मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्कूल बसों की दुर्घटनाओं के लिए कुख्यात होती जा रही है। पिछले कुछ महीनों में जितनी दुर्घटनाएं स्कूल बसों से हुई हैं वे गंभीर चिंता का विषय हैं। ऐसा लगता है कि तमाम कोशिशों के बावजूद स्कूल बसों की व्यवस्था (?) दिनोंदिन बेलगाम होती जा रही है। कार्रवाई का दिखावा जरूर होता है लेकिन प्रशासनिक और राजनीतिक दोनों गतिविधियों का केंद्र होने के बावजूद,राजधानी जैसी जगह पर भी ऐसा कोई कारगर मैकेनिज्म नहीं बन पाया है जो मासूम बच्चों की जान को खतरे में डालने वाले इस जानलेवा सिस्टम को दुरुस्त कर सके।
गुरुवार को ऐसे ही एक हादसे में एक महिला शिक्षिका की मौत हो गई। 36 वर्षीय यह महिला अपने दुपहिया वाहन से सुबह स्कूल जा रही थी और उसे पीछे से आती एक स्कूल बस ने ही टक्कर मार दी। घटना के चश्मदीदों ने जो जानकारी दी है उसके मुताबिक बस का ड्रायवर बहुत ही खतरनाक तरीके से वाहन चला रहा था और महिला को टक्कर लगने से पहले दो व्यक्तियों ने किसी तरह छलांग लगाकर उससे अपनी जान बचाई थी।
अब जरा हादसे के बाद के घटनाक्रम पर आ जाएं। आमतौर पर होता यह है सड़क दुर्घटनाओं के सिलसिले में पुलिस ड्रायवर के खिलाफ गैर इरादतन हत्या का मामला दर्ज कर लेती है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ऐसी घटनाओं को गैर इरादतन माना जाए? भोपाल की ताजा घटना में ही बस की चपेट में आने से बचे एक चश्मदीद का कहना है कि बस का ड्रायवर ईयरफोन लगाए हुए था। यदि यह कथन सही है तो क्या इस तर्क को गले उतारना आसान होगा कि ड्रायवर एक कम गंभीर अपराध का दोषी है। और चलिए कान में डब्बियां लगाकर गाड़ी चलाने से उसे सुनाई न दे रहा हो, लेकिन उसे दिखाई तो दे रहा होगा। जब उसकी चपेट में आने से दो लोग बचे तब भी क्या उसे यह समझ में नहीं आया होगा कि वह किसी अपराध की तरफ बढ़ रहा है। और जब उसने इतना सब कुछ जानते समझते हुए भी उस महिला को टक्कर मार कर उसकी जान ले ली तो यह तो सीधे सीधे हत्या ही हुई ना…
जरा इस घटना का और विश्लेषण कीजिए, आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे। आखिर कैसे कैसे ड्राइवर स्कूल बसों को चला रहे हैं। रोज हजारों की संख्या में शिक्षण संस्थानों को जाने वाले बच्चों की जान ऐसे यमदूतों के हाथ में है। यह तो दुर्घटना में एक महिला की जान गई, यदि ड्राइवर की हरकतों से वह बस ही पलट जाती या उसकी किसी और बड़े वाहन से भिड़ंत हो जाती तो उन बच्चों का क्या हाल होता जो उसमें सवार थे।
दरअसल कायदे कानूनों के तमाम टोटकों के बावजूद यह व्यवस्था बेलगाम है। न तो प्रशासन के पास और न ही शिक्षा संस्थाओं के प्रबंधकों के पास इस बात का कोई पुख्ता डाटा है कि स्कूल/कॉलेज के वाहन कौन लोग चला रहे हैं? उन्हें वाहन चलाने का कितना और किस तरह का अनुभव है? उनकी पृष्ठभूमि क्या है, कहीं उनका कोई आपराधिक रिकार्ड तो नहीं है? जबकि ये बुनियादी बातें हैं जिनका ब्योरा प्रशासन और शिक्षा संस्थान प्रबंधकों के पास होना ही चाहिए। बच्चों को ले जाने वाली गाडि़या आज भी अवैध तरीके से लगाए गए खतरनाक गैस किट से चल रही हैं। कई बार यह बात उठी कि ऐसी गाडि़यों में स्पीड गवर्नर होने चाहिए लेकिन उसका भी पालन नहीं हो रहा। और जब ड्रायवरों के पास वरदी और पहचान पत्र या नेमप्लेट तक नहीं हों तो ऐसी बसों में जीपीआरएस सिस्टम की बात तो भूल ही जाइए। कुलमिलाकर स्कूलों या अन्य शिक्षा संस्थाओं के ये वाहन, भीतर बैठे और बाहर चल रहे दोनों लोगों के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गए हैं। ऐसा खतरा जो सबको दिख रहा है, पर सवाल यह है कि कोई है जो इसे देखेगा?
अच्छा लगा मुख्यमंत्रीजी
भोपाल का कत्लखाना कहीं और ले जाने के मामले पर 8 सितंबर को हमने इसी कॉलम में एक सवाल उठाया था कि यह कत्लखाना भोपाल से हटकर आसपास के किसी गांव में बने या किसी और शहर में, लेकिन क्या वहां के लोगों को भी वही परेशानी नहीं होगी जो इस कत्लकखाने के कारण भोपाल के लोगों को हो रही थी।‘’भोपाल को सुरक्षित रखकर आप इसे कहीं और भी बनाएंगे तो इस सवाल का जवाब भी आपको देना होगा कि क्या प्रदूषण की मार राजधानीवासियों पर ही पड़ती है बाकी लोगों पर नहीं?’’
गुरुवार को कत्लखाने की नई जगह तलाशने के लिए हुई मीटिंग में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने निर्देश दिए कि कत्लखाने के लिए ऐसी जमीन ढूंढी जाए जिसके दो किमी के दायरे में कोई आबादी न हो।
मीडिया में यह ‘हमने कहा था’ का जमाना है। उसके बावजूद मैं नहीं समझता कि मुख्यमंत्रीजी को यह कॉलम पढ़ने का समय मिलता होगा। लेकिन फिर भी उन्होंने इस बात का संज्ञान लिया यह जानकर अच्छा लगा।