं है। जो पार्टी बड़ी मुश्किल से, बहुत ही कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए आज सत्ता के दरवाजे तक पहुंची है, यदि वहां आगाज ही ऐसा है तो अंजाम कैसा होगा? हो सकता है एक दो दिन बाद सबकुछ ठीक हो जाए। नाराजी के इस उबाल की ऊपरी परत ठंडी दिखाई देने लगे। लेकिन असल मुद्दा और चिंता कांग्रेस के लिए यह होनी चाहिए कि, सतह के नीचे जो उबाल है वह लोकसभा चुनाव में कहीं बात न बिगाड़ दे।
देखिए, चुनाव अभी-अभी संपन्न हुआ है। हम मध्यप्रदेश की ही बात करें तो यहां कांग्रेस और भाजपा के बीच सीटों और वोटों का अंतर बहुत ही कम रहा है। यानी प्रदेश की जनता दलों के समर्थन को लेकर साफ-साफ बंटी हुई है। डर इस बात का है कि ऐसे में इस तरह के दृश्य कहीं लोगों के मन में कांग्रेस को चुन लेने का पछतावा पैदा न कर दें। और कहीं यह पछतावा लोकसभा चुनाव में उन्हें फिर से भाजपा की ओर न मोड़ बैठे।
एक और बात मुझे इससे भी ज्यादा डराती है, वो ये कि इस तरह की घटनाओं से कहीं लोगों के मन में भाजपा के उस नेतृत्व को उचित ठहराने की धारणा न बनने लगे जिसे अब तक ‘तानाशाह’ बताया जाता रहा है। कहीं लोग यह न सोचने लगें कि कांग्रेस के ऐसे ‘घमासानी लोकतंत्र’ से तो भाजपा का ‘चाबुकी लोकतंत्र’ ही अच्छा है। नेता तो आते जाते रहेंगे, पर लोगों के मन में यह धारणा घर कर गई तो लोकतंत्र के लिए ठीक न होगा।