मरने की यह वजह नहीं हो सकती, होनी भी नहीं चाहिए…

राजनीतिक हो हल्‍ले के बीच पिछले दिनों एक बहुत महत्‍वपूर्ण खबर यूं ही चली गई जिस पर बाकायदा गंभीर विमर्श होना चाहिए था। यह खबर अखबारों के पहले पन्‍ने पर छपी जरूर और अगले दिन उसका फॉलोअप भी हुआ, लेकिन यह क्राइम की स्‍टोरी की तरह छप कर रह गई। जबकि इसके पीछे जो सामाजिक विडंबना छिपी हुई थी उस पर सबसे ज्‍यादा ध्‍यान जाना चाहिए था।

खबर यह थी कि भोपाल में 12 वीं कक्षा के एक छात्र ने खुदकुशी कर ली। आमतौर पर बच्‍चे पढ़ाई संबंधी कारणों या परीक्षा में फेल हो जाने के अलावा नौकरी संबंधी दिक्‍कतों या प्रेम प्रसंगों में असफलता के चलते ऐसा आत्‍मघाती कदम उठाते हैं। लेकिन भोपाल के इस किशोर की आत्‍महत्‍या की वजह पूरे समाज के रोंगटे खड़े कर देने वाली है।

मूलत: झांसी जिले के टहरौली के रहने वाले 17 साल के रवि साहू का सुसाइड नोट जरा सुनिए, यह हमारे आज के समाज के भीतर पनप रहे खोखलेपन का आईना है। उसने लिखा-‘’पापा ने मुझे सब कुछ दिया, लेकिन समय नहीं दिया। मैं अकेले चलते चलते थक गया हूं। अब मुझसे और नहीं चला जाता। मैं बहुत कुछ कहना चाहता हूं। मेरा सपना था कि अपने पापा को कार में घुमाऊं लेकिन समय गुजर गया। अब उसका समय नहीं बचा। अब जाने का समय आ गया है। मेरे पापा अच्‍छे हैं, भैया अच्‍छे हैं। हो सके तो दीदी आप अपने बच्‍चों से हर रोज शाम को बात करना। शायद उन्‍हें मन में किसी परेशानी को लेकर कोई बात बतानी हो। आपने भी यदि अपने बच्‍चों से बात नहीं की तो किसी दिन कोई मेरी तरह कागज पर कुछ लिख कर निकल जाएगा।‘’

रवि के पिता खेती किसानी करते हैं और उसे उन्‍होंने बेहतर पढ़ाई करने के लिए भोपाल भेजा था। वह यहां अपने चचेरे भाई के घर रहता था। ऐसा नहीं कि वह पढ़ाई में कमजोर था,बल्कि दसवीं में वह अच्‍छे अंकों से पास हुआ था और यहां आईआईटी की कोचिंग भी कर रहा था।

यानी एक युवा ने सिर्फ इसलिए अपनी जान दे दी क्‍योंकि समाज के पास उसकी बात सुनने के लिए टाइम नहीं था। उसके माता पिता के पास भी नहीं। इससे बड़ा दुर्भाग्‍य इस समाज का क्‍या होगा कि आज की युवा पीढ़ी को अकेलापन इतना खा रहा है कि वे अपनी जान देने जैसा कदम उठाने लगे हैं।

दरअसल हमने संचार के ढेर सारे संसाधन तो विकसित कर लिए हैं लेकिन हमारे बीच से संवाद गायब होता जा रहा है। हम सिर्फ मशीनी संवाद करते हैं, वो संवाद जिसमें संवेदनाएं हों,भावनाएं हों, एक दूसरे का सुख-दुख समझने या जानने की इच्‍छा हो, ऐसा संवाद हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से खत्‍म होता जा रहा है। यह दृश्‍य आम हो चला है कि एक ही कमरे में बैठे लोग चाहे परिवार के हों या फिर ऑफिस के, आपस में कोई बात न करते हुए बस अपने-अपने मोबाइल पर ही व्‍यस्‍त रहते हैं।

ऐसा नहीं है कि परिवारों में यह स्थिति एकतरफा है। रवि साहू के मामले में तो माता-पिता की ओर से संवाद नहीं हुआ लेकिन कई मामलों में स्थिति इसके उलट है। माता पिता अपने बच्‍चों से बात करना चाहते हैं, लेकिन बच्‍चों के पास भी उनके लिए समय नहीं है। और यह स्थिति भौतिक दूरी होने पर ही निर्मित नहीं होती, पास में बैठकर भी हम मानसिक तौर पर दूर रहते हुए, अपने मोबाइल या कंप्‍यूटर में व्‍यस्‍त होते हैं। यदि ऐसी घटनाओं को होने से रोकना है तो हमें अपने बीच में वास्‍तविक संवाद को लौटा कर लाना होगा।

जी न्‍यूज डिजिटल के संपादक दयाशंकर मिश्र इन दिनों ऐसे ही विषयों पर डियर जिंदगीनाम से एक श्रृंखला लिख रहे हैं। सुबह सवेरे उसका नियमित प्रकाशन भी कर रहा है। ऐसे ही एक आलेख का छोटा सा किस्‍सा यहां बड़ा मौजू है-

‘’बेटे की गलती से बिजनेसमैन पिता को काफी नुकसान हुआ। नाराज पिता ने बेटे को कुछ कड़वी बातें कह दीं। बेटा रूठकर शहर चला गया। कई साल बीत गए। उसे गलती का एहसास हुआ। लौटने का मन बना। लेकिन पिता की कठोरता का डर बाकी था। उसने चिट्ठी लिखी। मैं घर आ रहा हूंअगर मुझे आपने माफ कर दिया हो तो रेल लाइन के पास ही जो पीपल है,उस पर एक झंडा लगा देना। अगर झंडा मिला तो मैं स्‍टेशन पर उतर जाऊंगानहीं तो सीधे निकल जाऊंगा।‘’

‘’स्‍टेशन पास आने पर उसने खिड़की के पास बैठे यात्री को सारी बात बताते हुए कहाअगर पीपल पर झंडा न होतो मुझे बता देना। मैं नहीं उतरूंगा। स्‍टेशन नजदीक आते ही उस यात्री की आंखे नम हो गईंवह भावुक हो गया। घर लौटने वाले ने पूछाक्‍या हुआयात्री ने आंखों की नमी को रुमाल का सहारा देते हुए कहा.. पीपल दिखाई ही नहीं दे रहावहां इतने झंडे लगे हैंतुम जल्‍दी से उतरने की तैयारी करोट्रेन यहां थोड़ी ही देर रुकती है।…

दयाशंकर लिखते हैं- ‘’रेत के टीले तो हवा से इधर-उधर बदलते रहते हैंलेकिन रेगिस्‍तान कभी नहीं बदलता। इसी तरह माता-पितापति-पत्‍नीदोस्‍तों का प्‍यार भी नहीं बदलता। हां उस पर वक्‍त की धूल जमा हो जाती हैबस उसे हटाना होता है।‘’

पर बड़ा सवाल यह है कि यह धूल हटाए कौन और यह हटे कैसे? कई बार इसमें हमारा ईगो आड़े आ जाता है, तो कई बार पहल करने की हिचक। हम अपनों से ही अपनी बात कहने में हिचक जाते हैं। रवि साहू ने जिंदगी का अंतिम कदम उठाते हुए अपने सुसाइड नोट में जो बात लिखी यदि वह जीते जी हिम्‍मत के साथ वही बात अपने माता पिता से कह देता या फिर उसके माता पिता जिनके पास आज पछतावे के सिवा कुछ नहीं बचा, यदि वे अपने बेटे की नियमित खोज खबर लेते रहते तो शायद एक जिंदगी बच जाती।

याद रखना होगा, संवाद जिंदगी चलाने के लिए भी जरूरी है और जिंदगी बचाने के लिए भी…

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