वैसे तो यह समय या तो भारत पाकिस्तान तनाव पर लिखने का है या फिर लोकसभा चुनाव की राजनीति पर। लेकिन मेरी आज की बात थोड़ी हटकर है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि इस विषय का राजनीति से कोई लेना देना न हो। कोई अगर ढूंढना चाहे या फिर राजनीतिक फितरत के चलते चुनावी फायदा उठाना चाहे तो इस विषय में उसकी भी बहुत गुंजाइश है। लेकिन मैं शुद्ध रूप से इसके सामाजिक संदर्भों पर बात करना चाहता हूं।
शनिवार को भोपाल में उदय सामाजिक विकास संस्था के एक कार्यक्रम में जाना हुआ। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के संदर्भ में आयोजित यह कार्यक्रम घरेलू महिला कामगारों की समस्या पर केंद्रित था जिसमें भोपाल सहित कई अन्य जिलों से आई महिला कामगारों ने भाग लिया। इनकी मुख्य मांग थी कि राज्य में घरेलू कामगार कानून बनाया जाए।
भोपाल में जुटी इन महिलाओं का कहना था कि राजस्थान, तमिलनाडु, झारखण्ड, आन्ध्रप्रदेश, केरल और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य इस तरह का कानून बनाने की पहल कर चुके हैं। मध्यप्रदेश सरकार भी ऐसा फैसला करते हुए समान काम समान वेतन, काम के निश्चित घण्टे तय करने, ओवरटाइम देने, साप्ताहिक अवकाश के साथ-साथ मातृत्व अवकाश एवं अस्वस्थ होने की स्थिति में भी अवकाश देने की व्यवस्था करवाए।
महिलाओं का कहना था कि उन्हें सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ मिले, दुर्व्यवहार और शोषण की स्थिति से बचाने के कानूनी प्रावधान हों, उनका सामाजिक बीमा करवाया जाए, उन्हें स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जाएं और उनके लिए अलग से मध्यप्रदेश राज्य सामाजिक सुरक्षा बोर्ड जैसी संस्था का गठन हो। एक मांग यह भी थी कि घरेलू महिलाओं को ‘बार्इ’ कहने पर रोक लगाई जाए।
दरअसल आज हमारा सामाजिक और आर्थिक तानाबाना जिस तरह से बदल रहा है और जिस तरह हमारी जीवन शैली में बदलाव आ रहा है, उसमें घरेलू कामगारों की भूमिका बहुत अहम होती जा रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसका चलन अभी बहुत कम है लेकिन शहरी क्षेत्रों में ऐसे कामगारों की संख्या और जरूरत दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।
इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि कई परिवारों की दिनचर्या और बुजुर्गों की परिचर्या में घरेलू कामगार अनिवार्य जरूरत बनते जा रहे हैं। जिस परिवार में पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं वहां घर के बुजुर्गों के साथ-साथ छोटे बच्चों की देखभाल का जिम्मा एक तरह से घरेलू कामगार ही संभालते हैं। वे ऐसे परिवार की धुरी के रूप में काम करते हैं।
लेकिन घरेलू कामगार जितने जरूरी या मददगार हैं उनकी सेवा शर्तों का मामला उतना ही पेचीदा है। परस्पर निर्भरता के बावजूद घर मालिक और कामगार दोनों एक दूसरे से आमतौर पर असंतुष्ट ही रहते हैं। ऐसे कामगारों में ज्यादातर महिलाएं होती हैं और उन्हें प्रताडि़त किए जाने या उनका यौन शोषण किए जाने की शिकायतें भी आम हैं।
आयोजन में आई अनेक महिला कामगारों ने अपने साथ हुई घटनाओं का उल्लेख करते हुए बताया कि उन्हें किन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। उनकी शिकायतों में चोरी का इलजाम लगाने, वेतन रोक लेने जैसी शिकायतें आम थीं। आयोजन में इन सारी बातों से ऐसे कामगारों को बचाने के लिए ट्रेड यूनियन के विचार को ताकत देने की बात भी हुई।
यह बात सही है कि घरेलू कामगारों की शिकायतों और समस्याओं का निराकरण जरूर होना चाहिए। लेकिन मेरा मानना है कि इसका हल सिर्फ कानून बनाकर या ट्रेड यूनियन के जरिए नहीं निकाला जा सकता। क्योंकि घरेलू कामगार उस तरह से किसी फैक्ट्री का श्रमिक नहीं हैं। सामाजिक रूप से और अपनी कार्यप्रकृति की दृष्टि से वह संबंधित परिवार का ही एक सदस्य या उस परिवार की विस्तारित इकाई है। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जहां घरेलू नौकरों को घर में परिवार के सदस्य की तरह ही या कभी कभी तो उससे भी ज्यादा इज्जत दी जाती हो।
ऐसी स्थिति में यदि बीच में कानून या ट्रेड यूनियन जैसी कोई संस्था आती है तो इस बात की पूरी आशंका है कि उसके झंझट को देखते हुए ऐसे कामगारों को अपने यहां रखने के प्रति लोग आशंकित हों और उसका असर उनकी आजीविका पर भी पड़े। कोशिश यह होनी चाहिए कि सामाजिक या स्वयंसेवी संस्थाओं के रूप में कोई ऐसी इकाई हो जो ऐसे कामगारों व परिवारों के बीच सेतु का काम करे।
निश्चित ही ऐसे कामगारों के काम का वर्गीकरण करते हुए संबंधित काम का मानक पारिश्रमिक तय होना चाहिए, जरूरत पड़ने पर अवकाश आदि की सुविधा भी उन्हें मिलनी चाहिए। लेकिन कुछ बातें कामगारों को अपने स्तर पर भी तय करनी होंगी। जैसे एक सबसे बड़ा मामला अवकाश का है। यह नहीं भूलना चाहिए कि कोई भी परिवार घरेलू कामगार को रखता ही इसलिए है कि उसका दैनंदिन काम पूरा हो सके। जब कोई घरेलू कामगार किसी दिन काम पर न आए तो उस परिवार की मुश्किलों को भी समझा जाना चाहिए।
ऐसे में एक हल तो यह हो सकता है कि कामगारों की संस्थाएं खुद ऐसी स्थिति में एवजी कामगार की व्यवस्था करें। यदि नियमित कामगार काम पर नहीं आ पा रहा है तो उसकी बाकायदा सूचना दी जाए और उनके संगठन या संस्था के पास रिजर्व में कुछ ऐसे कामगार हों जो अनुपस्थित रहने वालों के बदले उस घर में जाकर काम संभाल सकें। ऐसे ही सभी घरेलू कामगारों के पंजीयन, उनके पुलिस वेरिफिकेशन, उनके स्वास्थ्य परीक्षण आदि की व्यवस्था भी इन संस्थाओं को देखनी चाहिए।
कई बार देखने में आता है कि घरेलू कामकाज के लिए बच्चों और किशोर बालिकाओं को भेज दिया जाता है। इस पर रोक लगनी चाहिए, क्योंकि एक तो यह बालश्रम कानून के खिलाफ है और दूसरे ऐसे मामलों में बच्चों या बच्चियों के यौन शोषण का खतरा सर्वाधिक रहता है। इसके लिए कामगार महिलाओं के स्वयं सहायता समूह बनवा कर सामूहिक रूप से एकत्र की गई राशि से बच्चों की पढ़ाई लिखाई आदि का प्रबंध करवाया जाना चाहिए। ऐसे मामलों में घर मालिकों को भी योगदान देने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
हमें नहीं भूलना होगा कि बदलते सामाजिक ढांचे ने हमारी जीवनशैली और जीवन मूल्यों दोनों को प्रभावित किया है। बदली हुई परिस्थितियों में काम करने और काम लेने वाले के रिश्तों में आने वाली खराश को रोकना बहुत जरूरी है। लेकिन यह काम बलपूर्वक या कानूनी डर के बजाय आपसी समझ से हो तो ज्यादा अच्छा है। बेहतर सामंजस्य से चीजें बगैर झगड़े झंझट के किस तरह सफलतापूर्वक चलाई जा सकती हैं, मुंबई के डिब्बावाले हमारे सामने इसका बेहतरीन उदाहरण हैं।