ये है मुझ मर्द की दर्द भरी कहानी (भाग-2)

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आशुतोष नाडकर

मेरी दर्द भरी कहानी की शुरुआत उसी दिन हो गई थी जब मैंने मर्द के रूप में एक पढे-लिखे मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लिया था.. चार भाई-बहनों में एक बहन मुझसे डेढ़ साल बड़ी और दो बहनें मुझसे छोटी थी.. हमारे देश में बेटियों को गर्भ में मार देने का महापाप किया जाता है.. मर्दों को गर्भ में भले न मारा जाता हो.. लेकिन खुर्राट किस्म के बाप इस बात की कमी बेटों के जवाँ होने तक हर कभी उन्मुक्त भाव से उनकी सुताई कर पूरी कर ही लेते हैं..। कश्मीर से कन्याकुमारी और अटक से कटक तक मेरे द्वारा किये गये सर्वे के मुताबिक भारतवर्ष के नब्बे फीसदी पिताजी, बाऊजी, पापा, बापू, डैड, बाबा, अण्णा, अप्पा (संबोधन चाहे इनमें से कौन सा भी हो) पर हरेक बाप खुर्राट ही होता है.. बेटियों पर हाथ न उठाने के लिये दृढ़संकल्पित मेरे पिता ने मुझे कभी संटी, कभी बेल्ट, कभी चप्पल जैसे उपकरणों से (आप इस फेहरिस्त को अपने अनुभव के आधार पर आगे भी बढ़ा सकते हैं) कितनी बार सूता है इसकी गिनती न उन्हें याद होगी न ही मुझे..

पढने में मैं हमेशा से गधा था.. और बड़की के हाल तो मुझसे भी बुरे थे.. मुझसे एक कक्षा आगे पढ़ने वाली बड़की छठवीं कक्षा में फेल हो गई और हम दोनों एक ही क्लास में आ गये.. परीक्षा के समय मुझे ये समझ आ गया कि आखिर बड़की फेल क्यों हुई..एलजेब्रा और ज्योमेट्री के सवालों के भंवर में उलझकर मेरा गणित उलझ ही गया.. मैं पहली बार और बड़की लगातार दूसरी बार छठवीं में फेल हो गये.. मुझे पूरा विश्वास था कि पिताजी ने घर पर पिटाई के सारे उपकरण पहले ही जुटा लिये होंगे.. लेकिन एक संतोष भी था कि मैं अकेला नहीं हूँ जिस पर इन उपकरणों का इस्तेमाल होने वाला है.. लेकिन तमाम पूर्वानुमान धराशायी हुए और उपकरणों का इस्तेमाल केवल और केवल मुझ पर हुआ.. बड़की को ये कहते हुए ‘डिस्काउंट’ दे दिया गया कि- “उसकी तो हम शादी कर देंगे.. साले.. लेकिन तेरा यही हाल रहा तो तुझे जिंदगी भर कौन खिलायेगा..” मुझे फिर अपने मर्द होने पर कोफ्त हुई.. आखिर पिताजी मेरी शादी कराने की बात इतनी आसानी से क्यों नहीं कहते..

बड़की देखने में सुंदर थी.. ग्रेज्युएशन किये बिना ही उसकी शादी कर दी गई.. मैंने और मंझली ने जैसे-तैसे ग्रेज्युएशन पूरा किया.. पहले पढ़ाई को लेकर गरियाने वाले मेरे पिता के पास अब मुझे गरियाने की नई वजह थी, मेरा बेरोजगार होना.. “खा-खाकर सांड हो गया है..” ये जुमला अक्सर मेरे कानों में मिश्री घोलता रहता था.. लेकिन मंझली का बेकार घर में बैठना उन्हें कभी नहीं खला.. मझली खूबसूरत नहीं थी.. सो उसकी शादी में दान-दहेज की चिंता पिताजी को ज्यादा रहती थी.. और उनका ये मानसिक तनाव मेरे सर पर फटना लाजमी था.. क्योंकि मैं उनका एकलौता बेटा यानि कि मर्द था..

सबसे छोटी यानि छुटकी पापा की आँखों का नूर थी.. पढ़ने में तेज, बोल्ड एंड ब्यूटीफुल.. छुटकी लड़कों की तरह कपड़े पहनती थी.. कई बार तो वो मेरे टी-शर्ट भी पहन लेती थी.. पिताजी अक्सर अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच फ़ख्र से छुटकी के कंधे पर हाथ रखकर कहते थे- “ये बेटा है मेरा.. बेटा..” कई बार मुझे लगा कि पिताजी से पूछना चाहिए कि कुदरत ने जब छुटकी को लड़की बनाया है, तो आप उसकी तारीफ में ही सही उसे बेटा क्यों कह रहे हैं.. क्या मेरे जनाना कपड़े पहनने पर वे ये बात गर्व से कहेंगे की ये मेरा बेटा नहीं बल्कि बेटी है बेटी…

मुझे पेंटिंग का काफी शौक था.. लेकिन पिताजी का कहना था कि ये क्या लौंडियों की तरह के शौक पाल रखे हैं.. और मेरी पेंटिग्स से उन्हें कोई आर्थिक फायदा भी नज़र नहीं आ रहा था.. लिहाजा मेरी चित्रकारी को दो गज ज़मीन के नीचे दफ़न कर दिया गया.. पिताजी के तानों के चलते मेरे पास मामूली सी नौकरी करने के सिवाय कोई चारा नहीं था.. मर्द होने के कारण घर चलाने में पिताजी की मदद करने की जिम्मेदारी मेरी थी.. मेरी कमाई की पाई-पाई की जानकारी रखने वाले पिताजी मुझसे जेबखर्च तक का पूरा हिसाब लेते थे.. उधर छुटकी ने अव्वल नंबरों से इंजीनियरिंग की डिग्री ली और नौकरी भी करने लगी.. आर्थिक संकट के बावजूद पिताजी ने छुटकी से वेतन लेना तो दूर कभी उसकी सैलेरी का हिसाब तक नहीं मांगा.. यहाँ तक कि जब छुटकी ने अपने ही एक सहकर्मी से शादी का फैसला किया तो मामूली सी ना-नकुर के बाद उन्होंने इस विजातीय रिश्ते के लिये भी हामी भर दी..

(जारी)

और इसी बीच एक दुर्घटना घट गई….

कल पढि़ए तीसरा और अंतिम भाग

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