देश में विभिन्न मुद्दों को इन दिनों चल रहे प्रदर्शन और आंदोलनों के बीच पिछले दो दिनों में सुप्रीम कोर्ट से आई दो खबरों की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। इनमें से एक खबर जम्मू कश्मीर में लबे समय से बंद इंटरनेट को लेकर है जिस पर कोर्ट ने इंटरनेट की उपलब्धता को भी एक तरह से मौलिक अधिकारों के समकक्ष माना है। दूसरा मामला नागरिकता संशोधन कानून का है जिसे संवैधानिक ठहराए जाने संबंधी याचिका पर सुनवाई से इनकार करते हुए कोर्ट ने कहा कि इस पर सुनवाई का यह उचित समय नहीं है, देश में हिंसा थमने पर इस याचिका को सुना जा सकता है।
चूंकि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर सबसे ज्यादा बवाल मचा है इसलिए मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के ऑब्जर्वेशन को बहुत गंभीरता और संवेदनशीलता के साथ पढ़ा और समझा जाना चाहिए। इस मामले में सबसे पहली बात मीडिया की भूमिका को लेकर है, मीडिया में सुप्रीम कोर्ट के ऑब्जर्वेशन की जिस तरह रिपोर्टिंग हुई है वह बहुत हद तक भ्रम पैदा करने वाली है। ज्यादातर हेडलाइन्स यह भाव जाहिर करती हैं मानो सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा हो कि पहले हिंसा रोको फिर सीएए मामले पर सुनवाई करेंगे। और इस भाव में यह बात भी स्वाभाविक रूप से नत्थी है मानो सुप्रीम कोर्ट सीएए को लेकर हो रहे विरोध को हिंसा बताते हुए उसके प्रति नाराजी जाहिर कर रहा हो।
लेकिन ऐसा नहीं है। पहले मामले को ठीक से समझ लेना होगा। दरअसल संसद में नागरिकता संशोधन बिल पास हो जाने और राष्ट्रपति द्वारा उस पर दस्तखत किए जाने के बाद यह कानून बन गया है। और इस कानून को कई लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में और कई ने देश की विभिन्न अदालतों में अलग अलग ढंग से चुनौती देते हुए याचिकाएं दायर की हैं। कई सारी याचिकाएं दायर होने का संदर्भ देते हुए केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया है कि वह देश भर में सीएए को लेकर दायर याचिकाएं अपने पास बुला ले और उनकी एकजाई सुनवाई करे।
शुक्रवार को जब सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार के इस अनुरोध पर सुनवाई कर रहा था उसी दौरान एक वकील विनीत ढांडा ने एक और याचिका दायर करते हुए उसकी जल्द सुनवाई की मांग की थी। उनकी याचिका में मांग की गई थी कि सीएए को वैध घोषित किया जाए। साथ ही यह निर्देश भी दिए जाएं कि इस कानून का सभी मीडिया में समुचित प्रचार प्रसार हो जिसमें यह स्पष्ट किया जाए कि यह संविधान की भावना के खिलाफ नहीं है और न ही यह देश के किसी नागरिक के विरुद्ध है।
याचिका में चुनाव आयोग को यह निर्देश देने की भी मांग की गई थी कि वह उन सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ कार्रवाई करे जो इस कानून के खिलाफ अफवाहें और हिंसा फैला रहे हैं। इसके साथ ही राज्य सरकारों को निर्देशित किया जाए कि वे अपने यहां नागरिकता संशोधन कानून को पूरी सक्रियता से लागू करें।
विनीत ढांडा की इसी याचिका पर प्रधान न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने जो कहा वह बहुत महत्वपूर्ण है। प्रधान न्यायाधीश एस.ए बोबडे ने वकील से कहा- कितनी हिंसा हो रही है। हम संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को संवैधानिक घोषित कैसे कर सकते हैं? संवैधानिकता के बारे में हमेशा एक अनुमान होता है। आप तो कानून के छात्र रहे होंगे, आपको तो पता ही होगा… मैं पहली बार इस तरह की मांग सुन रहा हूं। कोर्ट का काम किसी भी कानून की वैधता का निर्धारण करना है, यह घोषित करना नहीं कि वह कानून संवैधानिक है। देश इस समय मुश्किल दौर से गुजर रहा है, इस समय शांति स्थापित करने की कोशिश होनी चाहिए… इस तरह की याचिकाएं ऐसा करने में मदद नहीं करतीं।‘’
देश में शांति और सद्भाव को लेकर हाल ही के दिनों में सुप्रीम कोर्ट की यह दूसरी टिप्पणी है। इससे पहले जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी में हुई हिंसा और पुलिस कार्रवाई को लेकर हस्तक्षेप की मांग करने वाली याचिकाओं पर तुरंत सुनवाई की मांग किए जाने पर चीफ जस्टिस ने कहा था- ‘’यदि सार्वजनिक संपत्तियों को इसी तरह नुकसान पहुंचाया जाता रहा तो हम मामले की सुनवाई नहीं करेंगे। हम किसी पर आरोप नहीं लगा रहे, हम बस इतना कह रहे हैं कि हिंसा बंद होनी चाहिए।‘’
ऐसा लग रहा है कि सीएए मामले को लेकर अब सारी लड़ाई कोर्ट के कंधे पर बंदूक रखकर लड़ने की कोशिश हो रही है। एक तरफ सरकार है जिसने नागरिकता संशोधन कानून को लेकर अपने कदम एक इंच भी पीछे हटाने से इनकार कर दिया है। सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी ने इस मामले में लोगों तक सीधे पहुंचकर उन्हें सीएए के बारे में जानकारी देने का अभियान भी चलाया है। दूसरी तरफ कई विपक्षी दल हैं जिन्हें अनेक विश्वविद्यालय और शिक्षा संस्थानों के छात्रों का समर्थन भी मिल गया है, जो सीएए का विरोध करते हुए इसे तुरंत वापस लेने की मांग कर रहे हैं।
सोचने वाली बात यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट, जिसे सीएए के बारे में अंतिम फैसला करना है, जब यह कह चुका है कि हिंसा तत्काल बंद होनी चाहिए तो भी हिंसा जारी क्यों हैं। आखिर वे कौन लोग हैं जो हिंसा को जारी रखना चाहते हैं। क्या हिंसा को इसलिए जारी रखा जा रहा है ताकि सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाया जा सके कि वह मामले में हस्तक्षेप करे या फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि हिंसा को यह सोचते हुए और भड़काया जा रहा हो कि सुप्रीम कोर्ट, अपने निर्देशों और अपनी भावना की अवहेलना होते देख गुस्से में आकर कोई फैसला सुना दे।
कारण चाहे जो भी हो, ये दोनों ही स्थितियां देश के लिए खतरनाक हैं। सराहना करनी होगी सुप्रीम कोर्ट की कि उसने अभी तक न तो हिंसा करने वालों को कोई तवज्जो दी है और न ही कानून को संवैधानिक करार देने की मांग करने वालों को। लेकिन गंभीर बात यह है कि अदालतों पर इस तरह दबाव बनाकर न्याय की निष्पक्षता को प्रभावित करने की कोशिशें हो रही हैं।