चुनाव नतीजों की कयासबाजी लगाने वालों को कल मैंने ऊंट का उदाहरण दिया था। यह उदाहरण देने के पीछे कारण यह था कि मध्यप्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा को यदि हम वो ऊंट मानें जिसकी करवट पर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं, तो हमें यह याद रखना होगा कि पिछले चुनाव में यह ऊंट अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस की तुलना में 8.49 फीसदी ज्यादा वोट वाले पहाड़ पर चढ़ गया था।
दोनों दलों को मिले वोटों में इतने अधिक अंतर का असर इन्हें मिलने वाली सीटों में भी दिखा था और उस समय भाजपा को 165 और कांग्रेस को सिर्फ 58 सीटें मिल सकी थीं। इसीलिए मैंने कहा कि ऊंट की करवट देखने से पहले यह तो तय कर लीजिए कि क्या भाजपा का ऊंट मतों के इस भारी भरकम अंतर वाले पहाड़ से सचमुच नीचे उतर आया है?
अंतर के इस गणित पर आगे बात करने से पहले एक किस्सा सुन लीजिए। चुनाव के दौरान भोपाल में डेरा डाले कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीपसिंह सुरजेवाला से मेरी बात हुई। कांग्रेस की संभावना, उसकी तैयारी आदि को लेकर मेरे कई सारे सवालों के बाद उन्होंने मुझसे पूछा- ‘’आपका आकलन क्या कहता है?’’ मेरा जवाब था- ‘’इस बार कांग्रेस हवा में है और भाजपा जमीन पर…’’
मेरा जवाब सुन कर सुरजेवाला बोले- ‘’यह बहुत मुश्किल पहेली है, इसका क्या मतलब?’’ मैंने कहा- ‘’हवा और जमीन शब्दों का मुहावरों में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों अर्थ है। आप चाहें तो मान लें कि आपकी हवा बह रही है और चाहें तो मेरी बात का यह मतलब भी निकाल लें कि आपके दावे हवा-हवाई हैं। दूसरी तरफ भाजपा चाहे तो यह मान ले कि जमीन पर उसकी पकड़ बनी हुई है और चाहे तो यह अर्थ निकाल ले कि वह आसमान से जमीन पर आ गिरी है।‘’
सुरजेवाला ने मेरे कहे का क्या अर्थ लिया यह तो उन्होंने सीधे सीधे नहीं बताया पर इतना ही कहा- ‘’जब तेज हवा चलती है तो बड़े बड़े पेड़ उखड़ जाते हैं।‘’ मैं उनके इस कमेंट पर कुछ नहीं बोला, लेकिन मन में तत्काल जवाब उभरा, हां आंधी आने, बड़ा पेड़ उखड़ने और धरती हिलने आदि से तो कांग्रेस का पुराना रिश्ता है। कहने को मन यह भी हुआ कि तेज हवा या आंधी में उखड़ने का खतरा बड़े पेड़ों को होता है, जमीन से चिपक कर बैठी घास को नहीं…
दरअसल मेरा मानना है कि इस बार मध्यप्रदेश में चुनाव का फैसला वोटों के जुड़ाव पर नहीं बल्कि उनके बिखराव पर निर्भर करेगा। बिखराव की इस आंधी में जो भी अपने वोटों को कम से कम बिखरने देगा, बाजी उसीके हाथ लगेगी। जब तक मतदान नहीं हुआ था, तब तक मध्यप्रदेश के चुनावी माहौल की ऊर्जा को देखते हुए मेरा अनुमान था कि इस बार कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि वोटिंग का आंकड़ा 80 फीसदी को छू ले। यदि इतना न भी हुआ तो 77-78 फीसदी से कम तो वोटिंग होगा ही नहीं।
मेरा यह अनुमान उस सहज धारणा पर आधारित था कि यदि लोग सरकार से नाराज हैं और यदि वे सचमुच बदलाव चाहते हैं तो हालात को बदलने के लिए घर से जरूर निकलेंगे। मेरे सामने 2003 का उदाहरण भी था जब प्रदेश की जनता ने पिछली बार की तुलना में सात फीसदी से अधिक मतदान कर, दस साल पुरानी दिग्विजयसिंह सरकार को उखाड़ दिया था। हालांकि उस चुनाव के आंकड़ों के साथ एक दिक्कत यह है कि उससे पहले 1998 में चुनाव हुए थे तब मध्यप्रदेश बंटा नहीं था और 2003 के चुनाव मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ का बंटवारा होने के करीब तीन साल बाद हुए।
2000 में मध्यप्रदेश के टुकड़े हो जाने का परिणाम यह हुआ कि 1998 की तुलना में 2003 में कुल मतदाताओं की संख्या भी काफी कम हुई और विधानसभा सीटों की संख्या भी 320 से घटकर 230 रह गई, क्योंकि 90 सीटों वाला इलाका छत्तीसगढ़ में चला गया। इसके बावजूद बड़ी संख्या में लोग दिग्विजय सरकार को हटाने के लिए घरों से बाहर निकले। इसका पता इस बात से चलता है कि 1998 में कुल 4 करोड़ 48 लाख 61760 मतदाताओं में से 2 करोड़ 70 लाख 12396 ने वोट डाले थे तो 2003 में कुल मतदाताओं की संख्या घटकर 3 करोड़ 79 लाख 36518 हो जाने के बावजूद 2 करोड़ 55 लाख 10719 लोग वोट डालने घरों से बाहर निकले।
मध्यप्रदेश में इस बार वैसे बदलाव को दर्शाने वाला तगड़ा मतदान नहीं हुआ है। एक खास बात इस बार यह भी है कि मैदान में तीन ताकतें वोटों का बंटवारा करती नजर आ रही हैं। इनमें एक है सामान्य एवं उच्च वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी सपाक्स और दूसरी आम आदमी पार्टी। इन दोनों का प्रवेश प्रदेश की पांच साला चुनावी राजनीति में पहली बार हुआ है। ये दोनों पार्टियां उस शहरी और मध्यम अथवा उच्च मध्यमवर्ग का ज्यादा प्रतिनिधित्व करती हैं जो अब तक अधिकांशत: भाजपा का पक्षधर रहा है।
ये दोनों दल कितने भी वोट ले जाएं, ज्यादातर संभावना इस बात की है कि वे भाजपा को अधिक चोट पहुंचाएंगे। लेकिन भाजपा के लिए राहत की बात यह है कि ये वोट एकमुश्त कांग्रेस के खाते में भी नहीं जा रहे। इसका मतलब यह हुआ कि जितने भी मत डले हैं, उनमें हिस्स बांटी ज्यादा होगी और इस विभाजन के कारण भाजपा और कांग्रेस का मुकाबला और नजदीक का हो जाएगा। यही कारण है कि हर कोई इस बार चुनाव को कांटे की टक्कर बता रहा है।
वोटों को बिखराने वाली तीसरी ताकत इस बार बड़ी संख्या में मैदान में मौजूद बागी प्रत्याशी हैं। वैसे तो बागी हर चुनाव में होते हैं, लेकिन इस बार एक मोटा अंतर यह है कि, इस बार के बागी ज्यादा असरदार और मैदानी पकड़ वाले हैं। इनमें से जो भी जिस दल से टिकट न मिलने के कारण चुनाव मैदान में उतरा हो, निश्चित रूप से वह न सिर्फ उस दल को नुकसान पहुंचाएगा, बल्कि टोटल चुनावी गणित को भी प्रभावित करेगा।
आगे इसी मसले को आगे बढ़ाते हुए बात करेंगे चुनाव के अलग अलग फैक्टर्स की…